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वड़वानल - 9

वड़वानल - 9

4 mins
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गुरु की ड्यूटी कोस्टल कॉमन नेट पर थी। ट्रैफिक ज़्यादा नहीं था। कॉल साइन ट्रान्समिट हो रही थी। पिछले चौबीस घण्टों में पीठ जमीन पर नहीं टेक पाया था। कल दोपहर को चार से आठ बजे की ड्यूटी खत्म करके जैसे ही वह मेस में आया, वैसे ही Clear lower deck की घोषणा हुई। वह वैसे ही भागते हुए Flag deck पर अपने Action Station पर वापस आ गया था।

जहाज़ में बड़ी ही गड़बड़ी हो रही थी। सभी तोपों पर सैनिक तैयार थे। गुरु ने आकाश पर दूर तक नजर डाली। कहीं भी कुछ नजर नहीं आ रहा था।

‘शायद हवाई जहाज़ रडार पर दिखाई दिए होंगे, मगर यदि वैसा था तो भी अब तक उन्हें नजर के दायरे में आ जाना चाहिए था। कम से कम Air Raid warning का सायरन तो बजाना चाहिए था। वह भी नहीं बजा, अर्थात्...

जहाज़ पर बड़ी भगदड़ मची थी। जहाज़ अपना सीधा मार्ग छोड़कर वक्र गति से चल रहा था। सब समझ गए - शायद पनडुब्बी होगी। जहाज़ के ऊपर से दायें–बायें और आगे–पीछे डेप्थ चार्जेस फायर किये जा रहे थे। पानी में गहराई तक जाकर डेप्थ चार्जेस का जब विस्फोट होता तो एक पल को पानी का पहाड़ खड़ा हो जाता। ऐसा लगता जैसे पनडुब्बी के अवशेष नजर आएँगे, तेल की तरंगें उठेंगी। मगर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ था। उस विशाल सागर में ‘बलूचिस्तान’ अचानक जान के डर से घबराए हुए खरगोश की भाँति दौड़ रहा था।

 ‘‘गुरु, क्या सचमुच में पनडुब्बी हो सकती है ?’’ गुरु के साथ ड्यूटी कर रहे   ऑर्डिनरी   सीमन राव   ने   पूछा।

‘‘यह  युद्ध  है।  यहाँ  छाछ  भी  फूँक–फूँककर  पीना  पड़ता  है।  क्या  भरोसा, हो  सकता  आ  भी  गई  हो  कोई  पनडुब्बी,  जाते–जाते  आखिरी  वार  करने  के  लिए।’’

गुरु   के   जवाब   से   राव   चिन्तित   हो   गया।

‘‘हम   पनडुब्बी   के   चंगुल   से   निकल   तो   सकेंगे   ना ?’’   राव   ने   अपने   सिर से  कैप  उतारी,  उसके  भीतर  तेल  से  चीकट  हुए  किसी  भगवान  के  फोटो  को  प्रणाम किया   और   आँखें   मूँदकर   कुछ   पुटपुटाने   लगा।

राव की इस क्रिया पर गुरु को हँसी आ गई। वह कुछ भी नहीं बोला।

‘‘लगा  दिया  ना  काम  पे ?’’  गुरु  ने  ऊपर  आए  हुए  रडार  ऑपरेटर  से  कहा।

‘‘बाय गॉड ! यार, रडार पर दिखाई दी थी,’’ जोशी गम्भीर स्वर में बोला।

‘‘कोई   चट्टान   या   डूबे   हुए   जहाज़    का   अवशेष   होगा !’’   गुरु   ने   अपना सन्देह व्यक्त   किया।

‘‘चार्ट में ऐसा कुछ भी दिखाया नहीं गया है, फिर वह चीज लगातार आगे सरक रही थी।

‘‘फिर  गई  कहाँ ?’’

‘‘वही  तो  समझ  में  नहीं  आ  रहा।  अच्छे–खासे  चार  मिनट  दिखाई  दी।  हमारे जहाज़  के पोर्ट से चालीस डिग्री के कोण पर करीब एक मील दूर थी। अब कहाँ गायब   हो   गई   है,   समझ   में   नहीं   आता !”

‘‘अरे,   वह   पनडुब्बी   थी   ही   नहीं !’’   घबराया   हुआ   राव   अपने   आप   को   समझा रहा था। जहाज़ पर तनावपूर्ण वातावरण था। हर कोई जबर्दस्त मानसिक दबाव में  था।  जिन्हें  समुद्री  युद्ध  का  कोई  अनुभव  नहीं  था  ऐसे  सैनिक  तो  आगे  की फिक्र   में   डूबे   हुए   थे।

‘‘यदि  पनडुब्बी  टोरपीड़ो  फायर  करे  तो ?... युद्ध  की  ख़बरें,  युद्ध  कथाएँ याद  आईं,  जहाज़   का  पूरा  काम  तमाम  हो  जाएगा  पाँच–दस  मिनटों  में... और फिर... जल  समाधि,  नाक–मुँह  में  पानी... घुटता  हुआ  दम...’’  कल्पना  भी  असह्य थी।

‘‘यदि  कोई  लकड़ी  की  पट्टी  हाथ  लग  जाए  तो...’’  चेहरे  पर  हल्का–सा समाधान।

‘‘मगर   कितनी   देर   तैरोगे !’’

‘‘मदद   प्राप्त   होने   तक।’’

‘‘मिलेगी मदद ? उठायेगा कोई ख़तरा ?’’ आशा–निराशा में डाँवाँडोल होते सवाल।

‘‘तब तक मदद की आशा पर कलेजा फटने तक उस पट्टी पर तैरने की कोशिश करेंगे... अन्त में वही मौत... जीने की भरसक कोशिश में लगे पानी में डूबे हुए पिंजरे के तार पर चढ़ जाने वाले चूहे... हम भी आखिर कहाँ जाएँगे...अन्त   में   वहीं,   मृत्यु   की   शरण   में... अन्त...निराशा   की   विजय...

ब्रिज   पर   अधिकारियों   की   दौड़–धूप   चल   रही   थी।   शत्रु   के   जहाज़ों   और

पनडुब्बी  की  गतिविधियों  से  सम्बन्धित  सन्देश  बार–बार  जाँचे  जा  रहे  थे।  इंजनरूम

में   सीनियर   इंजीनियर   इंजनरूम   के   सैनिक   जहाज़   की   ऑपरेशनल   स्पीड   स्थिर   रखने का प्रयत्न कर रहे थे। सारा डब्ल्यू– टी– ऑफिस काम में व्यस्त था। पन्द्रह सौ किलो  साइकल्स  फ्रिक्वेन्सी  पर  हेडक्वार्टर  से  सम्बन्ध  स्थापित  किया  गया  था। सांकेतिक   सन्देश   आ   रहे   थे,   जा   रहे   थे।

व्हील हाउस में क्वार्टर मास्टर पसीने से तर हो रहा था। ब्रिज के ऊपर से निर्देशित कोर्स पर जहाज़  बनाए रखने का प्रयत्न कर रहा था। जगह–जगह तैनात लुक आउट्स आँखों में तेल डालकर अँधेरे में देखने की कोशिश कर रहे थे   कि   कहीं   कोई   चीज   नजर   तो   नहीं   आ   रही।

ऑपरेटर की नजर लगातार रडार पर थी, मगर कहीं कुछ दिखाई नहीं दे रहा   था।

छह   घण्टों   के   पश्चात्   आसमान   में   पनडुब्बी   विरोधी   हवाई जहाज़ नजर आए और जहाज़ के ऊपर तैनात सैनिकों में मानो जान पड़ गई। कोई तो था उनकी सहायता के लिए मौजूद। बची हुई रात पानी के भीतर पनडुब्बी को खोजने में बीत   गई।   लुक   आउट्स   रातभर   अपनी–अपनी   ड्यूटी   पर   तैनात   खड़े   थे।

आज  सुबह  आठ  बजे  से  बारह  बजे  तक  की  ड्यूटी।  रातभर  जागने  के कारण  आँखों  में  जलन  हो  रही  थी।  नींद  से  पलकें  बोझिल  हो  रही  थीं।  अभी तक     कॉल     साइन     ही     ट्रान्समिट     हो     रही     थी।     कॉल     साइन रुककर कब मेसेज ट्रान्समिट होगा  इसका  कोई  भरोसा  नहीं  था।  ग़ाफ़िल होना  घातक  हो  सकता  था – कोई मेसेज गलत हो सकता था और कितने मेसेज गुजर गए ये सिर्फ अगले मेसेज का   क्रमांक   देखकर   ही   स्पष्ट   हो   सकता   था।

‘‘एकाध मेसेज ग़लत हो जाए तो...कम से कम दस–पन्द्रह दिनों की...शायद  उससे  भी  ज्यादा...सज़ा...’’

गुरु   सज़ा   से   नहीं   डरता   था,   परन्तु   अकार्यक्षमता   के   लिए   सज़ा,   उसे   नागवार   गुज़रती।  नींद  भगाने  के  लिए  कभी  वह  मेज  पर  ताल  देता,  यूँ  ही  पैरों  को  हिलाता, बीच–बीच  में  खड़ा  हो  जाता।  ड्यूटी  समाप्त  होने  में  अभी  पूरा  डेढ़  घण्टा  था।

‘‘बारह  बजे  तक  जागते  ही  रहना  होगा।  गुलामी  में  पड़े  हुए  हर  गुलाम को जागना   होगा।   इन   गोरों   से   कहना   होगा,   ‘क्विट   इण्डिया’।’’

असावधानी से उसने मुँह खोल दिया था, मगर फ़ौरन उसे इस बात का एहसास हो गया कि वह जहाज़  पर है। चारों ओर सैनिक हैं। ‘‘यहाँ नारेबाजी करने  से  अंग्रेज़ी  हुकूमत  का कुछ  भी  बिगड़ने  वाला  नहीं  है,  उल्टे  मुझे  ही  कैद हो जाएगी।’’

‘‘मुझे चींटी की मौत नहीं मरना है।’’ दूसरा मन उसे सावधान कर रहा था।

थोड़े से क्रोध में उसने अपने सामने मेसेज पैड खींचा और उस पर लिखने लगा,   ‘‘सारे   जहाँ   से   अच्छा,   हिन्दोस्ताँ   हमारा...।’’

गुरु के कन्धे पर किसी ने हाथ रखा। उसने पीछे मुड़कर देखा वह टेलिग्राफिस्ट आर.के. सिंह था, उससे तीन   बैच सीनियर।

‘‘क्या   हो   रहा   है ?   देखूँ   तो   क्या   लिखा   है !’’

एक पल के लिए गुरु चकरा गया, ‘यदि ये काग़ज़ आर.के. के हाथ पड गया तो ?’ यह सोचते ही वह सँभल गया। पैड का काग़ज़ फाड़ने ही वाला था कि आर.के. ने झपटकर उसके हाथों से कागज छीन लिया। गुरु को गुस्सा आ गया। काग़ज़ छीनने के लिए वह आर.के.   पर   दौड़ गया।

"Take it easy, take it easy !'' हँसते–हँसते आर.के.  ने  गुरु  से  कहा  और उसके   कन्धे   दबाते   हुए   उसे   नीचे   बिठाया।

''Anything urgent?' ड्यूटी लीडिंग टेलिग्राफिस्ट मदन आर.के. से पूछ रहा था।

''Nothing Leading Tele... Look at this,'' आर.के. ने काग़ज़ उसकी ओर   बढ़ा   दिया।

मदन  की  नजरें  काग़ज़ पर  टिक  गई।  करीब  एक  मिनट  तक  वह  आर.के. से धीमी  आवाज़  में  बात  करता  रहा।  दोनों  गम्भीर  हो  गए।  मदन  गुरु  के निकट   आया   और   उसने   कठोरतापूर्वक   उससे   पूछा,   ‘‘यह   तुमने   लिखा   है ?’’

गुरु   खामोश   रहा।

‘‘जवाब   दो,   चुप   क्यों   हो ?’’

‘‘हाँ  मैंने  ही  लिखा  है,’’  गुरु  ने  धृष्टता  से  कहा । 

‘‘अगर यह काग़ज़ मैं कम्युनिकेशन ऑफिसर को दे दूँ तो ? परिणाम के बारे में सोचा है ?’’

‘‘क्या करेंगे ? चाबुक से मारेंगे, नौसेना से निकाल देंगे, पत्थर फोड़ने भेज देंगे। मैं  तैयार  हूँ  यह  सब सहन  करने  के  लिए,’’  गुरु  ने  निर्णयात्मक  स्वर  में  कहा।

आर.के.   और   मदन   शान्ति   से   सुन   रहे   थे।

‘‘मैंने कोई अपराध नहीं   किया   है।   मैं   सैनिक   हूँ   तो   क्या,   पहले   मैं हिन्दुस्तानी

हूँ  और  हर  हिन्दुस्तानी  नागरिक का कर्तव्य है कि वह ब्रिटिश साम्राज्य के ख़िलाफ़ बगावत  करे।  और  मैं  इस  कर्तव्य  के  लिए  स्वयं  को  तैयार  कर  रहा  हूँ।’’  गुरु की   आवाज़   ऊँची   हो   गई   थी।

‘‘चिल्लाओ   मत।   चुप   बैठो।’’   मदन   ने   डाँटा।

‘‘अब क्यों चुप बैठूँ ?” गुरु चिल्लाया, “ तुमसे एक सच्ची बात कहूँ ? हम सब  गाँ... हैं,  अपनी  माँ  पर बलात्कार  करने  वाले  के  तलवे  चाट  रहे  हैं।  उसी की   ओर   से   लड़   रहे   हैं।

आर. के. ने डब्ल्यू. टी. ऑफिस का दरवाजा अन्दर से बन्द कर लिया।

‘‘अरे  क्या  कर  लोगे  तुम  मेरा ?  मैं  डरता  नहीं  हूँ  तुमसे।  मैं  यहाँ  डब्ल्यू. टी.   ऑफिस   में   नारे   लगाने   वाला   हूँ,   जय–––’’

मदन    ने    पूरी    ताकत    से    गुरु    की    कनपटी    पर    झापड़    मारा    और    चीखा, ‘‘शटअप !  चिल्लाओ  मत !’’  गुरु  की  आँखों  के  सामने  बिजली  कौंध  गई,  ऐसा लगा जैसे शक्तिपात हो गया हो, और वह कुर्सी पर गिर गया। कितनी ही देर वह   वैसे   ही   बैठा   रहा।

‘‘तुझे   मदन   बुला   रहा   है।’’   आर. के.   ने   कहा।

‘‘किसलिए ?’’  गुरु  ने  थोड़े  गुस्से  से  ही  पूछा।

‘‘अरे, ऐसे गुस्सा मत करो, देखो तो सही, क्या कह रहा है वह ?’’ आर.के. हँस रहा था। गुरु मदन के सामने खड़ा हो गया। मदन ने एक बार उसकी ओर   देखा   और   कुर्सी   की   ओर   इशारा   करते   हुए   बोला,   ‘‘बैठो।’’

मदन  ने  इत्मीनान  से  सिगरेट  निकाली  और  पैकेट  उसके  सामने  ले  जाते हुए कहा,  ‘‘लो  दिमाग  ठण्डा  हो  जाएगा।’’

गुरु   ने   गर्दन   हिलाकर   इनकार   कर   दिया।

‘‘क्यों ?  पीते  नहीं  हो  क्या ?’’  मदन  ने  उसकी  आँखों  में  देखते  हुए  पूछा।

 ‘‘मूड   नहीं   है।’’   गुरु   का   गुस्सा   शान्त   नहीं   हुआ   था।

मदन ने अपनी सिगरेट सुलगाई, एक गहरा कश लेकर समझाते हुए गुरु से कहा, ‘‘उस समय की झापड़ के लिए सॉरी ! मैंने अपना आपा खोया नहीं था, मगर तुम्हें चुप करने के लिए वह जरूरी था। तुम भावना के विवश होकर चिल्ला रहे थे। अगर बाहर कोई सुन लेता या एकदम कोई अन्दर आ जाता तो मुसीबत हो जाती।’’

गुरु चुप था। उसे लगा कि मदन अब लीपा–पोती कर रहा है।

‘‘अरे, मुझे और आर. के. को भी तुम्हारे जैसा ही लगता है। हमारा देश आज़ाद हो जाए। हमारे हृदयों में भी देशप्रेम की भावना है। हमारे साथ किये जा रहे बर्ताव से हम नाखुश हैं।’’

गुरु को मदन की बातों पर विश्वास नहीं हो रहा था। उन दोनों की बातचीत और बर्ताव देखकर वह सपने में भी नहीं सोच सकता था कि ये दोनों भी उसके हमख़याल हैं, उनके दिलों में भी विचारों का ऐसा ही तूफ़ान घुमड़ रहा होगा।

उसका चेहरा कितना निर्विकार रहता था ! गुरु के मन में एक और ही सन्देह उत्पन्न हुआ। ‘कहीं ये दोनों मुझे बहका तो नहीं रहे हैं ? हम भी तुम्हारे ही पंथ के हैं, ऐसा कहकर ज्यादा जानकारी हासिल करने की कोशिश तो नहीं कर रहे हैं ?’ वह सतर्क हो गया।

‘‘क्या सोच रहे हो ? भरोसा नहीं है ?’’ मदन ने पूछा गुरु ने ठान लिया था कि किसी भी सवाल का जवाब नहीं देगा।

गुरु को खामोश देखकर मदन मन ही मन हँसा। सिगरेट का एक ज़ोरदार कश लेकर उसने पूछा, ‘‘सुबूत चाहिए तुझे ?’’ सिगरेट की राख ऐश ट्रे में झटकते हुए वह उठा। ‘‘मैं सुबूत देता हूँ तुझे।’’


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