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गाँव - 2.7

गाँव - 2.7

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लेखक : इवान बूनिन

अनुवाद : आ. चारुमति रामदास :


उसे यूँ लगा, जैसे वह साल भर पहले शहर से निकला था और अब कभी वहाँ तक पहुँच ही नहीं पाएगा। गीली टोपी बड़ी तकलीफ़ दे रही थी, गन्दे, लम्बे बूटों में जकड़े हुए ठण्डे पैरों में टीस उठ रही थी। दिन भर में चेहरा हवा से सूज गया था, जल रहा था। बेंच से उठकर कुज़्मा नम हवा की ओर, खेतों वाले दरवाज़े की ओर, पुराने, वीरान कब्रिस्तान की ओर चल पड़ा। छपरी के कीचड़ पर मद्धिम रोशनी पड़ रही थी, मगर जैसे ही कुज़्मा दूर हुआ, अकीम ने लैम्प में फूँक मारी, रोशनी ग़ायब हो गई और अचानक रात घिर आई। बिजली की नीली रोशनी अब और प्रखरता से, अप्रत्याशितता से चमक रही थी, उसने समूचे आकाश को, बगिया की सारी गहराई को, दूर स्थित देवदार के वृक्षों तक, जहाँ हम्माम था, रोशन कर दिया और अचानक इतना अँधेरा उँडेल दिया कि सिर घूम गया। फिर कहीं नीचे गरज सुनाई दी, दूर की गड़गड़ाहट की। कुछ देर खड़े रहकर और दरवाज़ों में हल्की रोशनी देखकर, कुज़्मा रास्ते पर निकल गया, जो पहाड़ी के साथ-साथ शोर मचाते हुए पुराने नींबू और मैपल वृक्षों की बगल से गुज़र रहा था, इधर-से-उधर टहलने लगा।

टोपी पर, हाथों पर फिर से बारिश गिरने लगी। फ़िर से काला अँधेरा रोशन हो गया, बारिश की बूँदें चमकने लगीं, परती ज़मीन पर, मरियल-सी नीली रोशनी में, पतली गर्दन वाले, गीले घोड़े की आकृति प्रकट हुई। परती ज़मीन के उस पार, काली पृष्ठभूमि पर बदरंग, धातुई-हरे जई के खेत की एक झलक दिखाई दी, घोड़े ने सिर उठाया और कुज़्मा डर गया। वह वापस मुड़ गया दरवाज़े की ओर। अब टटोलते हुए हम्माम तक पहुँचा, जो देवदारों के झुरमुट में स्थित था, बारिश इतनी ताकत से ज़मीन पर फट पड़ी कि विप्लव के बारे में डरावने ख़याल उसके दिमाग़ में तैर गए, जैसा कि बचपन में होता था। उसने दियासलाई जलाई, खिड़की के पास लकड़ी के फ़ट्टों का तख़्ता देखा, चुइका को निकालकर उसे सिरहाने रख लिया। अँधेरे में वह तख़्ते पर चढ़ गया और गहरी साँस लेकर उस पर पसर गया, बूढ़ों जैसा लेट गया, पीठ के बल, थकी हुई आँखों को मूँद लिया।

या ख़ुदा, कैसा अजीब और मुश्किल सफ़र था! वह यहाँ आ कैसे गया ? ज़मीन्दार के घर में भी अँधेरा है, गर्मियों की बिजली की चमक चुपके से शीशे में झाँक जाती।छपरी में, मूसलाधार बारिश के नीचे, अकीम सो रहा है।यहाँ, हम्माम में, बेशक, कई बार शैतान देखा गया है : क्या अकीम शैतान में भरोसा करता है, जैसा कि होना चाहिए ? नहीं। मगर फिर भी यकीन के साथ बताएगा कि कैसे उसके मरहूम दादा – सिर्फ दादा और सिर्फ मरहूम – एक बार खलिहान में गए चारा लेने और शैतान वहाँ पानी की नाँद पर, पैर पर पैर रखे, झबरा, जैसे कुत्ता।और घुटना ऊपर उठाकर, कुज़्मा ने हाथ की कोहनी माथे पर रखी और गहरी साँस लेते हुए ग्लानि के साथ ऊँघने लगा।

सारी गर्मियाँ उसने काम पाने की उम्मीद में गुज़ारीं। बगीचों के बारे में सपने बड़े बेवकूफ़ी-भरे प्रतीत हुए। शहर में लौटकर और अपनी परिस्थिति पर भली-भाँति विचार करने के बाद, उसने कारिन्दे की, बाबू की जगह की तलाश शुरू कर दी, फिर किसी भी काम के लिए राज़ी होने लगा, बस सिर्फ रोटी का टुकड़ा मिल जाए। मगर खोज, दौड़-धूप, मिन्नतें बेकार ही गईं। शहर में बहुत पहले ही वह सिरफिरे के रूप में मशहूर था। नशे की लत और निकम्मेपन ने उसे एक उपहास की चीज़ बना दिया। उसकी ज़िन्दगी ने पहले तो शहर को अचरज में डाल दिया, बाद में वह सन्देहास्पद लगने लगी। और सच भी है : कहीं देखा है, कि उसकी उम्र का छोटा-मोटा व्यापारी सरायों में रहता हो, कुँआरा और निर्धन हो, जैसे कोई घुमक्कड़ हारमोनियम बजाने वाला हो : एक छोटी-सी सन्दूकची और भारी, पुरानी छत्री, बस यही उसकी सम्पत्ति थी। और कुज़्मा ने आईने में देखना शुरू किया : वाकई, यह कैसा आदमी है उसके सामने ? रात बिताता है सराय के आम कमरे में, अपरिचितों के बीच, आने वाले और जाने वाले लोगों के बीच, सुबह गर्मी में डोलता रहता है बाज़ार में, शराबख़ानों में, जहाँ खाली जगहों के बारे में ख़बरें सुनता रहता है, दोपहर के खाने के बाद सोता है, फिर खिड़की के पास बैठ जाता है और पढ़ता रहता है, देखता रहता है धूलभरी सफ़ेद सड़क और गर्मी से फ़ीके नीले हो गए आसमान को।क्यों और किसलिए जीता है भूख और व्यापारियों के कठोर विचारों से दुबला और बुढ़ा गया आदमी, जो स्वयम् को अराजकतावादी कहता है, और जो इतना भी नहीं समझ सकता कि अराजकतावादी का मतलब क्या होता है ? बैठा रहता है, पढ़ता है, गहरी साँस लेता है, कमरे में चहलकदमी करता है, घुटनों के बल बैठता है, अपनी सन्दूकची खोलता है, जीर्ण हो चुकी किताबों और पाण्डुलिपियों, दो-तीन बदरंग हो चुकी खड़ी कॉलर वाली कमीज़ों, पुराने लम्बे पल्ले वाले कोट, जैकेट, जन्म के प्रमाण-पत्र को सलीके से रखता है।अब इसके बाद क्या क रे!।

गर्मियाँ अन्तहीन रूप से लम्बी खिंच गईं। अब शहर में नर्क की-सी गर्मी थी। सराय की कोने वाली इमारत सूरज में भट्ठी की तरह गर्म हो गई। रातों को उमस के कारण खून सिर में हथौड़े मारता, बन्द खिड़कियों के पीछे की हर आवाज़ उसे जगा जाती। मगर पिस्सुओं, मुर्गों की बाँग और पिछवाड़े से आती खाद की दुर्गन्ध के कारण वह घास की गंजी पर भी नहीं सो सकता था। पूरी गर्मियाँ वरोनेझ जाने के सपने ने कुज़्मा को चैन न लेने दिया। कम-से-कम एक रेलगाड़ी से दूसरी रेलगाड़ी के बीच के समय में ही वरोनेझ की सड़कों पर घूम लेता, जाने-पहचाने पहाड़ी पीपल के पेड़ देख लेता, एक नज़र डालता शहर के बाहर बने नीले-से घर पर, मगर किसलिए ? दस-पन्द्रह रूबल उड़ा देना और फिर मोमबत्ती और डबल-रोटी के लिए तरसना ? प्यार की यादों में खो जाना बूढ़े के लिए शर्म की बात है।। जहाँ तक कलाशा का सवाल है, तो क्या वह उसी की बेटी है ? दो साल पहले उसे देखा था, खिड़की के पास बैठकर लेस बुनती रहती है, देखने में प्यारी-सी और नम्र है, मगर मिलती है, बस अपनी माँ से।

शिशिर के आते-आते कुज़्मा को यकीन हो गया कि या तो तीर्थयात्रा पर निकल जाना चाहिए, किसी मठ की ओर, या बस, गले पर उस्तरा चला देना चाहिए।

शिशिर का मौसम आ गया। बाज़ार में सेबों और आलूबुखारों की ख़ुशबू आने लगी। बोर्डिंग स्कूल के बच्चों को लाया गया। सूरज श्येप्नाया चौक के पीछे अस्त होने लगा :शाम को दरवाज़े से बाहर निकलो और, चौराहा पार करते हुए, आँखें चुंधिया जाती हैं : दाहिनी ओर पूरी सड़क, दूर चौक से मिलती हुई, उदासीभरी हल्की रोशनी से नहा गई थी। परकोटे के पीछे वाले बगीचे धूल और मकड़ी के जालों से भरे थे। सामने से पलोज़व आ रहा है – उसने टोपी वाली बरसाती पहन रखी थी, मगर हैट के बदले सिर पर थी बैज वाली टोपी। शहर के बाग में एक भी आदमी नहीं है। संगीतज्ञों का बैण्ड-स्टैण्ड बन्द कर दिया गया था, किओस्क भी, जहाँ गर्मियों में कुमीस ( घोड़ी के दूध का एक पेय – अनु।) और नींबू का शरबत बेचा जाता था, बन्द था; होटल का तख़्तोंवाला काउण्टर भी बन्द था और एक दिन इस स्टेज के पास बैठे-बैठे कुज़्मा इतना दुःखी हो गया, कि संजीदगी से, ख़ुदकुशी करने के बारे में सोचने लगा।

सूरज डूब रहा था, उसका रंग लाल-सा था, पेड़ों के गलियारे में छोटी गुलाबी पत्तियाँ उड़ रही थीं, ठण्डी हवा चल रही थी। गिरजे में शाम की प्रार्थना के घण्टे बजने लगे और इस सधी हुई, गहरी, कस्बाई, शनिवार की आवाज़ तले उसके दिल में असहनीय हूक उठी। अचानक बैण्ड-स्टैण्ड के नीचे खाँसी, कराह सुनाई दी।’मोत्का’, कुज़्मा ने सोचा। और सचमुच : सीढ़ी के नीचे से बाहर आया मोत्या- बत्तख़ जैसे सिर वाला। वह सिपाहियों वाले लाल-भूरे जूते, शिक्षकों वाला बहुत लम्बा, आटे से भरा हुआ कोट पहने था, ज़ाहिर है, बाज़ार ने उसके साथ छेड़खानी की थी, सिर पर थी फूस की हैट, जो कई बार गाड़ियों और पहियों के नीचे आ चुकी थी। आँखें खोले बगैर, थूकते हुए, नशे के कारण लड़खड़ाते हुए, वह नज़दीक से गुज़र गया।कुज़्मा ने आँसू रोकते हुए ख़ुद ही उसे पुकारा, “मोत्या! आ बैठ, बतियाएँगे, सिगरेट फूँकेंगे।”

और मोत्या मुड़ा, बेंच पर बैठ गया, नींद में, भौंहें हिलाते हुए, अपने लिए सिगरेट बनाने लगा, मगर, शायद वह समझ नहीं पा रहा था, कि उसकी बगल में कौन बैठा है, कौन है जो अपने दुखड़े उसके सामने रो रहा है।।और दूसरे दिन वही मोत्या कुज़्मा के लिए तीखन की चिट्ठी लाया। सितम्बर के अन्त में कुज़्मा दुर्नोव्का चला गया। 


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