कारवां...
कारवां...
एक सफर सा जो चल रहा है जो बीत चुका है और कुछ तो आने वाला है। बचपन की कुछ हल्की सी आहट आ गई, आज रास्ते से गुजर रही थी वो रास्ता कुछ जाना पहचाना सा लग रहा था। दिमाग पर थोड़ा सा ज़ोर दिया तो याद आया अरे ये तो वही रास्ता हैं जब हम स्कूल जाया करते थे। तब की बात कुछ और थी चले जा रहे थे लफंटू कि तरह मौज़ में मग्न रास्ते में हरियाली यारों के गले में हाथ डाले बच काते हुए थोड़ी हँसी ठिठोली गुनगुनाते हुए मस्त मौला चले जा रहे थे। आज वहाँ से गुजरी तो वो सफर थोड़ा बेगाना सा लगा। भला लगता भी क्यूँ नहीं आख़िर अकेले जो गुज़र रही थी ।
पीछे की और निहारा तो कोई जान पहचान का नजर नहीं आया। आगे सफर था जैसे तैसे कट गया। मगर आज जब वहां से गुजर रही थी पता नहीं क्यों कुछ अजीब सी बात दिल को खटखटा रही थी जैसे बहुत कुछ पीछे रह गया। वो स्कूल का बस्ता कब ना जाने पर्स में बदल गया, वो स्कूल के फेवरेट शूज कब सेंडल में बदल गए, वो हँसी ठिठोली ना जाने कब भविष्य परवाह में बदल गई, बदला तो कुछ नहीं था मगर बहुत कुछ बदला बदला सा लग रहा था। वो यार भी बहुत बदल चुके हैं जैसे कभी जानते ही ना हो। क्या कुछ सोचते हुए जैसे तैसे घर ही आ गया पता ही नहीं चला, फिर वही कल की फ़िक्र अरे याद आया कल दफ्तर भी तो जाना है, चली गई। वाकई बहुत कुछ बदल गया हैं चेहरे की रौनक परवाह की चादर ओढ़े बैठी है। मस्तक पर हँसी की वो परत नही चिंता की शिखर हैं। अतीत तो वापस नहीं आ सकता भविष्य डगमगाया सा लगता हैं और ये जो वर्तमान हैं ना चैन से जीने भी नहीं देता।