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कोने का कूड़ा

कोने का कूड़ा

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बिल्लू के दिमाग में बहुत कूड़ा भरा है। जी हल्का करने के लिए काफ़ी तो लिख लिख कर निकालता रहता है।


आज भी कुछ कोने का कूड़ा  निकाल रहा है।


५२ वर्ष पूर्व, 1967 में एक फिल्म बनी थी 'चांद पर चढ़ाई', ब्लैक एंड वाहइट। फिल्म में दारा सिंह लीड रोल में थे और चांद की धरती पर उतरे थे, साथ में शायद मुमताज़ और हेलेन भी थीं। बिल्लू ने आदतन वह फिल्म भी देखी थी।


५० वर्ष पूर्व, २० जुलाई,१९६९ को ऐस्त्रौनौट नील आर्मस्ट्रांग व् एडविन एल्ड्रिन अपोलो ११ से चाँद पर पहुँचने वाले प्रथम लोग थे।


उसके बाद से लगभग १९८० तक "चाँद की यात्रा" हिंदी व् "ट्रिप टू मून" अंग्रेजी विषयों में निबंध का अनिवार्य प्रश्न बन गया। 


बात उन दिनों की है जब बिल्लू हाई स्कूल कर रहा था, सन १९७३। हाई स्कूल के प्रश्न पत्र में यह निबंध आया था।


उस समय भाषा भाष्कर निबंधों की एक मात्र किताब हुआ करती थी। पेज नंबर ५७ पर 'हरित क्रांति' निबंध से शुरुवात थी। पेज नंबर ५८ के बीच में वह निबंध ख़तम था। फिर शुरू था 'चाँद की यात्रा', जो की पेज नंबर ५९ के बीच में समाप्त हुआ था। फिर ५९ के आधे पेज में व् ६० पर था 'गंगा'। 



उस समय फोटोकॉपी मशीन नहीं थी।


बिल्लू के पास भाषा भाष्कर से फाड़ कर यह चारों पेज परीक्षा कक्ष में पहुच गए और धीरे से बता दिया गया पेज नंबर ५८ व् ५९।



बिल्लू नें नक़ल कर डाली, पेज नंबर ५८ के शुरू से लेकर पेज ५९ के अंत तक। बीच में 'चाँद की यात्रा' भी थी। समय जरूर थोड़ा ज्यादा लगा।


साफ़ साफ़ नक़ल का केस था। घरवालों ने यह भी मैनेज किया। बिल्लू को ऍम कॉम करने के उपरांत अपनी इस बात का पता चला की नक़ल करने के लिए भी अक्ल चाहिए।


बिल्लू के धनाड्य रसूखदार अभिभावकों को स्कूल के प्रधानाचार्य व् ज्यादातर सभी शिक्षक जानते थे। परन्तु हाई स्कूल परीक्षा में कुछ बाहरी परीक्षक भी आते थे।


बिल्लू शैतान था, चेहरे से ही झलकती थी।


एक बाहरी परीक्षक नें शुरू के तीन दिन तक रोज बिल्लू के पैन्ट् की दोनों जेबों की तलाशी ली। आगे खड़े हो कर नही, बल्कि पीछे खड़े हो कर दोनों जेबों में हाथ डाल देते थे। मिलता कुछ नही था।


मैटेरियल तो आधे घंटे बाद पहुँचता था, वह भी तब, जब सभी बहारी परीक्षक प्रधानाचार्य कक्ष में चाय नाश्ते में मशगूल हो जाते थे।


लेकिन बिल्लू को अपने दोस्तों के सामने रोज की तलाशी अपनी बेईज्ज़ती लगती थी


चाचा चौधरी की तरह दिमाग दौड़ाया। चौथे दिन उसने चड्डी नहीं पहनी। पैन्ट की दोनों जेब अंदर से काट दी।


चौथे दिन उसी बहारी परीक्षक नें जैसे ही दोनों जेब में हाथ डाला, दोनों हाथ आपस में मिल गये और हाथ में आ गया ,,,,,,परीक्षक ने अपने इष्ट के नाम का उच्चारण कर फ़ौरन हाथ बहार निकाले।


फिर प्रधानाचार्य के पास ले गए। प्रधानाचार्य जी अपने इस मेधावी छात्र बिल्लू को भली भांति जानते थे। उन्होंने प्रश्न वाचक निगाहों से देखा। बहारी परीक्षक के आग्रह पर प्रधानाचार्य जी ने भी वही प्रक्रिया दोहराही। जैसा की होना ही था, उनके हाथ भी आपस में मिल गए और हाथ में आ गया ,,,,,।


शाम को पिता जी की बैठक में बहारी परीक्षक व् प्रधानाचार्य जी व् अन्य शिक्षकों की चाय दावत हुई, शिकायत के जवाब में पिता जी नें कहा की शैतानी तो बच्चे ही करेंगे ना। फिर कभी तलाशी नहीं हुई।


बिल्लू का एक दोस्त था, राजू। छात्र ज्यादतर शिक्षकों के उपनाम रख लेते हैं। जो पीढ़ी दर पीढ़ी शिक्षक के रिटायरमेंट तक चलते रहते है। ऐसे ही एक नाम था 'सुंडू नाई'। इस नाम की उत्पति का उन दोनों को नही पता था। एक दिन बात बात में राजू ने बिल्लू को चैलेंज कर दिया कि तुम शिक्षक के सामने उसे सुंडू नाई कह कर दिखाओ तो तुम्हे मूलचंद के पांच समोसे व् पांच गुलाब जामुन खिलायेगा।


अगले दिन बिल्लू राजू को उन शिक्षक के पास लेकर गया और शिकायती लहजे में बोला कि मास्टर साहब यह आपको सुंडू नाई कह रहा है। अब क्या था, राजू ने पहले तो उस शिक्षक से मार खाई और फिर शर्त हारी के दस रूपये खर्च किये।


चेतावनी: यह तीनो घटनाएं उसी तरह हैं, जैसे अक्षय कुमार के कोई थ्रिलर टीवी शो का खतरनाक स्टंट, जिसे आप बिलकुल भी दोहराने की चेष्टा ना करें।


मानो न मानो, झूठ तो झूठ ही है। क्षमा याचना सहित, बिल्लू कूड़ेवाला।            


हाँ, एक बात और:

शहर मु.नगर (ऊ.प्र) में मित्तर सैन, बुध्धू और मूलचंद अलग अलग मौहल्लो में हलवाई थे. अब मूलचंद रिसोर्ट है.   



     


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