दिया देहरी पर
दिया देहरी पर
दिया देहरी पर सतत जलने देना ।
तनिक लड़खड़ाता सा बोझा उठाऐ
कोई क्लांत हारा पथिक द्वार आऐ
अँधेरे से लड़ता मिले इक सिपाही
उसे पथ दिखाने को लौ टिमटिमाये
हो छोटा सही पर समर चलने देना ।
दिया देहरी पर सतत जलने देना ।।
है फैली हुई कंटकों सी उदासी
उल्लास भी मानो लेता उबासी
सभी प्रेम विश्वास को भूल बैठे
आशा की किरणेंं बनीं तम की दासी
मगर तुम हृदय में अनल पलने देना ।
दिया देहरी पर सतत जलने देना ।।
है लौ इसकी छोटी मगर ये निडर है
अँधेरे के आतंक से बेख़बर है
महा कर्मयोगी है पूछे सभी से
कहाँ है अँधेरा बताओ किधर है
अकिंचन का यह जोश मत गलने देना
दिया देहरी पर सतत जलने देना
महेश दुबे