दुनियादारी का पाठ
दुनियादारी का पाठ
बचपन से सब उसे दुनियादारी सिखाने की कोशिश कर कर के हार चुके थे। वो कुछ विरले लोग होते हैं न, आदर्शवादी। वही जिनकी हम कहानियों और किताबों में गला फाड़-फाड़ कर प्रशंसा करते हैं पर असली दुनिया में सिर्फ और सिर्फ खिल्ली उड़ाते हैं। बस वही था वो।
दुनिया में निराला। सदा सच बोलता था। झूठ बोलना कभी सीखा ही नहीं। अब ऐसे बच्चे के दोस्त कहाँ से होते। कुछ देर बात कर के ही बाकी बच्चे भांप लेते थे कि वह कुछ अलग सा है। सो धीरे-धीरे वो दुनिया से कट गया और दुनिया उससे। अब बस किताबें ही उसकी दोस्त और साथी थी।
माँ बाप इसी से खुश थे। वैसे वो ठहरे बेचारे सीधे-साधे सो कभी-कभी घबरा जाते थे कि बड़े होकर बेचारा क्या करेगा। पर फ़िलहाल हर परीक्षा में अव्वल आ रहा था तो इस बात में ही राहत ढूंढ लेते थे।
अब पढ़ने लिखने में अच्छा था तो वो पढ़ लिख कर डॉक्टर भी बन गया। पर अब दिक्कतें शुरू हो गयी। किसी निजी अस्पताल में उसकी नौकरी दस पंद्रह दिन से ज्यादा टिकती ही नहीं थी। सच बोलने का मतलब था कि वह दवाएँ भी सस्ती लिख देता था और टेस्ट भी कम से कम लिखता था। अब एक किस्सा ही काफी है उसकी इस नासमझी के प्रमाण के लिए। तो हुआ ये कि एक बार उसकी एक निजी अस्पताल में रात की ड्यूटी लगी; इमरजेंसी में। साथ में एक डॉक्टर और था। अब उस रात एक माता-पिता घबराये हुए अपने पाँच साल के बच्चे के साथ आये। उनके आते ही दूसरे डॉक्टर ने बच्चे को झट से इमरजेंसी रूम के बिस्तर पर लिटवा लिया। माता-पिता ने बड़े घबराते हुए बताया कि उनके बच्चे की जीभ में बड़ा-सा कट लग गया है। ऐसा लग रहा है जैसे कि जीभ एक किनारे से फट कर अलग ही हो जाएगी। अब दूसरे डॉक्टर ने उन्हें झट से तुरंत लड़के को दाखिल करने की सलाह दी और बताया की तुरंत जीभ में टाँके लगा कर जीभ को सिलना पड़ेगा और फिर कम से कम एक दिन तो एडमिट रखना पड़ेगा। कुल मिलाकर लगभग बीस हजार का खर्चा उन्हें अग्रिम तुरंत जमा कराने को कह दिया।
अब भाई जब दूसरे डॉक्टर ने केस हाथ में ले लिया था तो हमारे नायक को चुप रहना चाहिये था न! पर हमारे नायक तो झट से बीच में कूद पड़े और उस बच्चे के माता-पिता को बड़े आराम से बोले कि चिंता की कोई बात ही नहीं है। जीभ की लार खुद ही एक हफ्ते के अंदर पूरा घाव भर देगी। न टाँके लगाने की जरूरत है और न ही अस्पताल में दाखिल रहने की। बस दर्द कम करने की दवाई दे दें और वो भी बस एक दो दिन। इतना ही नहीं बच्चे के माता-पिता को ये भी बता दिया कि टाँके लगने से नुक्सान भी हो सकता है।
अब इन भले-मानस की बात सुन कर उसी वक्त वो माता-पिता अपने बच्चे को लेकर वापस घर चले गए। सीधी-सी बात है कि दूसरे डॉक्टर ने अगले ही दिन इस घटना की सूचना अस्पताल प्रशासन को दी और अस्पताल प्रशासन ने पहले के सभी निजी अस्पतालों की राह का अनुसरण करते हुए हमारे नादान और भोले से डॉक्टर को भी वापस घर भेज दिया।
जब ऐसे ही शहर के लगभग सभी निजी अस्पतालों में कुछेक दिन काम करके वो नौकरी से हाथ धोता रहा तो एक बार फिर उसकी किताबों से दोस्ती काम आयी। वो सरकारी अस्पताल की नौकरी के लिए चुन लिया गया। वैसे सुना है कि इंटरव्यू बोर्ड वाले उसे देख कर ही समझ गए थे कि वह सरकारी नौकरी के काबिल नहीं है। बेचारों ने अपनी तरफ से उसे सरकारी नौकरी के दुष्प्रभावों से बचाने के लिए इंटरव्यू में बेहद कम अंक भी दिए पर वो लिखित परीक्षा में इतने अधिक अंक लाया था कि इस सब के बावजूद भी उसे सरकारी नौकरी मिल गयी।
जब उसने सरकारी नौकरी में कार्यग्रहण धारण किया तो उसके वरिष्ठ अधिकारी भी भांप गए कि वह न तो सिस्टम में फिट बैठेगा न दूसरों को चैन से बैठने देगा। सो उन्होंने उसका तबादला एक सुदूर गाँव के अस्पताल में कर दिया।
खैर वो बहुत खुश था कि वहाँ जाकर गरीब गाँव वालों की सेवा कर पायेगा। अपनी डॉक्टरी के ज्ञान का इस्तेमाल कर के उन्हें बीमारियों और असमय मौत से बचाने में योगदान दे पायेगा।
लेकिन जब वो वहाँ पहुँचा तो देखा कि अस्पताल के नाम पर बस एक टूटी-फूटी इमारत में तीन-चार लोहे के बिस्तर लगे हैं जिनमें जंग लग चुका था। कागजों में उस अस्पताल में एक नर्स, एक वॉर्डबॉय, एक कम्पाउण्डर और पाँच मरीज थे पर असलियत में वहाँ दूर-दूर तक कोई उल्लू भी नहीं बोल रहा था।
उसने तुरंत अपने मुख्यालय को इस विषय में शिकायत भेजी। मुख्यालय ने भी तुरंत इस विषय पर जांच कमेटी बिठा दी। अब जांच कमेटी तो खाये खिलाये अधिकारीयों की थी। तो बस एक महीने में रिपोर्ट भी आ गयी। रिपोर्ट के अनुसार नर्स, वॉर्डबॉय, कम्पाउण्डर और मरीज सभी अस्पताल में मौजूद थे। कमेटी ने झूठी शिकायत करने के 'अपराध ' के लिए उसे 'चेतावनी' देने की सिफारिश भी दे दी।
अब वो चुपचाप उसी अधूरे अस्पताल में नौकरी कर रहा है। दीवार में उसने अपनी डॉक्टरी की डिग्री शीशे में फ्रेम करवा कर लगवा दी है। ठीक उसी के बगल में उसने खुद को मिली 'लिखित चेतावनी' को भी फ्रेम कर के टंगवा दिया है।
अब जब भी अस्पताल में दवाइयाँ न आने या घटिया दवाइयों की सप्लाई आने या ऐसी ही किसी दूसरी बात की शिकायत का ख्याल उसके मन में आता है तो वो झट से फिर से अपने को मिली 'लिखित चेतावनी' को पढ़ने लगता है।
उसके बाद एक फीकी-सी हँसी हँसकर वापस अपनी टूटी-फूटी कुर्सी पर बैठ मरीजों को देखने लगता है।
सिस्टम ने वो कर दिखाया जो उसके माता-पिता, अध्यापक और समाज नहीं कर पाए थे।
उसको दुनियादारी का पहला पाठ पढ़ा दिया है। पर पता नहीं अभी और कितने पाठ उसकी किस्मत में लिखे हों। हमें क्या पता जी। ये तो बस राम जाने।