बसेरा
बसेरा
गाँव के मंदिर की बगल में एक छोटा सा अनाथ आश्रम था। नाम था बसेरा। बहुत से अनाथ बच्चों का वहाँ आसरा था, जिन्हे रात के अँधेरे में कोई छोड़ गया था। कारण तो पता नहीं, किसी का पाप कहो या बोझ, सेठ दीनदयाल के बसेरे में सब को आश्रय मिल जाता था।
सेठ जी की अपनी कोई संतान न थी। भगवान का दिया सब था उनके पास। एक दिन मंदिर की सीढ़ी पर मुँह अँधेरे एक नवजात बच्ची मिली। नि:संतान सेठ जी उसे सीढ़़ी पर छोड़ न पाए और उसे लाकर पत्नी की गोद में डाल दिया। कल कोई आकर यह न कहे कि बच्ची कहाँ से आई इस बात की खबर पंचायत व पास की पुलिस चौकी में दे दी।
जब कई दिनों तक कोई लेनदार न आया तो वे निश्चिंत हो बच्ची के साथ रहने लगे। अचानक फिर से उन्हें एक बच्चा वहीं मंदिर की सीढ़ियों पर मिला। हैरान परेशान सेठ जी उसे भी घर ले आए। भगवान की माया देखिए कहाँ शादी के बाद 15 साल तक घर का आँगन सूना रहा। अब अचानक प्रभु की ये कृपा। सेठ सेठानी खुशी से रहने लगे। बच्चों का मंदिर की सीढ़ी पर मिलना जारी रहा।
अगले पाँच -छह सालों में दस बच्चे इस तरह मिले। अब सेठ जी ने घर का एक हिस्सा अनाथ आश्रम में बदल दिया। हर अनाथ को भगवान का प्रसाद समझ अपने बसरे में जगह देते। हर बच्चे की रपट दर्ज होती थी ताकि कल कोई सवाल न उठ जाए। आसपास के गाँवों में उनका नाम बहुत सम्मान व दानवीर की तरह लिया जाता था।
सेठ जी ने कई नौकर नौकरानियाँ अनाथ आश्रम की देख रेख में रखे हुए थे। बच्चों का लालन पालन अच्छे से हो रहा था। मंदिर के पुजारी जी की संगत से बच्चे संस्कारी भी थे। अब गाँव का हर व्यक्ति इस धर्म के काम में सेठ जी का हाथ बटाता था। बच्चों के बड़े होने पर उन्हें गाँव की पाठशाला में पढ़ने डाला गया।
आस पास के कई गाँवों में बसेरा चर्चा का विषय बन गया था।
एक दिन अखबार वाले गाँव में आए। सेठ जी से बातचीत की। बच्चों के साथ उनकी फोटो को अखबार में छापा गया।
एक दिन अचानक मौसम बहुत खराब हो गया। मुसलाधार वर्षा होने कारण लाइट भी गुल हो गई। रात के अन्धेरे में बच्चे भी डरते। मोमबत्तियों का स्टाक भी समाप्त हो गया। अब रात का सोचकर सेठजी व सेठानी परेशान हो गए। खैर जैसे- तैसे बच्चों को सुलाकर सभी थककर अपनी -अपनी जगह जाकर सो गए।
सुबह नींद थोड़ देरी से खुली। बच्चों की आवाज न सुनकर सभी दौड़े बच्चों के कमरे की ओर। सब हैरान वहाँ एक भी बच्चा न था। सब हैरान परेशान खाली बिस्तर, कमरे में यहाँ वहाँ फैले कागज। किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था। खिड़कियाँ भी बंद थी, बस दरवाजा खुला था। बात आग की तरह फैल गई। दस बच्चों का एक साथ गायब होना, किसी को कानों कान खबर भी नहीं। पुलिस आई। पूछताछ हुई कही कोई सुराग नहीं। बारिश इतनी थी कि बाहर कोई गाड़ी या पैरों के निशानों का अंदेशा होना भी मुश्किल।
किसी को समझ नहीं आ रहा था कि सभी बच्चे एक साथ गायब कैसे हो सकते हैं। एक बात तो पक्की की कोई अगवा कर ले गया है। पर कौन हो सकता है? पुलिस इसमें लगी थी। सेठ सेठानी का जीवन तो मानों समाप्त ही हो गया था। उनका सुन्दर सा बसेरा उजाड़ हो गया। कई महीनों तक सब यूँ ही पड़ा रहा, इस आशा से कि भगवान की दया से कुछ पता चल जाए।
बसेरा के उजड़ने की खबरें अखबारों में छपी। हैरानी ये कि एक साथ सभी कैसे गायब हुए। बसेरा का सन्नाटा उन्हें खाने दौड़ता था। नौकर चाकर भी धीरे -धीरे काम छोड़ चले गए। अब तो सेठ सेठानी के आँसू नहीं रूकते थे। बच्चों का कमरा जैसा उस रात बेतरतीब हुआ था आज भी वैसा ही पड़ा था। जब दोनों दर्द न सह पाते तो दरवाजा खोल खामोश कमरे को निहार आते। दोनों अपने आप को कोसते कि कैसे उस रात उन्हे इतनी गहरी नींद आ गई।
इस घटना को छह महीने बीत गए। सेठ -सेठानी बहुत उदास रहते थे। भगवान से यही कहते कि यह दिन दिखाना तो बच्चे दिए ही क्यों? पर उनकी कौन सुनता? बस यूँ ही दिन गुजर रहे थे। अचानक बाहर जीप रूकने की आवाज आई। दो पुलिस वाले अंदर आए। सेठ जी कुछ कहते इससे पहले वे बोले, 'जल्दी चलो। हमें दिल्ली जाना है, रास्ते में सब बता देंगें। '
सेठ जी उत्सुकता दबाए चुपचाप जीप में बैठ गए।
उनकी सुनसान आँखे अफसर को देखती व पूछती कि आखिरी माजरा क्या है। गाँव की सीमा से बाहर आकर उनकी बातचीत शुरू हुई। आफिसर ने बताया कि दिल्ली में एक गिरोह पकड़ा गया है जो मासूम बच्चों को उठवा लेते हैं और उनके शरीर के अँगों को बेच देते हैं। सेठ जी तो जैसे सुन्न हो गए, काटो तो खून नहीं। जैसे ही पुलिस को ये खबर मिली तो वे सेठ जी को ले दिल्ली चल पड़े ताकि गिरोह के चुँगल से बचाए बच्चों में शायद ये बच्चे भी हों तो सेठ जी उन्हें पहचान लेंगें।
अब आगे का रास्ता सेठ जी से कट नहीं रहा था। आज अगर उनके पँख होते तो उड़कर जल्दी दिल्ली पहुँच जाते। सारे रास्ते वे बच्चों की सलामती की दुआ करते रहे। कब आँख लग गई पता नहीं चला। जीप की ब्रैक से अचानक जागे तो आफिसर ने उतरने को कहा। डरते कदमों वे आफिसर के पीछे चल रहे थे।
अचानक उनके कान से आवाज टकरायी, ' पिताजी'। सेठ जी के कदम ठिठक गए। पीछे मुड़ देखा तो जाली में बहुत से बच्चे बंद थे। अचानक उनकी टाँगों में इतनी शक्ति कहाँ से आ गई वो जाली की तरफ दौड़े। एक नजर में बच्चों को पहचान वह वहीं जाली के पास बैठ रोने लगे। बच्चे बाँहे निकाल उन्हे लिपट रहे थे और सेठ जी रो रहे थी।
पुलिस स्टेशन में ऐसा नजारा पहली बार देखने को मिला। वहाँ मौजूद हर पुलिस वाला इस मिलन को देख रहा था। आफिसर ने सेठ जी को उठाया व कुर्सी पर बिठाया। उन्होने बताया कि ये एक बड़ा गिरोह है जो बच्चों को अगुवा कर समुद्री मार्ग से विदेशी गिरोह को बेच कर पैसा कमाते हैं। वे आगे इनके अंग निकालकर बेचते हैं। ये आपके पुण्य का फल है जो ये बच्चे हमारे हाथ लग गए। सेठ जी खुश थे कि सभी बच्चे सही सलामत थे। वे अब कुछ जानना नहीं चाहते थे। बस जल्दी से घर पहुँच सेठानी को खुशखबरी देना चाहते थे।
पुलिस की कारवाई निबटाकर बच्चों को ले वे शाम तक घर के लिए रवाना हुए। चलते हुए उन्होंने दिल्ली पुलिस का धन्यवाद देते हुए कहा, 'यहाँ रह गए बच्चों में से जिसके माता -पिता या घर-बार न पता चले तो उन्हें मेरे बसेरे में भेज दीजिएगा। भगवान भली करे इनका पेट भी भर जाएगा और हमारा उजड़ा चमन बस जाएगा'
सेठ जी खुशी- खुशी लौट रहे थे बच्चों के साथ। अब वे खुश थे कि कमरे की खामोशी व सन्नाटा अब उन्हे काटेगा नहीं। वहाँ की विरानी में फिर से बसेरा हो जाएगा।