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Harish Sharma

Children Stories

3.3  

Harish Sharma

Children Stories

समय समय की बात

समय समय की बात

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बच्चों का रिजल्ट आये अभी एक दिन हुआ है। नई क्लास के लिए किताबों की लिस्ट भी मिल गयी है। बच्चे नई किताबों के लिए उत्साहित है। उनका उत्साह देखकर अपना बचपन जीवित हो उठता है। गाँव का सरकारी स्कूल था और इसी तरह हर साल नतीजा आया करता। नई क्लास में जाने से पहले किताबें लेने का चलन शुरू होता पर नई नहीं, बल्कि पुरानी ।

माँ पहले से ही पड़ोस की आंटी से बात करके रखती। उनकी लड़की मुझसे एक कक्षा आगे थी और लड़का एक कक्षा पीछे। तो मुझे हर साल आंटी की लड़की की पुरानी किताबें मिल जाती और मेरी किताबें आंटी के लड़के को। ज्यादातर हम सब बच्चे इसी तरह किताबें लिया दिया करते। कोई किताब सिलेबस में बदल जाती तो पिता जी के साथ जाकर शहर की दुकान से खरीदते। मुझे याद है पिता जी किताब के लिए मोल भाव करते थे। अब मंहगी थी तो थी। और भी खर्चे थे। यूनिफार्म, नई कॉपी और जूते तो नए ही खरीदने पड़ते थे। जूते कुछ बड़े खरीदे जाते ताकि दो साल चल सके। यही हाल पेंट खरीदने के वक्त होता। थोड़ी लम्बी और खुली खरीदते और इस तरह से सेट करवाते कि छोटी होने पर फिर सेट की जा सके ।

अब बच्चे बड़े करीने से अपनी नई किताबें मेरे साथ बाजार जाकर खरीदते है। शहर का बड़ा स्कूल है, मैं अफोर्ड कर सकता हूँ तो कर रहा हूँ। पर अपना बैकग्राउंड और बीते समय को कभी नहीं भूल पाता।

शायद हम अपने आप को ही बेहतर तरीके से दोहराया करते हैं। बीत चुके से बेहतर, यही जिंदगी है शायद अपडेट करते रहने की निरंतरता।

मुझे पुरानी किताबों से ही प्राथमिक शिक्षा से लेकर बी ए तक काम चलाना पड़ा। कॉलेज में तो लाइब्रेरी से लेकर भी काम चलाया। पुरानी किताबों पर पहले से ही उसके मालिक का नाम लिखा होता है, बस मैं उस पर कोई स्लिप चिपका कर या उसे एक लाइन से काटकर अपना नाम लिख देता। यूँ तो कई बार उसके कई मालिक बन चुके होते। बस यूं समझिए कि मकान अपना होता पर साल भर के लिए। किताब कटी फ़टी हालत में होती लेकिन उसे नए बनाने के जो ढंग हमने सीखे उसने जिंदगी में बहुत कुछ सिखाया। सबसे पहले तो उसकी जिल्द बांधना। पड़ोस में रहने वाले कुछ बच्चों से सीखा था मैंने जिल्द बांधना। पुरानी कापियों में जो पन्ने बच जाते उन्हें हम निकाल कर इकट्ठा कर के नई कॉपी बनाया करते, रफ काम करने के लिए। किसी दोपहर पड़ोस के घर में सब बच्चे इकट्ठा होते। रंग बिरंगे कागज़, पुराने डब्बों के गत्ते और कपड़े की कतरने लेकर बैठ जाते। आटे की लेइ चिपकाने के लिए होती तो बड़ा सुआ और सूत का धागा किताब कॉपी को सिलने के लिए । बस हम जिल्द बांधते जाते और पूरी दोपहर जाने कब कट जाती। अपनी ही बांधी जिल्द को देखकर जो खुशी मिलती उसके क्या कहने।

अब समय बदल गया है। थोड़ी सम्पन्नता आई और सरकारी स्कूल और गाँव का जीवन छोड़ शहर में बस गए। बच्चे नई किताबें खरीदते है, जिल्द भी रेडीमेड ही मिल जाती है। अब दोपहर मोबाइल या कार्टून देखते कटा करती है बच्चों की। मैं उन्हें अपनी कहानी सुनाने की सोचता हूँ फिर रुक जाता हूँ। यथा राजा तथा प्रजा की कहावत के अनुसार समय के साथ चलना ही ठीक है। अपनी विपन्नता के किस्से क्या सुनाना पर हां जब कि बार उन्हें स्कूल से मिले क्राफ्ट या ड्राइंग का काम करते थोड़ी मुश्किल में देखता हूँ तो बड़ी सरलता से उनकी मदद कर देता हूँ। इससे मिझे पुराने दिन याद आ जाते हैं। मेरी अलमारी में अब भी एक पुराना शब्दकोश है जिस पर कभी मैंने अपने हाथों से जिल्द चढ़ाई थी । ये शब्दकोश आधे पौने दाम में खरीदा था और पुराना होने के कारण इस पर इस के पहले मालिक या खरीददार का नाम भी है । मैन इसे संभाल कर रखा है ।

अब बच्चों के पास गोंद है, रंगीन कागज़ है और दुनिया भर की तमाम चीजें। जाने क्या क्या आ गया है बाजार में। बस नहीं है तो वो दोपहर और बड़े साइज के जूते पहने भी मुस्कुराते हुए सब कुछ एडजस्ट करने का आनन्द।

समय ऐसे ही बदला करता है शायद। कोई कुछ पा लेता है और बहुत कुछ केवल याद रखने लायक रह जाता है ।



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