सुंदर माझे घर
सुंदर माझे घर
दीपेश घर के बरामदे में बैठे-बैठे सूर्यास्त को निहारते-निहारते सोच रहे थे कि आज का दिन न जाने कितनों को ख़ुशियाँ दे गया होगा और न जाने कितनों को ग़म...कितने अपने जीवन के सुनहरे पलों के साथ झूम रहे होंगे और कितने ही अपने गमों को सूर्यास्त की अनोखी अद्भुत छटा में भुलाने की असफल चेष्टा कर रहे होंगे। एक ऐसी ही शाम उनके जीवन को अँधेरों से भर गई थी। न चाहते हुए भी अतीत उनकी आँखों के सामने चलचित्र की भाँति मंडराने लगा था।
नीरा को प्रकृति से अत्यंत प्रेम था। यही कारण था कि जब दीपेश ने मकान बनवाने का निर्णय लिया तो उसने साफ़ शब्दों में कह दिया वह फ्लैट नहीं वरन् अपना स्वतंत्र घर चाहती है जिसे वह अपनी इच्छानुसार...वास्तुशास्त्र के नियमों के अनुसार बनवा सके। जिसमें छोटा सा बगीचा हो....तरह-तरह के फूल हों...यदि संभव हो तो फल और सब्ज़ियाँ भी लगाई जा सके।
यद्यपि दीपेश को इन सब बातों में विश्वास नहीं था किन्तु नीरा का वास्तुशास्त्र में घोर विश्वास था। उसका कहना था यदि इसमें कोई सच्चाई नहीं होती तो क्यो बड़े-बड़े लोग अपने निवास और आँफिस वास्तुशास्त्र के नियमों का पालन करते हुए नहीं बनवाते या वास्तुशास्त्र के नियमों के अनुसार न बना होने पर अच्छे भले घर में सुधार करने के लिये तोड़ फोड़ न करवाते।