प्यार दिल्ली में छोड़ आया - 9
प्यार दिल्ली में छोड़ आया - 9
*Insequeris, fugio; fugis insequor; haec mini mens est (Latin): अगर तुम आई, तो मैं भाग जाऊँगा, अगर तुम भाग गई, तो तुम्हारा पीछा करुँगा। मेरा दिमाग इसी तरह से काम करता है – मार्शल AD C.40-C.104
सोलहवाँ दिन
जनवरी २६,१९८२
आज भारत का गणतन्त्र-दिवस है, लोग गणतन्त्र दिवस की ३३वीं वर्षगांठ मना रहे हैं- घर में बैठे-बैठे टी०वी० देखते हुए, या सड़क के किनारे खड़े-खड़े इंडिया गेट, अथवा कनाट प्लेस, या लाल किले पर परेड देखते हुए। मेरे होस्टेल में रहने वाले सभी टेलिविजन पर नजरें गडा़ए पूरे देश के साथ खुशी और उम्मीद बाँट रहे हैं। गणतन्त्र दिवस का महत्व पहले भारतीय संविधान से जुडा़ है (मुझे मेरे भारतीय मित्रों ने बताया), अतः यह थाईलैण्ड के ‘‘संविधान-दिवस’’ जैसा ही है।
गणतन्त्र-दिवस की पूर्व संध्या पर प्रेसिडेन्ट (संजीव रेड्डी) ने एक लम्बा-चौडा़ संदेश दिया, कहीं कहीं वे आलोचना भी कर रहे थे राष्ट्रीय-परिदृश्य में ‘‘चिंताजनक घटनाओं’’ की; उनमें से कुछ उन्होंने गिनाई थी, जो उन्हें चिंतित कर रही थीः सार्वजनिक जीवन में नैतिक मूल्यों की अवहेलना; कानून और व्यवस्था के प्रति घटता सम्मान और हिंसा की बढ़ती प्रव़त्ति तथा कमजोर और निर्दोष लोगों पर बढ़ते अत्याचार; विकास का लाभ अधिकांश लोगों तक न पहुँचना और छोटे किसानों एवम् कृषि-मजदूरों की कठिनाईयाँ।
राष्ट्र के सम्मानित अतिथी थे स्पेन के सम्राट जुआन कार्लोस और महारानी सोफिया।
गणतन्त्र दिवस के उपलक्ष्य में महारानी एलिजाबेथ और ब्रिटिश प्रधानमन्त्री श्रीमति मार्गरेट थेचर ने बधाई संदेश भेजे हैं। श्री संजीव रेड्डी को भेजे गए अपने संदेश में महारानी ने कहाः
‘‘गणतन्त्र-दिवस के उपलक्ष्य में महामहिम को सच्ची बधाई देने में मुझे अपार हर्ष का अनुभव हो रहा है। आपके देश एवं उसकी जनता की निरंतर प्रगतिके लिये शुभकामनाएं।’’
इससे मुझे १९७९ के गणतन्त्र-दिवस की याद आ गई। वह मेरा भारत में आने का पहला साल था। एक विदेशी विद्यार्थी होने के कारण मुझे बड़े सम्मान से गणतन्त्र-दिवस पर राष्ट्रपति-भवन में आयोजित टी-पार्टी पर, आमंत्रित किया गया था। महत्वपूर्ण अतिथि थे फ्रास के प्रेसिडेन्ट गिसगार्ड देस्तांग, बॉक्सिंग चैम्पियन मुहम्मद अली, उनकी पत्नी, और उनके मुक्केबाजी के पार्टनर, अमेरिका के जिम्मी एलिसे। यह बताया गया कि अली जिमी कार्टर (तत्कालीन अमेरिकी प्रसिडेन्ट) के नुमाइन्दे की हैसियत से आए थे। इन सम्माननीय अतिथियों के अलावा कई अन्य प्रतिष्ठित व्यक्ति भी थे, जैसे कि राजदूत, राजनयिक और अन्य महत्वपूर्ण संस्थाओं के प्रतिनिधि। उस दिन मैं पार्टी में एक बहुत ही छोटा इन्सान था। ये सब किस्मत की बात थी। इसका तो मैंने कभी सपना भी नहीं देखा था। भारत के राष्ट्रपति को बहुत बहुत धन्यवाद।
आज मैं घर पर ही रहना चाहता हूँ। ओह, कल रात मैंने सपना देखा कि तुम बड़ी प्रसन्नता से मेरे पास आई हो। क्या यह शुभ शगुन है, तुम्हारे जल्दी लौटने का? मैं तहे दिल से तुमसे मिलना चाहता हूँ, चाहे कुछ भी हो जाए। देखो, मेरा प्यार कितना गहरा है!
आज काफी बादल हैं। दोपहर में बारिश हुई थी। मैंने ‘‘स्पेशल लंच’’ खाया और अचान, च्यूएन, आराम या दूसरे थाई विद्यार्थियों से मिलने होस्टेल से निकला, मगर मुझे वापस लौटना पडा़; बाहर बारिश हो रही थी। चूंकि ये गणतन्त्र दिवस है, रात को खाना नहीं मिलेगा। हमें या तो भूखे रहना पड़ेगा या बाहर जाकर खाना पड़ेगा। ये भारतीय तरीका है अपना गणतन्त्र दिवस मनाने का। यह तो अच्छी बात है कि साल भर में ऐसे थोडे-से ही दिन होते हैं, जब हमें इस तरह से ‘उपवास’ करना पड़ता है, वर्ना, हम भूख से मर ही जाएँगे। मेरे दिमाग में लोकप्रिय थाई कहावत आती हैः खाने की भूख इन्सान को मार सकती है; मगर प्रेम और स्नेह की भूख नहीं मारती। मेरे लिये तो इसका उल्टा ही सही है! शाम को वुथिपोंग और सांगकोम मेरे कमरे में आए। वुथिपोंग हमारे लिये एक स्पेशल खाने की चीज लाया थाः सांगकोम मेरे कपड़े लाया था, जो मैंने महेश को प्रेस करवाने को दिये थे। दोनों को धन्यवाद। उनसे बातें करते समय मैंने यूँ ही वुथिपोंग से पूछा लिया कि क्या ओने को तुम्हारा कोई खत मिला है। उसने कहा कि उसे शनिवार को खत मिला है। तुम्हारी सलामती की फिक्र से मैं ओने के पास ज्यादा जानकारी लेने के लिये गया। उसने मुझे दिलासा दिया कि तुम और तुम्हारे माता-पिता अच्छे हैं। मुझे यह जानकर तसल्ली हुई कि तुम्हारे या तुम्हारे माता-पिता के साथ कोई अन्होनी नहीं हुई। मुझे अपने आप पर दया भी आई कि मैं तुम्हारे बारे में ‘‘ज्यादा ही’’ परेशान था।
और, बेशक, जब मैं दूसरों से अपनी तुलना करता हूँ तो मुझे दुख होता है। तुम औरों को लिख सकती हो, मुझे नहीं। मुझे किसी सबूत की जरूरत नहीं है यह निष्कर्ष निकालने के लिये कि तुम औरों के मुकाबले मेरी कम फिक्र करती हो। तुम्हारे तौर-तरीकों से यह साफ जाहिर है। मैं दिमाग में उलझन लिये होस्टेल वापस लौटा। मुझे ऐसा लगता है कि मुझे तुम्हारे रास्ते से दूर फेंक दिया गया है। तुमने मेरे साथ ऐसा क्यों किया, मैं तो हर चीज में तुम्हारा ही हूँ, जो भी मैं करता हूँ, मगर तुमसे मुझे प्रतिसाद नहीं मिलता। ये तो बस एक-तरफ़ा मामला है। फिर आपस का प्यार कहाँ है? मगर मुझे खुशी होती है, जब मैं यह पूछते हुए अपने आप का मजा़क बनाता हूँ किः कुछ और माँगने वाला मैं होता कौन हूँ? उसे मेरे साथ जैसा बर्ताव करना है, करने दो। ये मेरा ही कुसूर है कि मैं परेशान होता हूँ। अगर मैं मर भी जाऊँ तो मेरी कौन फिक्र करेगा? मेरे लिये कौन रोएगा? मेरे साथ ऐसा ही होना चाहिए। तुम मुझे ‘‘ब्लडी फूल’’ कह सकती हो या इसी तरह का कुछ भी।
आज, कोई माफ़ी नहीं माँगनी है, क्योंकि मुझे एहसास हो गया है कि मेरे दुख बाँटने वाला इस दुनिया में कोई नहीं है। जब तुम खुश होती हो, तो एक मिनट के लिये भी मुझे याद नहीं करती हो। यह व्यक्तिपूरक दुनिया है जहाँ हर इन्सान सिर्फ अपने लिये खुशी ढॅूढता है, दूसरों के बारे में जरा भी नहीं सोचता, अपने प्रेमी की तो बात ही क्या है! अपने प्रति तुम्हारी यह बेरहमी देखकर मुझे बहुत बुरा लगा है। इसका सबूत है मेरी डायरी, आज मेरा दिल डूब रहा है।
*Amore nihil mollies nihil violentius (Latin) : प्यार से ज्यादा विनम्र और आक्रामक और कुछ नहीं है – एनोन सत्रहवाँ दिन
जनवरी २७,१९८२
आज काफी भाग-दौड़ भरा दिन रहा। सुबह मैं लिंग्विस्टिक्स डिपार्टमेन्ट गया – एक किताब लौटाने, मेरे रिसर्च गाईड से मिलने और दोस्तों से – भारतीय और थाई – मिलने। हेड ऑफ दि डिपार्टमेन्ट (डा० के०पी० सुब्बाराव) ने मुझे बुलाया और पूछाः
‘‘तुम घर कब जा रहे हो?’’
‘‘अगले कुछ महीनों में, सर,’’ मैंने कहा।
‘‘मेरे घर में एक और बच्चे का जन्म होने वाला है,’’ उन्होंने बड़े फख्र से कहा।
‘‘ये तो बहुत बढ़िया खबर है, सर, मुबारक हो।’’
‘‘मैं अपने बच्चे के लिये थाईलैण्ड से कुछ मंगवाना चाहता हूँ। मुझे जाने से दो-तीन दिन पहले बताना, प्लीज।’’
‘‘बड़ी खुशी से, सर, मैं जरूर बताऊँगा।’’
फिर उन्होंने ‘‘दि ग्रेट कॉफी हाऊस’’ में मुझे और अपने अन्य शोध छात्रों की कॉफी पीने की दावत दी। रास्ते में हम सोम्मियेंग से मिले। उसे भी हमारे साथ आने की दावत दी। अच्छी रही ये ‘गेट-टुगेदर’। मगर, मैंने कमरे से निकलते समय सोचा था कि तुम्हारे सुपरवाईज़र मि० वासित से मिलॅूगा। इत्तेफाक से मैंने उन्हें मि० कश्यप के साथ मेरी ही दिशा में आते देखा, जब मैं कॉफी हाऊस से वापस जा रहा था।
मैं उनसे मूलाकात करने ही वाला था, मगर फिर रूक गया क्योंकि वह मि० कश्यप के साथ अपनी बातचीत में मशगूल थे। उनकी बातों में खलल डालना ठीक नहीं होता। नतीजा ये हुआ कि मैंने उनसे मिलने का मौका खो दिया। कोई बात नहीं, अगली बार ही सही। मैं आगे चला, अपने गाईड से मिलने। मैंने उनसे कुछ सुझाव लिये और वापस अपने कमरे में आ गया। युनिवर्सिटी स्टेशनरी शॉप के पास वाले चौराहे पर मैं टुम और उसकी होस्टल की सहेली से मिला। उसने मुझे थाई तरीके से नमस्ते किया और अपनी सहेली का परिचय कराया। उसकी सहेली शरारती टाईप की है। वह कलकत्ता की है। उसका नाम है कृष्णा। पहले तो मैं समझ नहीं पाया कि वह थाई है या भारतीय। मैंने टुम से पूछा। टुम ने मुझे नहीं बताया, मगर यह सलाह दी कि मैं उसीसे पूछॅू।
‘‘क्या तुम थाई हो?’’ मैंने उससे पूछा।
‘‘हाँ, मैं थाई हूँ,’’ उसने जवाब दिया।
फिर मैंने उसे थाई भाषा में पूछा, जिससे उसके जवाब की सच्चाई का पता चले।
‘‘मा जाक माय (तुम कहाँ की हो?)’’ मैंने फिर उससे पूछा।
‘‘मा जाक माय’’ उसने टूटी-फूटी बोली में सवाल दुहरा दिया।
‘‘तुम्हारा झूठ पकडा़ गया!’’ मैंने कहा
‘‘नहीं, मैंने झूठ नहीं बोला,’’ वह मान नहीं रही थी।
मैं उसे सताने लगा।
‘‘तुम एक बहुत बड़ी झूठी हो!’’
उसने एकदम इनकार कर दिया कि वह झूठी है। ये तो अच्छा रहा कि हमारी बातचीत ने ‘‘गलतफहमी’’ नहीं पैदा की। टुम हमारे इस शाब्दिक युध्द पर खूब हंस रही थी।
मैंने उन्हें ‘‘मिरान्डा हाऊस’’ छोडा़ और उनसे ‘‘बाय’’ कहा। मैं कुछ कागज़ खरीदने कोऑपरेटिव स्टोअर पर रूका। कागज़ लेकर मैं सीधे होस्टल आया। मैंने खाना खाया और पोस्टमैन का इंतजार करने लगा। मैंने उससे अपने खत के बारे में पूछा। मगर उसने कहाः
‘‘सॉरी, तुम्हारे लिये तो नहीं है, मगर पी०जी० वूमेन्स होस्टेल में एक थाई लड़की के लिये है।’’
‘कौन है वो?’
‘‘धी...धी’’ उसने टूटी-फूटी अंग्रेजी में कहा।
‘‘क्या मैं ले लूँ? वह मेरी दोस्त है,’’ मैने बडे़ विश्वास से कहा।
‘‘हाँ, हाँ,’’ उसने कहा।
मैं अपने कमरे में आया और तुम्हारे खत को मेज की दराज में रख दिया। आधे घण्टे बाद मैं यू०जी०सी० गया, पता करने कि क्या स्कॉलरशिप की घोषणा हो चुकी है। ऑफिसर ने मुझे सूचित किया कि घोषणा की तारीख अप्रैल तक बढा़ दी गई है। मुझे कमिटी की इन तकनीकी बातों से और विलम्ब से निराशा हुई। मगर मैं सिर्फ ‘‘इंतजार’’ ही कर सकता हूँ। मैं यू०जी०सी० बिल्डिंग से बाहर निकला और युनिवर्सिटी के लिये बस का इंतजार करने लगा। बसें खचाखच भरी हुई थी। एक घण्टा बीत गया। आखिरकार मैं एक बस में घुसा जिसने, दुर्भाग्यवश, मुझे आई०एस०बी०टी० छोडा़। मैंने अब बस नहीं लेने का फैसला किया। मैं लम्बा चक्कर लगाकर होस्टेल आया। उद्देश्य ये थेः
१.अपने आप को इतना थकाना कि मानसिक तनाव कुछ कम हो जाए;
२.इस व्यक्तिपूरक दुनिया को महसूस करना, जैसा कि किसी ने किया था जब वह थाईलैण्ड में थी;
३.यह देखना कि इस घातक-प्रतियोगिता वाली दुनिया में लोग कैसे रहते हैं।
जब में आगे चल रहा था, मैं जीवन की गति के बारे में सोच रहा था। क्या विगत मुझे पीछे धकेल रहा है या भविष्य अपनी ओर खींच रहा है? मगर मैं फिर भी आगे की ओर ही चलता रहा। अंतिम लक्ष्य रहस्यमय था, धुँधला था, अनिश्चित था। डा० डब्ल्यू० डब्ल्यू डायर, एक प्रसिध्द मनोवैज्ञानिक ने, ठीक ही कहा ह‘‘वास्तविकता को पूरे समय कोसते रहने और अपनी प्रसन्नता के अवसर को खोने से बेहतर है जीवन की सराहना करना; यह सम्पूर्ण समाधान की ओर एक निश्चित कदम हो सकता है।’’ अब मुझे उसके सही निरीक्षण का अनुभव हो रहा हयह सैर 45 मिनट तक चली, जब तक मैं होस्टेल नहीं पहुँच गया। अब मैं डायरी बन्द करता हूँ और नहाने जा रहा हूँ (हमेशा की तरह)। आज मेरा पढ़ने का इरादा है और बाद में मैं सोऊँगा।अलविदा, फिलहाल!
प्यार!
पुनश्चः मालूम नहीं तापमान कितना है। मगर आज शाम को ठंड ने मेरी हड्डियों तक में सिहरन भर दी।