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Manish Dwivedi

Fantasy Inspirational

5.0  

Manish Dwivedi

Fantasy Inspirational

पीपल का भूत

पीपल का भूत

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रात की अंधड़ ने फसलें बिछा दी है। बीच से पक्की काली सड़क यूं निकलती है, जैसे मां ने दोनों ओर कंघी कर सीधी मांग निकाल दी हो, एकदम सीधी। बनारस-आजमगढ़ हाईवे से छिटककर ये साफ़ सुथरी सड़क गाँव में खो जाती है,लेकिन मैं इसके लिए तो नहीं आया था।


बचपन की वो पगडण्डी जो किसी बच्चे की तरह खेतों में छुपते, बागों में झुकते, ताल तलैयों को कुहनी मारते, सट के निकलती थी- बड़ी हो गयी है। जो चाहता था; हो तो रहा था, फिर मन काहे पिघल रहा है ?


एक मील का पत्थर नया नया चेहरा पुताये-हल्दी के दुल्हे सा मुझे ताकता है। तेवर 3 किलोमीटर ! कित्ती बार पहले भी तो कहा है. आज पहचानता ही नहीं


इसी पत्थर पे बिठाके माँ एक आखरी बार मेरे जूतों के फीते बांधती थी,इसी पत्थर के पार अपने सर से पल्लू हटा देती थी। ये उसका गांव था। यहाँ उसकी भी सहेलियां थी,कई झूले उसने बैनामे करा रखे थे,माथे पे टांको के निशान सनद थे की उसे साइकिल कैची तक चलाना आता था। उसे ननिहाल में न देखता तो जिंदगी भर भरम रहता की वो बूढी ही पैदा हुई थी।


बरसों हुए उसे गुज़रे-आज बहुत याद आ रहीं है. कभी यहीं माँ का पल्लू थामे पीछे पीछे चलता था,अब जैसे यादें आगे पीछे दौड़ा रही है। नए जूते जो पिछले महीने मैंने अपने तिलक पे पहने थे पैरों में चिकोटी काटते है।जेब में सल्फास की डिबिया खटर पटर करती है। अड़भंगी चाल से मैं उस गांव में दाखिल होता हूँ जिसने पहले भी मेरी ज़िन्दगी बचाई है,जिसने मुझे ज़लील कर के निकाला भी है. 


आज सूरज चूल्हे सा जलता है, धरती रोटी सी पकती है,इस सड़क ने उन पेड़ो की बलि ले ली जो रस्तों पे हरी सिलाफ डाले सारी दुपहरी ऊंघा करते थे।दम फूलने तक चलने के बाद भी जब कुछ पहचान नहीं आता तो मेड पकड़ एक पीपल के छांव में बैठ जाता हूं।


आँखों के सामने रंगीन चकत्तों का नाच बंद होने पे दूर एक शामियाना दीखता है। ब्याह के गीत बज रहे है,शादी होगी किसीकी ! आज लगन भी तो जबरदस्त है। आज ही की तारीख दी थी पंडितजी ने मेरे शादी की।


कितनी खूबसूरत थी वो। बररक्षा भी हो गया था। फिर काहे मना कर दिया। नौकरी ही तो गयी है, फिर मिल जायेगी। महीनों जो सपने दिखाये,मेरे खाने पीने की फिक्र दिखाई, सब झूठी थी क्या ? 

अरे पाल लो तो कुत्ते से भी मोह हो जाता है।क्या तनिक भी प्रेम नहीं हुआ हमसे ?


मिश्रा जी ने चार दिन पहले जब पिता जी को बताया कि उनकी बेटी कहे में नहीं है, वो माफ़ी मांगते है, पिताजी मारने उठ गए थे।वो आदमी जिसपे गुस्सा आना था, दया आने लगी। तब जिस बिटिया का रंग जूतियां घिसवाता था,अब उसका मुंह गालियाँ खिलवा रहा है।

रंगोली ने फ़ोन पे बताया कि वो किसी और से प्रेम करती है, अजीब है ! एक अफसर मंगेतर की नौकरी जाने पे, क्लर्क से छह साल पुराना प्यार जाग गया। जो पहले अँधा होता था वही प्यार अब पढ़ लिख के समझदार हो गया है।


पीपल के बाये हाथ पे दूर कुछ आबादी थी और दाहिने पे एक पोखरी। मन मानने को तैयार न था, पर दिमाग तर्कों से साबित कर रहा था जहाँ बैठा हूँ ये वही जादुई पीपल है, जिसपे गांव के सारे भूत रहते थे।


इस पीपल से मेरी गेंद के एक टप्पे पे नानी का कच्चा घर था। जहाँ अब दो पक्के मकान हैं। पहचान में नहीं आते। तभी पीछे के ढहते दालान ने शिनाख्त कर दी।अम्मा ने बताया था ये हिस्सा मुक़दमे में है।तभी बच गया, एक कच्चे कमज़ोर घर को तोड़ दो पक्के मकान बना दिए है, फिर आऊं तो हैरान न होऊंगा अब मज़बूत हैं शायद टूट के एक से दो न हों।


लेकिन वो दालान बड़ा बेचारा लग रहा था, और बेहद छोटा भी, चौखट किसी फोटो फ्रेम सा एक और छड़ी टेके खड़ा था। ये तो बहुत बड़ा हुआ करता था, इसके अंदर हम लोग दुपहरी में आइस पाईस खेल लिया करते थे। शायद सारे बुड्ढे मरते समय सिकुड़ के गठरी हो जाते है। लेकिन इनकी मेड़ नुमा चौहद्दी चोर सी खटकती है। बस इत्ता सा। धोखा हो रहा है। बाइस कदम की तो पिच बन जाती थी इसके भीतर।आज इसकी कुल लंबाई दस बारह कदम से ज्यादा न होगी।पहले जब भी मैं इस पीपल तले निराश आया एक ज़िन्दगी लेकर लौटा हूँ।आज तो जैसे ये मुझे मारने पे आमादा है।

अच्छा होता जो ये दालान भी न दीखता। लाल गौरैया, कुआ जो गांव से धरती के उस पार निकलता है, मैदान जितने बड़े दालान की कहानिया जो मैंने खुद को सुनाई थी सब बचकानी थी।झूठ बार बार बोले जाएँ तो सच लगने लगते है। बड़ा छला हुआ महसूस हुआ। ऐसा कभी कुछ नहीं था।


देर तक इन ख्यालो को मथता मैं ख़ाली और खाली होता गया, जब एकदम झन्न से चौंक पड़ा। गौरी ?मुझसे थोड़ी दूर पे एक लड़की दो बकरिया लिए जाने कब आ बैठी। बालों में लाल फीते गुथे, छीटदार फ्रॉक पहने वो बकरियों को पहाड़ा सुनाती है।ये तो गोरी गारी स्कूल जाती बच्ची है। कुछ कुछ उसके जैसी है, पर वो नहीं है। उसे अक्षर से भेंट नहीं थी। सर से मुह तक तेल पोते वो तांबई रंग की दिखती थी। वो भी बालों में लाल फीतों का फुग्गा गुथे यही बकरियां चराया करती थी, इसी जादुई पीपल के नीचे। नानी बताती थी गौरी के पुरखे बहरूपिया थे, बंगाल से आये थे। चार बिस्वा ज़मीन दान में पाकर यही पोखरे पे बस गए।

उसकी माँ दाना भूजा करती थी, बाप नारिया थापुवा से कच्ची छतें बनाता था। मुझसे तीन चार साल ही बड़ी थी गौरी लेकिन गांव में बड़ी पूछ थी उसकी

वो पूरे गांव का टोना टोटका और नज़र झारती थी। उलटी पैदा हुई थी, सब कहते थे इनका झाड़ फूंक जल्दी असर करता है।लेकिन उसे काला जादू भी आता था।

कहती थी इस पीपल पे गांव के सारे भूत बैठते है,वोही उसकी मदद करते हैं वो भी मर के इसी पे बैठेगी।

वो जानती थी शाम को पीपल तले जब धुंआ उठता है, उधर नहीं देखते, भूत खाना बनाते है।

इसी पीपल पे मुझे लाल गौरैय्या दिखा देती थी जो किसी को न दिखता था।

कहती थी जो ये काला धागा मैं उसके गले में बांध दूं तो मैं भी जादूगर हो जाऊंगा लेकिन वो मेरी पत्नी बन जायेगी, जादूगरों का ब्याह ऐसे ही चट पट होता है।


उसने कई बार मेरी जान बचाई। एक बार जब मैं इमली चाटते उसके बीज निगल गया था,गांव के बच्चो ने बताया कि अब पेट में पेड़ उगेगा, सर फाड़कर बाहर आयेगा। गौरी ने ही मंतर मार के सब सही किया था।

माँ के मरने पे गरुड़ पुराण का पाठ हुआ, पंडित जी ने बताया कैसे नर्क में आत्माओं को काँटो पे घसीटा जाता है,गर्म तेल की कड़ाही में डालकर खून से नहलाया जाता है,मैं हदस गया। माँ कितनी सीधी थी,क्या हो जो स्वर्ग में जगह न हो और उसे नर्क में भेज दिया हो।महीनों मुझसे खाना न खाया गया। पिताजी से लड़कर जब ननिहाल आया तो गौरी ने ही मेरा मन शांत किया था।

हाथ में अक्षत फूल लिए, आँखे बंद कर पूरे आधे घंटे तक उसे खोजा। फिर हँस के बताया कि फुआ स्वर्ग में हनुमानजी के साथ बैठी कटोरे में दूध भात खा रही हैं। कह रही है जो अब पिताजी से लड़े हनुमान जी गदा से मारेंगे। मैंने भी उसदिन दूध भात खाया।


बड़ी कोशिश के बाद भी पिताजी से प्रेमप्रसंग कभी लम्बा न चला। तेरह का पहाड़ा याद न होने पे जब पिताजी ने घर में दौड़ा दौड़ा के पीटा मैं भागकर यही आया था, माँ से रो रो कर पिताजी कि शिकायत करने। गौरी ने माँ के भूत को अपने देह में बुलाया और मुझे गले लगाकर साथ साथ रोइ थी।मन शांत हो गया, उसकी छाती में माँ के सीने लगने की जो सांत्वना थी वो पिताजी के गले लगकर कभी न मिली।


किसीने यही देख के मामा से शिकायत कर दी, भांजे पे हाथ नहीं उठाते सो इसकी कसर उन्होंने जहर बुझे शब्दों ने से पूरी कर ली। कैसे बाल खीचके गौरी को दो तमाचे मारे थे। बारह का था मैं, वो कोई पंद्रह सोलह रही होगी। वो आखरी बार था जब मैं यहाँ आया था।


ए बिटिया इस पीपल पे लाल गौरैय्या आती है क्या ?


सीधी उलटी हथेलियों पे कंकड़ उछाल के रोपती बच्ची के सारे पत्थर गिर पड़े।


पांच रुपैया दूंगा अगर दिखा दे।


बच्ची भागकर खेतो में ग़ुम हो गयी।कोई बात नहीं करना चाहता मुझसे, लेकिन लोग जिससे बात नहीं करते उसी के बारे में दूसरों से ज्यादा बतियाते है।शादी के कार्ड बँट चुके थे। लोग महीनो न बोलोंगे मुझसे,और सालों तक हसेंगे मुझपे।

साल भर पहले अपने बाप से लड़कर सड़क वाली जमीन बेच दी, इसी नौकरी के लिए, जिससे निकाला गया हूं।तब से वो भी बात नहीं करते।


एक बार फिर सल्फास की डिबिया जेब में खड़कती है।


बच्ची इसी ओर दौड़ी चली आती है, शायद बकरियां लेने।


आँखे बंद करो ! कह के खिस्स से हंसती है।

कुछ देर बाद जब यकीन होता है वो मुझी से बात कर रही है मैं आँखे मूंद लेता हूं।


अब खोलो। अपनी हथेलियां मेरे चेहरे पे चश्मे सा फसा चहककर कहती है


पेड़ पे देखता हूँ तो दो लाल गौरैय्या बैठी है।

घबराकर उसके हाथ झटकदेता हु तो एक कांच का टुकड़ा दूर जा गिरता है।

मुझे हंसी आ जाती है उसकी मासूमियत पर।

 ऐसा नहीं बेटा सच्ची वाली। एक दस का नया नया नोट उसकी हथेली पर रखता हूं।


बच्ची बुदबुदाती है -अम्मा तो हमको ऐसे ही दिखाती थी


वर्तमान और भविष्य का नहीं मालूम लेकिन भूत को भूत क्यों कहते है ये मैं जान गया। जब ये सामने आता है -डरा देता है।


क्या नाम है तेरी अम्मा का ?


गौरी !


कहा है अभी ?


मर गयी ! कह के बच्ची फ्रॉक की उधड़ी सिलाई में नोट खोसने लगती है।

पीपल की चितकबरी छांव अचानक जिन्दा लगने लगती है, वो ऊपर ही बैठी होगी।


और बाप तेरा ?


उ तो दूसरा बियाह कर लिया।


और तुझको यहाँ छोड़ गया। लड़ती नहीं उससे।


लड़ेंगे काहे उ हमको खिलौना,मोम्फली लाता है मेला से,अम्मा बोली थी जो बापू से लड़ोगी, हनुमान जी गदा से मारेंगे।गदा से। गदा बोलके खूब हंसती है।


सोचता हूं खुश रहने के लिये क्या चाहिए जो हो इसके पास। दो बकरियां। एक फटी फ्रॉक। एक नाकायक बाप, जिससे नाराज़ होने का सहूर ही नहीं इसे। मेरे बाप ने तो दूसरी शादी नहीं की। मारता तो इसका बाप भी होगा।


जादू आता है तुझे ? बिटिया अपने जैसा बना दे मुझको बीस रुपैय्या दूंगा।


वो जानती थी मैं मज़ाक नहीं कर रहा। सोच में पड़ जाती है। कुछ देर तक सोचने के बाद कुछ नहीं सूझता तो झल्ला के कहती है तो बन जाओ।लाओ पैसे।

"बन जाओ" सलाह नहीं थी। उस पीपल तले वो तथास्थु था।

भरोसा था कोई जादू होगा हमेशा कि तरह, सब पीपल पे बैठा भूत करवा देगा।


एक बिजली सी कौंधी । किसीने रोका तो नहीं है मुझे इसके जैसा होने से।


मैंने पिताजी को फ़ोन लगाया। फिर लगाया, कई बार लगाया पर उठा नहीं। मन जोड़ने का मंत्र भूत भी नहीं जानते।


तुम मन्नू हो न !


मैं चौंक गया। सब मनीष ही कहते है। बरसों बाद मुझे किसी ने इस नाम से पुकारा।


तुझे कैसे मालूम ?


अम्मा ने मरते समय कहा था वो आएगा.

अजीब सा लगा दासियो साल बाद उसे मरते समय मैं याद था।


अम्मा ने कहा था वो आएगा तो ये धागा इस पीपल में बंधवा देना।


कलेजा जैसे धड़क धड़क के फट जाना चाहता था। ये धागा वो मुझसे पहनना चाहती थी। कभी कहा तक नहीं।अपनी गलियाती अम्मा को अनसुना कर सारी गर्मियां वो दाना भूजना छोड़ मेरे घर पानी क्यूं भरती थी, मेरे अम्मा के आगे सौ सौ आदमियों का खाना बना लेने की डींगे क्यों मारती थी, क्यों मेरे आगे ये जादुई काला धागा लिए सुबह शाम डोलती रहती थी। 

सब तो आँखों के आगे ही था। कैसे धोका खा गया मैं ?

पीपल तले जब उसके गले लगा तब भी नहीं समझा। वो मुझे माँ जैसी क्यों लगी?


जब प्रेमिका मन रखने के लिये बचकानी कहानिया गढ़ने लगे, जब वो मर्द बनने की शर्त न रखे, फफक कर रोने पे गले लगा ले,जब उसका प्रेम उसका नेह उसके देह से बहुत बड़ा हो जाये।तो शायद प्रेमिका माँ सी ही लगती हो।

उस रोज़ जबरोते हुए वो अपने घर भागी तो पीछे मामा भुनभुनाये थे - जात का असर नहीं जाता।


बहरूपियों के खानदान से थी, तब मुझे स्नेह की जरुरत थी माँ बन गयी आज प्रेम की जरुरत थी तो प्रेमिका बन गयी। सच है जात का असर नहीं जाता।

तब नानी ने ये कहकर मुझे बचाया था की लल्ला ठीक है वही चांडाल जादूगरनी है।

आज जैसे किसी टाइम मशीन में बैठकर मेरे अतीत के खालीपन को भर आयी है, मैं चाहे जाने लायक हूँ ये दिलासा ले आई है, भरोसा हो गया वो जादूगरनी भी थी।

अपने हांथो में काला धागा लिए मैं पीपल को ताक रहा था। मैंने गौरी को हमेशा इसी पीपल सा समझा, श्रद्धा की वस्तु ! जहाँ लोग मन्नते मान सकते है, तेल के दिए धर सकते है,चक्कर काट सकते है। बस प्रेम नहीं कर सकते।

मैंने वो धागा बांधते हुए जीवन में पहली बार पीपल के फूल देखे।

हवा से फड़फड़ाता पीपल एकदम से शांत हो गया, जैसे कोई पुरानी कसक निकल गयी, जैसे मुक्ति मिल गयी किसीको।

तभी पिताजी का फ़ोन आ गया-कहा फरार हो यार सबेरे से ? फ़ोन न उठा तो फिर करबो न किये। मानलो ताबियते ख़राब हो हमारी। मन छोटा न करो यार, सब कलम घिसेंगे तो अम्बनिया का करेगा।आओ उस मिसिरवा से बड़ी दुकान खोलेंगे बे। अपना हिस्सा बेचे हो हमरा नही।


प्रेमिका को माँ के रूप में देख कर हैरान था अब बाप को दोस्त के भेस में पा के रो पड़ा। 

बच्ची बकरिया लिये वापस जा रही है। चलते चलते वो पहाड़ा भी रटती है। दूर जाती बच्ची को मैंने जोर से पुकारा- नाम क्या है रे बिटिया ?

वो चिल्ला के जवाब देती है - घर का गौरैय्या और स्कूल का मनीषा।


शाम के वीराने में उसकी आवाज़ देर तक गूंजती है, और मेरे मन में और भी देर तक।वो जिन्दा है, मेरे साथ है।

शाम हो रही है खेतो में पानी भर गया है। मैं दालान की तरफ से गुज़रती चकरोड से निकलता हूँ। अबके एक बच्चे जितने छोटे छोटे क़दमों से दालान को नापता हूँ।

पुरे बयालीस कदम है, बाइस कदम की पिच अब भी बन सकती है। छः जन अब भी दुक्की खेल सकते है इसमें। कुछ नहीं बदला था मेरे सिवाय। एक खाली जगह में मैंने सल्फास की डिबिया गाड़ दी, ऐसा लगा जैसे गौरी ने आँख मूंदकर दूध का टूटा दांत गड़वा दिया।


दूर आसमान सिंदूरी रंगों से सज रहा था। आज व्याह था मेरा और उसका भी। वो वहीँ से सिन्दूर उड़ाकर इशारा करती है कि पहुच गयी अपने कोहबर में।


गांव से निकलते हुए एक आखिरी बार पीछे मुड़के देखता हूँ। अजीब सन्नाटा है।जैसा विदाई वाले घर में होता है। धुंआ नहीं उठता, पीपल तले चूल्हा नहीं जलता कोई । बड़ा उदास है पीपल, कितने अकेले होंगे उसपे बैठे भूत।


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