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डॉ रूपक वासुदेव

Abstract

4.4  

डॉ रूपक वासुदेव

Abstract

दुविधा

दुविधा

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“सभी तो हैं यहां पर शायद कोई नहीं है,

अपने हैं यहां जो आज अजनबी भी वही हैं।”

 किसी शायरी की तरह यह विचार मन में आते ही विनीत के चिंतित चेहरे पर एक हल्की मुस्कान आ गई। क्या हो गया है मुझे? मेरी पत्नी और इकलौता बच्चा किस हाल में हैं पता नहीं ,कई दिनों से उनसे मुलाकात नहीं है और मेरे मस्तिष्क में शायरी गूँज रही है।इक्कीस दिनों के एकांत प्रवास ने पागल तो नहीं कर दिया मुझे? इस विचार के मस्तिष्क में कौऺधते ही विनीत ने बड़े दिनों बाद हंसने का प्रयत्न किया आंखें छोटी हो गई और थोड़ी चमकदार भी, आंखों के नीचे पड़े काले गड्ढों ने आंखों का साथ देने का भरपूर प्रयास किया पर बनावटी हँसी कालेपन को कम करने में नाकामयाब रही; अलबत्ता गालों पर पड़ी चिंता की झुर्रियों ने हटकर थोड़ा सा रास्ता इस उभरती हुई मुस्कान को दे दिया। गले से यौवन का परिचय देने वाली गुंजायमान अवाज तो ना हो पाई प्रत्युत बीते दिनों की वेदना के कारण यह हँसी गले में निशब्द कंपन ही कर पाई, दोनों अधर इस मुस्कान को लंबी देर तक बनाए रखने की कोशिश में खुल गए और अधरों का भीतरी संवेदनशील हिस्सा मुँह और नाक को ढके हुए मास्क से छू गई। कुसमय हुए इस अप्राकृतिक स्पर्श से विनीत का मन वापस वर्तमान की चिंता में डूब गया, चेहरे की कांति मलिन हो गई, आंखों की चमक आंखों के नीचे हाल ही में उभर आए काले - भूरे गड्ढों में समा गई और चालीस साल के युवक के गालों पर चिंता की रेखाएं इतनी गाढ़ी हो गई मानो वह 55 साल का कोई उम्र दराज व्यक्ति हो। ऐसा हो भी क्यों ना, शरीर तो मन का प्रतिबिंब ही होता है ना, केवल छाया मात्र! विगत कुछ दिनों में हुई दुखद घटनाओं की स्मृतियाँ उसके मनोमस्तिष्क पर किसी छायाचित्र की भाँति चलने लगी और उसका संपूर्ण व्यक्तित्व अपने वर्तमान को भूल उन स्मृतियों में डूबता चला गया ।

कुछ दिनों पहले, हाँ, अभी कुछ दिनों पहले ही सब कुछ सामान्य ही तो था। देश तरक्की की राह पर अग्रसर था। हम लोग एक अच्छा खुशहाल जीवन जी रहे थे -नहीं ,नहीं खुशहाल थे यह निश्चित तौर पर नहीं कह सकता, पर जीवन को खुशहाल बनाने में भरपूर व्यस्त थे। सुबह उठना, पत्नी का नाश्ता बनाना, टिफिन बॉक्स देकर बच्चों को स्कूल भेजना, उदास चेहरा लेकर बच्चों का स्कूल जाना, नित्य क्रिया से निवृत्त होकर जल्दी जल्दी नाश्ता करना, रोड पर दाएँ बाएँ काटकर अपनी कार को सबसे आगे करने की कोशिश करना, आगे बढ़ने पर थोड़ी शांति और खुशी का अनुभव करना, अटक जाने पर परेशान होना और कभी अपने को तो कभी बगल वाले को और कभी सरकार को कोसना, दिन रात की एक तिहाई से भी ज्यादा समय ऑफिस में व्यतीत करना, बॉस के खुश रहने पर अपनी नौकरी पर गर्व महसूस करना और किसी ग्राहक का काम खराब होने पर ऑफिस का माहौल बदलना और खुद की नौकरी को जी भर कर कोसना, लंच आवर में सबके साथ मिलकर बॉस के बारे मे अनाप शनाप बकना, ऑफिस कर्मचारियों के बीच हुए साधारण वार्तालाप को भी मुहावरों लोकोक्तियां और ठहाकों की सहायता से कुछ और ही दर्शाने की कोशिश करना, पूरे दिन भर में कभी ना कभी अपने सीनियर को महज खुश करने के लिए ही उनसे बातें करना, शरीर से थक कर और मन से झल्ला कर घर की तरफ निकलना, रास्ते में घर की सामग्रियों को जगह-जगह रुककर खरीदना, घर आते ही मन में क्षण भर के लिए खुशी की गंगा का बहना,पत्नी और बच्चों को कभी रेस्तराँ, कभी पार्क, कभी मॉल, कभी सिनेमाघर, कभी शादी और कभी पार्टी में ले जाना और कल की चिंता करते हुए रात में सो जाना -यही सब कुछ तो था इस जिंदगी में। तब यह सबकुछ इतना प्यारा ना लगता था, बोर हो जाते थे कई बार हम, छुट्टी लेने का जी करता था मेरा- काम से, दायित्व से, दुनिया से, रिश्ते निभाने की चिक चिक से, पर आज उस यथार्थ को यूँ गले लगाने को जी करता है जैसे नवजात शिशु सोने वक्त माँ की छाती से कसकर चिपट जाता है।

दिन अपने उतार-चढ़ाव के साथ यूं ही गुजर रहे थे कि एक दिन कोरोना नामक महामारी ने दुनिया में कदम रखा। पहले समाचार चैनलों में कभी-कभी इसका भयानक रूप दिखने लगा, फिर सोशल मीडिया पर। उन दिनों यह एक फैशन की ही तरह लगा; बस लंच आवर में बातें कर ली, दोस्तों को व्हाट्सएप पर कुछ चित्र भेज दी ,रात में खाने के वक्त परिवार वालों के साथ बातें कर ली। तब इतने चिंतित नहीं थे हम -कहीं ना कहीं हम आश्वस्त थे। यह उन लोगों के यहाँ हुआ हमारे यहाँ थोड़ी ही होगा। कोई कहता उनका खान-पान ठीक नहीं है कुछ भी खाते रहते हैं अधपका और कच्चा भी- तभी तो होती है यह सब बीमारी वहाँ।कोई कहता उन लोगों के आपस में मिलने जुलने का तरीका ठीक नहीं, पहली मुलाकात में ही एक दूसरे को गले लगाना और चूमना -यह आधुनिक तरीके ही इन बीमारियों के फैलने में सहायता करते हैं, हमारे पुरखों ने तभी तो दूर से ही अभिवादन करने का तरीका अपनाया हुआ था। इस तरह की भिन्न-भिन्न लोगों ने अपनी अपनी मनोवृति के अनुसार एक सिद्धांत पसंद कर लिया था और उसी का सुर अलापते रहते थे।

धीरे-धीरे यह कई देशों में फैलने लगा। न्यूज़ चैनल में भयावह फोटो आने लगे, सोशल मीडिया में लोगों की अचानक मृत्यु की वीडियो दिखने लगी और अस्पताल के अंदर और बाहर अत्यधिक संख्या में अपना इलाज कराने की प्रतीक्षा में मरीजों के बिस्तर पर पड़े होने की तस्वीरें शेयर की जाने लगी। मृत्यु से भी अधिक शक्तिशाली मृत्यु का भय है; मृत्यु आती है और शांति से अपना काम करती है। कई बार मृत्यु गत हो रहे प्राणी को भी मृत्यु का आभास नहीं हो पाता, पर मृत्यु का भय सुक्ष्म भी है और स्थूल भी; सुक्ष्म तब तक जब तक मनुष्य उसे भुलाए बैठा है और जैसे ही मनुष्य को इसका आभास हुआ शरीर के हरेक अंग पर इसका प्रभाव दिखने लगता है, आंखें सुंदर दृश्य देखकर भी नहीं देख पाती, कान मधुर संगीत में रुचि छोड़ देते हैं, कंठ सूख जाता है, रोम खड़े हो जाते हैं, हाथ पैरों में कंपन आ जाते हैं,शरीर निशक्त हो जाती हैं, बुद्धि कुंठित हो जाती है, ज्ञान लुप्त हो जाता है और चिंता में डूबा मन किसी तर्क किसी टोटके की खोज में लग जाता है। धर्म का पाखंड भरने वाले तरह-तरह के दुष्प्रचार कर, अंधविश्वास फैला कर अपना हित साधने में लग जाते हैं; उन दिनों भी कोरोना से भयाक्रांत जनसमूह को पाखंडियो ने तरह तरह के उपायों से भरमाने की कोशिश की; पर गुजरते वक्त के साथ कोरोना ने इन सब को गलत साबित कर दिया। ना सिर्फ पाखंड के वरन धर्म के स्थानों को भी वास्तविकता स्वीकार कर लोगों की भलाई के लिए बंद करने पड़े। विज्ञान से जो उम्मीद थी वह विकसित देशों में महामारी फैलने के बाद हवा हो गई। अंतरराष्ट्रीय उड़ानें रद्द करनी पड़ी और हालात इतने बिगड़े कि पूरे देश में लॉक डॉउन लगाना पड़ा।

स्वतंत्र थे, पर घरों में कैद थे; परिचितों के संपर्क में थे, पर मुलाकातें नादारद थी; फुर्सत ही फुर्सत थी, पर घर से बाहर कदम रखने की लापरवाही करने की हिम्मत न थी। राशन का सारा सामान घर में ठूँस लिया गया।बाहर से लाए हरेक समान को कई घंटे बाहर रखकर ही अंदर लाया जाता,कई कई बार साबुन से हाथ धोए जाते, सैनिटाइजर हाथों में लेकर चारों ओर लगाया जाता; परंतु फिर भी मेरी तबीयत खराब होने लगी, खांसी होने लगी, शरीर में दर्द होने लगा और बुखार भी रहने लगा। आँखों में प्रश्नचिह्र लिए मैंने और पत्नी ने एक दूसरे की तरफ देखा और फिर हम दोनों ने अपने बच्चे आदित्य की तरफ देखा। आशंका ने हम दोनों के मुंह सी दिए। विनती को मेरे छुए हुए सामान से दूर रहने की हिदायत देकर मैं अकेले ही अस्पताल पहुंच गया जहां सभी मरीज एक दूसरे से दूरी बनाए कतार में खड़े थे वहीं लाइन में लग गया। अपनी बीमारी बताने पर उन्होंने नमूना जांच के लिए लिया और मुझे वहीं आइसोलेशन वार्ड में एक बिस्तर पर लेटा दिया। मन तो घर लौट कर बच्चे को प्यार करने का कर रहा था पर बच्चे की सलामती के लिए उससे दूर रहना ही जरूरी था।

“कमरा नंबर 201 का मरीज छत की तरफ भाग रहा है -रोको उसे” कानों में एक नर्स की तेज आवाज आते ही विनीत की चेतना वर्तमान में आ गई।

 देखा सिस्टर की आवाज सुनते ही गार्ड तेजी से सीढ़ियाँ चढ़ने लगा।

बगल के कमरे से एक चिकित्सक आए और उन्होंने नर्स से पूछा" क्या हुआ बबीता?

 बबीता -"सर कमरा नंबर 201 का मरीज जिसे दस दिनों से आइसोलेशन में रखा था और आइसोलेशन के कारण डिप्रेशन (अवसाद) में था छत की तरफ तेजी से जा रहा है , आत्महत्या ना कर ले।

डॉक्टर -"ओ माय गॉड इस मरीज की रुचियों के बारे में पता करो।हमें इसकी रूचि के अनुसार मनोरंजन के साधन और बढ़ाने पड़ेंगे। वह नर्स बबीता के साथ झुककर सीसीटीवी कैमरे में मरीज की एक्टिविटी देखने लगा। कुछ देर बाद उन दोनों के चेहरों पर आई संतोषजनक मुस्कान मरीज के सुरक्षित रहने का संदेश दे रही थी।

 विनीत ने राहत की साँस ली और बेचैनी से घड़ी की ओर देखा। दस मिनट गुजर गए हैं मैंनेजर अमित का इंतजार करते करते पर अभी तक उसने बुलाया नहीं है।बचपन का दोस्त है पर जाने क्या बात है कि उसने सख्त हिदायत दी थी अपने स्टाफ को कि उससे मिले बिना उसे घर जाने ना दिया जाए। बात क्या होगी? बिल से हटकर थोड़े और पैसे लेने होंगे। इंसान भी पैसों के लिए जाने क्या-क्या करता है। इक्कीस दिनों के बाद वह अभी तुरंत घर जाना चाहता है, पत्नी को गले लगाना चाहता है, बच्चे के संग खेलना चाहता है और इस बेवकूफ़ ने उसे रोक कर रखा है।

वह उठा और रिसेप्शन काउंटर पर बैठी महिला से अपने दोस्त के बारे में पूछा -" मैनेजर अमित से बोलिए मैं जल्दी मिलना चाहता हूं ।मुझे घर जाना है तुरंत।

उसने उसकी झल्लाहट को नजरअंदाज कर मुस्कुराते चेहरे से आंखों में अपनापन भर आत्मीयता भरे आवाज में जवाब दिया-"मैंने थोड़ी देर पहले ही आपके लिए उनसे बात की थी।वह आपके लिए ही कुछ काम कर रहे हैं।थोड़ी देर बस थोड़ी देर इंतजार कर लीजिए प्लीज।”

विनीत जल्दी कीजिए-"मुझे घर जाना है।"

आवाज इतनी तेज निकली कि वह स्वयं ही शरमा कर मुड़ गया और अपनी कुर्सी पर बैठ पत्नी को फोन करने लगा। तीन-चार दिनों से विनती फोन भी तो नहीं उठा रही, मैसेज भी कभी-कभार ही कर रही है। झुंझला रहा था वह, खींझ रहा था वह अस्पताल पर ,मैनेजर पर, पत्नी विनती पर, बेटे आदित्य पर ,अपनी बीमारी पर ,अपने ऊपर, क्या हो गया है उसे? दस मिनटों के इंतजार में इतना कैसे पागल हो रहा है वह?

उसने एक लंबी गहरी साँस अंदर ली। साँसो को संयत करते ही मन अनायास ही शांत होने लगा।वास्तव में यह झल्लाहट इस बीमारी के कारण इक्कीस दिनों से चिंताग्रस्त और एकाकी जीवन बिताने के कारण है।

शुरू शुरू में जब वह अस्पताल में भर्ती हुआ था तो वह हर वक्त आदित्य और विनती के स्वस्थ रहने की कामना करता।पत्नी से उसकी तबीयत के लिए आदित्य के स्वास्थ्य के लिए कई कई बार पूछता रहता। डॉक्टर के अनुसार ऑफिस के एक स्टाफ से उसे यह संक्रमण हुआ। वह आत्मग्लानि में डूब रहा था। उसके कारण उसकी पत्नी और बच्चे का जीवन खतरे में पड़ गया था।वह केवल वह कारण ना हो जाए अपने बच्चे की............।

किसी अनिष्ट की आशंका से उसका मन गहरे अवसाद में डूब-डूब जाता। होंठ एक दूसरे से कसकर चिपक जाते थे, कंठ सूख जाता था, शरीर गर्म हो जाता था। कई बार तो आत्महत्या करने तक को मन बेचैन हो जाता।पत्नी से यह सब बातें नहीं कर सकता था- वह डर जाती,घर पर यूँ भी अकेली थी। वह भी तो किसी अनिष्ट की आशंका से डरी हुई थी। डॉक्टर और नर्स को देखकर ही एक उत्साह की उमंग उठती। सोचता कि यह लोग तो मरीजों के सीधे संपर्क में हैं, कितना खतरा है इनकी अपनी नौकरी से इनकी फैमिली को। फिर भी निडर होकर अपनी ड्यूटी कर रहे हैं , हौसला बढ़ा रहे हैं हम मरीजों का।

जब मन थोड़ा चिंतामुक्त होता तो पत्नी से बातें करता, पर इधर तीन-चार दिनों से वह बातें भी तो नहीं कर रही। बस कभी कभार बहुत फोन करने के बाद,कई मैसेज करने के बाद वह एकाध मैसेज कर अपने और बच्चे के सुरक्षित रहने की सूचना दे देती है और ईश्वर तुम्हें स्वस्थ करें का संदेश देती है। किसी अनहोनी की आशंका से मन काँप कर रह जाता। पहले तो उसने कभी ऐसा नहीं किया। क्या उसे.....।

 “सर, सर, एक्सक्यूज मी सर।” रिसेप्शनिस्ट की तेज आवाज ने विनीत का ध्यान अपनी ओर खींच लिया। रिसेप्शनिस्ट के चेहरे पर कृत्रिम मुस्कान यथावत थी परंतु दृष्टि का तीखापन तीन चार बार आवाज लगाने से मन में उत्पन्न हुए खींझ को दर्शा रही थी।

विनीत को अपनी ओर देखता देखकर उसने स्वर को शांत कर मधुरता घोलने का निरर्थक प्रयास करते हुए कहा-"सर, अमित सर फ्री हैं और आपको बुला रहे हैं। अब आप मिलने जा सकते हैं।

विनीत अपने दोस्त के कक्ष में गया। अमित के चेहरे पर उदासी छाई हुई थी। विनीत मेज की दूसरी ओर बैठ गया। कक्ष में वे दोनों थे और उनकी खामोशी। अमित ने एक बार फिर विनीत की ओर देखा और अब वह दीवार के किसी दूसरी ओर देखने लगा।

 विनीत ने समझा कि अमित अपने दोस्त से अतिरिक्त पैसे लेने की बात कैसे करें यह तय नहीं कर पा रहा है। वह घर जल्दी जाना चाहता था इसलिए औपचारिकताएं जल्दी खत्म करना चाहता था, परंतु कहीं अपनी ओर से पैसे के लिए खुली बातचीत शुरू करने के कारण बिल ज्यादा ना देना पड़ जाए इसलिए वह खामोशी से अपनी नजरें अमित पर गड़ाए बैठा रहा।

 अमित ने खामोशी तोड़ते हुए कहा -"पापा नहीं रहे।"

विनीत हड़बड़ा गया – “कैसे? कब? क्या हुआ था अंकल को?”

अमित –“यही कोरोना।”

विनीत-“और तुम, तुम्हारे बाल बच्चे तो स्वस्थ हैं ना।”

विनीत को शोक व्यक्त करना चाहिए था कम से कम किसी परिचित बुजुर्ग की मृत्यु पर कृत्रिम संवेदना तो व्यक्त करना ही चाहिए था परंतु इसमें उसका कोई दोष नहीं था। यह महामारी का समय ही ऐसा था कि लोग मरने वाले के लिए अफसोस व्यक्त करने से पहले उसके आसपास रहने वालों के स्वास्थ्य की चिंता करते थे।

अमित-“तुम तो जानते ही हो कि वह हम लोगों से दूर अपने बंगले में रहते थे। वहीं नजदीकी अस्पताल में भर्ती कराया गया। उनका अपना बनाया यह अस्पताल उनके अंतिम क्षणों में उनके किसी काम ना आ पाया। हम लोग तो उनके अंत्येष्टि में भी ना जा पाए। वहीं पुलिस वालों ने ही.....।

 विनीत अमित के हाथों पर हाथ रखकर संवेदना व्यक्त करना चाहता था, पर इस छुआछूत की बीमारी के समय छूना अशिष्टता थी। उसके मन मे उत्सुकता उठी कि पूछें उन्हें किस व्यक्ति से हुआ था पर अब प्रश्न निरर्थक था। जाने वाला जा चुका था,इसलिए विनीत का खामोश रहा। अंकल की स्मृतियां याद कर आँखों के कोने में आंसू भर आए।

विनीत- “बड़े अफसोस की बात है।यह महामारी ही ऐसी है कि इसमें बुजुर्गों का बचना तो असंभव सा है।” 

अमित की दृष्टि ऊपर उठ गई और किसी शुन्य को निहारता हुआ भावहीन स्वर में कहा-“ऐसा लगता है भगवान शिव तांडव नृत्य कर रहे हो, महाकाली विकराल मुख खोले मानवों का भक्षण कर रही है। पता नहीं, कौन बचेगा और कौन नहीं बचेगा।”

विनीत ने अमित की ओर पूछती निगाहों से देखा।उसका मन काँप उठा। जाने क्या कहना चाहता है यह। क्या कुछ और भी दुखद सूचना है जिसके लिए इसने अभी भूमिका ही बांधी है।

अमित ने विनीत की निगाहों से पूछे प्रश्न का जवाब देने के लिए ही मौन रहकर एक फोन मेज की दराज से निकालकर उसकी ओर बढ़ा दिया।अमित के शरीर में मानो विद्युत दौड़ गई-“विनती का फोन तुम्हारे पास? कैसे?”

लगभग झपटते हुए से उसने फोन अपने हाथ में ले लिया। हाथों में लेकर विनीत ने फोन को निरर्थक ही दो-तीन बार पलटा। शायद विश्वास करना चाहता था कि विनती का ही फोन है या शायद उसके स्पर्श को अनुभव करना चाहता था। अमित चाहकर भी कुछ बोल नहीं पा रहा था। अचानक कोई बुरा ख्याल मन में आया और उससे घबराकर उसने पूछा-" तो क्या बिनती यहां भर्ती है? तीन-चार दिनों से क्या तुम मुझे संदेश दे रहे थे, और आदित्य ठीक तो है ना........।”

 तीन चार प्रश्नों के एक साथ पूछे जाने के बावजूद अमित शांत रहा और संवेदना भरे हुए स्वर में बोला-"जब तक तुम स्वस्थ ना हो जाओ, तुम्हें बताने से विनती ने मना किया था, इसलिए मैं ही तुम्हें मैसेज कर रहा था ।”

 विनीत अपना धैर्य खो बैठा –“आदित्य तो ठीक है ना !कहां है वह ?तुम्हारे बंगले पर है ?क्या...”

अमित के होंठ बुदबुदाए –“आदित्य भी भर्ती है उसे भी.....।” संवेदना ने उसके होठों को सी दिया।

विनीत ने सिर नीचा किया और दोनों हाथों से चेहरे को ढँक लिया,मानो दोस्त से अपने आँसू छुपाना चाहता हो। अमित ने उसकी सिसकी सुनी,उसके शरीर को कांपते देखा।

बचपन के दोस्त को इस हाल में देख उसकी आँखों की कोरों में आँसू भर आए परंतु अब देर करना उचित नहीं होता। इसलिए बोला- “सुनो, ऐसे घबराओ नहीं‌ , धीरज से काम लो।” जिसकी पत्नी और एकलौता बेटा दोनों ही अस्पताल में भर्ती हो वह क्या धीरज धरे और कैसे नहीं घबराए ?

जब अमित के बार बार कहने पर भी विनीत ने सिर नहीं उठाया तो अमित ने भरे मन से भर्राए गले से कहा- "सुनो, बात समझो ,दोनों की हालत काफी गंभीर है ।"

विनीत ने तत्क्षण चेहरा उठाया और अमित के चेहरे पर नजरें टिका दी ।आँखों में आँसू भरे हुए थे पर उनका बहाव रुक गया, सिसकियाँ बंद हो गई, शरीर का कंपन अवरुद्ध हो गया, और मन सचेत हो शांत हो गया।जब मन किसी आशंका से ग्रस्त होता है तब उसमें विकल्प ही विकल्प होते हैं कुछ यथार्थ तो कुछ काल्पनिक । मन उन्हीं विकल्पों का जोड़-घटाव, गुणा-भाग कर तरह-तरह के परिणामों की संभावनाएँ तैयार कर कभी खुश होता है तो कभी चिंता विषाद और निराशा के गहरे सागर में डूबने का खेल खेलता रहता है, पर जब विकट परिस्थिति बिल्कुल सामने आ जाती है, और जीवन मरण का प्रश्न देकर मन को किंकर्तव्यविमूढ़ कर देती है तो मन शांत हो अपनी सारी शक्ति उस अकस्मात तड़िताघात से जूझने के लिए लगा देता है।

अमित ने बात को जल्दी खत्म करने के लिए कहा –“विनीत, दोनों को वेंटीलेटर की सख्त जरूरत है।”

विनीत गिड़गिड़ाया –“अमित दे दो उन्हें पैसे चाहे जितना भी लगे ....।”

अमित ने बात बीच में ही काट दी –“पहले पूरी बात सुनो, विनीत।”आवाज थोड़ी तेज थी। विनीत मुक होकर अमित की ओर देखने लगा।

अमित-“दोनों को वेंटीलेटर की जरूरत है पर हमारे पास अभी एक ही बचा है बाकी सब दूसरे मरीजों में लगा हुआ है।”

 विनीत पुनः अपना धैर्य खो बैठा –“दूसरे हॉस्पिटल रेफर कर दो।”

अमित इस प्रकार बीच में ही टोके जाने के बावजूद तनिक भी विचलित नहीं हुआ। बरसों के व्यावसायिक अनुभव के कारण ऐसे माहौल में शांत रहने का उसे अभ्यास था। संयत स्वर में बोला –“तुम्हें बुलाने से पहले मैंने इस शहर के सारे हॉस्पिटल में फोन कर पता किया है। इस महामारी के कारण सब जगह इतने मरीज हैं कि कहीं भी वेंटीलेटर खाली नहीं है और दोनों को इस गंभीर हालत में दूसरे शहर ले जाना उनकी जान को जोखिम में डालना है और वहां भी वेंटीलेटर मिलने की उम्मीद न के बराबर ही है।”

विनीत को शंका हुई कि कहीं यह सब अमित पैसे बढ़ाने के लिए तो नहीं कर रहा- “देखो दोस्त, तुम चाहे कितनी भी पैसे ले लो पर किसी भी तरह प्लीज अपने दोस्त के लिए वेंटीलेटर का प्रबंध कर दो। पैसे जो भी लगेंगे बिना आनाकानी के सब चुकाऊंगा।”

अमित-“‌छि: विनीत, इस महामारी में इतनी मौतें देख चुका हूं कि‌ मन से पैसे की आसक्ति चली गई है और किस लिए जोड़ूंगा पैसे। महामारी खत्म होते-होते मैं खुद बचुंगा कि नहीं -पता नहीं।” अमित के स्वर में इतनी दृढ़ता थी कि विनीत को अपने कहे पर ग्लानि हो आई।

 अमित बिना रुके कहता रहा-“तुम्हें तो केवल इसलिए बुलाया था कि तुम वेंटीलेटर लगाने की स्वीकृति फार्म पर साइन कर दो।तुम विनती और आदित्य में से,जिसके भी फॉर्म पर साइन करोगे उन्हें ही वेंटीलेटर लगा देंगे।” कह कर उसने उन दोनों के फॉर्म उसकी ओर बढ़ा दिए।

विनीत का हृदय बैठ गया – “और जिन्हें आज वेंटिलेटर नहीं लगा उसका क्या होगा?”

अमित –“जब हमारा कोई वेंटीलेटर खाली होगा उसे उपलब्ध करा देंगे।”

विनीत का हृदय बैठ गया। उसने दोनों फॉर्म की ओर देखा, एक पर विनती का नाम था और दूसरी पर आदित्य का । उसने कलम को हाथों में पकड़ लिया और साइन (हस्ताक्षर) करने के लिए हाथ बढ़ाया। किस पर साइन करें? टकटकी लगाए वह दोनों फॉर्म देखने लगा।

अमित उसके मन की दुविधा को भांपकर बोला- “घबराओ नहीं, यह जरूरी नहीं जिन्हें वेंटीलेटर लगा हो वह बच ही जाए या जिन्हें नहीं लगा हो....।” उसने वाक्य जानबूझकर बीच में अधूरा छोड़ दिया।

विनीत ने नजर उठाकर अमित की तरफ देखा, फिर इस तरह हिलाया कि वह सब कुछ समझ गया और नजरें झुका कर फार्म की ओर देखने लगा। परंतु उसकी आंखों के आगे फार्म धुंधले होते चले गए और दोनों की तस्वीर सामने प्रकट होने लगी। तस्वीरें गाढ़ी होकर चल- चित्रों की भांति चलने लगी।

 आदित्य का जन्म लेकर गोद में आना, नहीं नहीं , इतना सा था कि वह हथेली में ही तो आ पाया था। रातों में अक्सर देर तक ना सोना; उसके और पत्नी के बीच में ही तो सोता था, वहां उसे सुलाने के लिए दिन भर के थके होने के बावजूद भी उसकी और विनती का उसे थपकियां देना, आदित्य को गोद में लिए घर में चारों ओर घूमता था वह विनती के साथ। विनती को देखा उसने और फिर विनीत स्पष्ट देखने लगा -अस्त-व्यस्त घर में विनती का उसके साथ पहली बार आना और देखते ही देखते घर का रूप बदलना, प्यार से उसे खिलाना, दिन भर की थकान को मुस्कान से पीछे धकेल कर शाम में स्वागत करना, खुली चांदनी में रात को सोना, माँ और पिताजी की पूरी शिद्दत से सेवा करना, ‌त्योहारों में आए मेहमानों का स्वागत करते करते चूर चूर होना, यह सब एक ही क्षण में उसकी आँखों के सामने से निकल गया। क्या नहीं किया है विनती ने उसके लिए और अभी जीवन का सर्वोत्तम उपहार भी तो उसने ही दिया है। नहीं, नहीं, वह बिनती को नहीं त्याग सकता तो क्या आदित्य को....। तुतले बोलों से जब उसने पहली बार पापा बोला था, कानों में वह शब्द गूँज उठा। उसका घुड़कना, गोदी में आना, नन्हें-नन्हें पैरों से घर में चारों ओर घूम कर उसे खोजना और फिर गोद में समा जाना, ऑफिस जाने के समय उसकी संभावित विरह से व्याकुल होकर जोर जोर से रोते हुए जमीन में लोटपोट होना, और आफिस से लौटते ही प्रसन्ता से दौड़कर उसकी गोदी में समाना- नहीं, वह आदित्य को खोने का खतरा कैसे उठाएं? उसके सुनहरे भविष्य की कुंजी है वह।

अमित ने उसके कंधे पर हाथ रख कर उसे झकझोरते हुए कहा-“ जल्दी करो विनीत, समय नहीं है। किसी एक पर साइन कर दो। विलंब होने से दोनों की जान को खतरा है।

 विनीत मानो किसी तंद्रा से जागा- “नहीं नहीं तुरंत करता हूं।” उसने शरीर की पूरी ताकत अपने हाथों में केंद्रित कर एक फॉर्म पर हस्ताक्षर किया और चेतना खोकर आँधी में उखड़े किसी पेड़ की तरह बेसुध हो धडाम से टेबल पर गिर गया।                      

पास रहकर भी एकलौते पुत्र के मृत शरीर को अंतिम बार गोद में ना रख पाने के कारण उत्पन्न हुए दुख का वर्णन करने में यह लेखनी स्वयं को सर्वथा असमर्थ पाती है, अतएव इन बीते दिनों में जो कुछ घटित हुआ उसका संक्षेपण है कि विनती तो स्वस्थ होकर घर लौट आई थी पर आदित्य इस लोक से प्रस्थान कर चुका था। कई दिनों तक विनती और विनीत के बीच मौन ही भावनाओं का आदान प्रदान करता रहा। बच्चा एक फूल की ही तरह घर में कदम रखता है, परंतु धीरे-धीरे वह घर के कण-कण में, अपने माता-पिता के तन मन में प्राण बन घुल जाता है। उसके बिना जीवन नीरस हो जाता है, रिश्ते बेजान हो जाते हैं।

 कई दिनों बाद घर की नीरव शांति और उन दोनों के बीच छाए हुए मौन से जब दोनों पागल होने लगे तो वे दोनों मनोचिकित्सक के पास गए। उन्होंने उन्हें एक दूसरे से बातें करने की सलाह दी। यह भी कहा कि हो सके तो बच्चे के बारे में भी बातें करो। शुरुआत में तो यह बहुत दर्द देगा ,परंतु फिर धीरे-धीरे यह वेदना सहनीय हो जाएगा।

उन दोनों ने आपस में बातें करनी शुरू कर दी। शुरुआत में दोनों एक दूसरे से लिपट कर रोते ही रहते थे परंतु वक्त के साथ-साथ उन्हें अपने बेटे की पिछली बातों के बारे में बातें करना आसान लगने लगा। बिनती ही ज्यादातर बातें करती विनीत कभी खुलकर बोल नहीं पाता था। वह विनती को उस दिन की बातें बताना चाहता था परंतु एक संकोच उसे बार-बार रोक देती थी।

अपने मन को हल्का करने आज दोनों समुद्र किनारे बैठे हैं।विनीत एक चट्टान के सहारे पीठ को टिका कर बैठा हुआ था और विनती उसकी गोद में सिर रखकर एक हाथ से उसके हाथों को थाम, पाँवों को आधा मोड़ कर, आधी लेटी हुई समुद्र की राहों में अस्ताचल होते हुए सूर्य को देख रही थी।

विनीत ने उस दिन की बातें बड़े दिनों से दबा कर रखी थी। आज विनती को शांत लेटे हुए देखकर अपने बोझ को हल्का करने के लिए बोला –“उस दिन अस्पताल में जब तुम दोनों बीमार थे ...।”

विनती ने थोड़ी गर्दन घुमाई और चेहरा उठाकर विनीत के चेहरे की ओर देखा। उसका मन किया कि रोक दे विनीत को, पर फिर मनोचिकित्सक की बातें याद कर बोली –“बोलो।”

 विनीत उसे अपनी और देखते देख संकुचित हो गया। बिनती ने फिर कहा-“रुक क्यों गए, बोलो ना।”

 विनीत –“एक ही वेंटिलेटर था और तुम दोनों में से किसी एक को ही वह दिया जा सकता था। अस्पताल वालों ने मुझसे चुनने के लिए कहा था कि दोनों में से किसे वह वेंटीलेटर दिया जाए।

विनती का रोम-रोम सिहर उठा। कहीं विनीत ने उसके प्राणों को बचाने के लिए ......।

विनीत ने विनती के चेहरे से नजरें हटाकर दूर सागर की लहरों पर टिका दी-“मैंने आदित्य को वह वेंटिलेटर लगवाया था।”

 विनती जोर जोर से रोने लगी ।विनीत घबरा गया- क्या उसके फैसले से पूर्णतया नाराज है वह ।

विनती रोते हुए विनीत से लिपट गई कहने लगी- “हा ,हमारा दुर्भाग्य ,तब भी हमारा आदित्य नहीं बच पाया।”

सूर्यदेव उसे रोते हुए देख लहरों में समा गए और जब चंद्रदेव ने उसके मन को शांत करने के लिए अपनी शीतल चांदनी चहुँओर बिखेर दी, तब कहीं जाकर विनती थोड़ी शांत हो विनीत के बगल में बैठ दूधिया लहरों को देखने लगी। विनीत ने यूं ही पूछ लिया- "नाराज तो नहीं हो मुझसे ।" बिनती ने कसकर उसके हाथों को दबा दिया और कंधे पर अपना सिर रख बोली-“नहीं ,बिल्कुल नहीं।”

बहुत देर दोनों यूँ ही चुप रहे और बस यूँ ही जैसे कोई लहर उठती है ऐसे ही विनीत ने अनायास ही पूछ लिया –“अगर तुम मेरी जगह होती तो हम दोनों में किसे चुनती।” प्रश्न करने के बाद विनीत को लगा नाहक ही पूछ लिया उसने। विनती निश्चल बैठी थी मानो उसने कुछ सुना ही नहीं और विनीत जानता था कि वह कुछ गहरा सोच रही है।

काफी देर बाद जब जोड़े अपने घरों की ओर लौटने लगे तब विनती ने अपनी उंगलियों में विनीत की उंगलियां कसकर दबाते हुए ज़बाब दिया-"तुमने जिस परिस्थिति का सामना किया, उसकी कल्पना मात्र से मेरे पूरे शरीर में भय के मारे कंपकंपी दौड़ रही है ।मैं नहीं कह सकती कि तुम दोनों में से मैं किसे बचाना चाहती ।” फिर उसने क्षितिज पर निगाहें गड़ा कर दृढ़ स्वर में कहा-“वह विधाता जो हमें ऐसे चुनाव करने देता है यदि उसे ही जल और थल, पुरुष और स्त्री, चर और अचर, रात और दिन,अंधकार और प्रकाश, जीवन और मृत्यु में किसी एक को चुनना पड़े तो किसे चुनेगा वह भावनाहीन ईश्वर ?


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