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इण्डियन फ़िल्म्स 2.3

इण्डियन फ़िल्म्स 2.3

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पहली इण्डियन फ़िल्म, जो मैंने देखी, वो थी फ़िल्म 'सम्राट’. फिल्म देखने के बाद मैं लड़खड़ाते हुए, खुले हुए मुँह से, अपने चारों ओर की कोई भी चीज़ न देखते हुए और लगातार गलत जगह पर मुड़ते हुए घर जा रहा था और क्वार्टर के अंदर जाते ही मैंने कहा:

“तोन्, क्या तुझे पता है, कि हिटलर से भी ज़्यादा बुरा कौन है ?

“अरे,” तोन्या नानी ने अचरज से पूछा, “ये हिटलर से भी ज़्यादा बुरा आख़िर कौन है ?”

कुछ देर चुप रहने के बाद और हौले-हौले दूर के मुम्बई से घर आते हुए, मैंने कहा: “बॉस।”

बेशक ! वो हिटलर से कई गुना बुरा है, क्योंकि उसने कैप्टेन चावला को कई सालों तक तहख़ाने में कैद करके रखा था। कैप्टेन चावला अकेला ही ऐसा आदमी था, जो उस जगह को जानता था, जहाँ उसने सोने से लदे हुए जहाज़ ‘सम्राट’ को समंदर में डुबाया था ! और डुबाया भी उसी बॉस की आज्ञा से था और अगर फिल्म के ख़ास हीरो राम और राज न होते तो न जाने और कितने साल वो बुरे काम करता रहता।

मैं व्लादिक को विस्तार से ‘सम्राट’ की कहानी सुनाता हूँ और हमने फ़ौरन उसे देखने का फ़ैसला कर लिया। व्लादिक को भी फ़िल्म बहुत अच्छी लगी, मगर सिर्फ जब हम थियेटर से बाहर निकल रहे थे, तो उसने कहा, कि आख़िर में बॉस पे सिर्फ तीन गोलियाँ चलाई गई थीं, न कि बीस, जैसा मैंने उसे बताया था मगर मुझे लगा था, कि बीस थीं !

और उसके बाद मैंने लगातार एक के बाद एक “तकदीर”, “जागीर”, “हुकूमत”, “शोले”, “मुझे इन्साफ़ चाहिए” ये फ़िल्में देखीं और अब मुझे मालूम है कि वो, जो “सम्राट” में राम का रोल कर रहा था, वो एक्टर धर्मेंद्र है, “शोले” में वो वीरू का रोल कर रहा था, और वो जो बॉस बना था, वो अमजद ख़ान है, वो “शोले” में वैसे ही घिनौने आदमी का रोल कर रहा था, सिर्फ इस बार उसका नाम है गब्बर सिंग। फिर मैंने “शक्ति”, “ख़ुद्दार, “मुकद्दर का सिकंदर”, “त्रिशूल”, “जंज़ीर” देखी और मैं अमिताभ बच्चन से प्यार करने लगा। जो इन सभी फ़िल्मों में और, “शोले” में भी प्रमुख रोल करता है, और सभी में उसका नाम विजय ही है। अगर मुझे कभी लड़का हूँ तो मैं उसका नाम भी विजय ही रखूँगा, अमिताभ के सम्मान में।

फिर थियेटर्स में राज कपूर की “आवारा” और “डिस्को डान्सर” दिखाई जाती हैं। मेरे लिए ‘इण्डिया, दो सिरीज’ का मतलब है कि मुझे जाना ही पड़ेगा क्योंकि फ़िल्म अच्छी ही होगी और मैं फ़ौरन ये दोनों फ़िल्में देखने के लिए लपकता हूँ। “आवारा” तो मुझे बेहद पसंद है मगर चार बार “डिस्को डान्सर” देखने के बाद (उसमें हीरो है मिथुन चक्रवर्ती – ये वो ही है जिसने “जागीर” में फ़ैक्ट्री मालिक रणधीर के छोटे भाई का रोल किया था) मैं अच्छी तरह समझ गया हूँ कि जब मैं बड़ा हो जाऊँगा तो एक्टर ही बनूँगा और “डिस्को डान्सर-2” में काम करूँगा, मिथुन चक्रवर्ती के साथ।

और अचानक “डिस्को डान्सर – 2” आ जाती है मगर इस फ़िल्म का नाम है “डान्स डान्स” मुख्य रोल भी मिथुन चक्रवर्ती ने ही किया है, डाइरेक्टर भी वो ही बब्बर सुभाष है, वो ही ऑपरेटर राधू करमाकर है, वो ही म्यूज़िक डाइरेक्टर बप्पी लहरी है। जब मैंने 'वर्कर्स वे’ में ‘सव्रेमेन्निक’ थियेटर की अनाउन्समेन्ट और ये वाक्य देखा: “...फिल्म “डिस्को डान्सर” के चाहने वाले सोवियत फ़ैन्स के लिए, तो पाँच मिनट के लिए मैं जैसे ख़ुशी से मर ही गया और न जाने क्यों ये भी ख़ास तौर से अच्छा लगा कि “डिस्को डान्सर” को सिर्फ मैं ही नहीं बल्कि सभी सोवियत दर्शक पसंद करते हैं।

फिर एक समय ऐसा भी आता है, जब हमारे शहर के थियेटर्स में इण्डियन फिल्म्स आती ही नहीं हैं। तब मैं ‘09’ इस नंबर पे शहर के सिनेमा-डिस्ट्रीब्यूटर ऑफ़िस में फ़ोन करता हूँ और पूछता हूँ कि क्या कोई नई इण्डियन फ़िल्म दिखाई जाने वाली है। मुझे जवाब मिलता है कि जल्दी ही फ़िल्म “प्यार करके देखो” आने वाली है और रिसीवर रख देते हैं। मैं पूछ भी नहीं पाता कि फ़िल्म में कौन-कौनसे एक्टर्स हैं। फिर से फ़ोन करता हूँ, पूछता हूँ कि फ़िल्म “प्यार करके देखो” का हीरो कौन है। मुझे मालूम तो होना चाहिए ना कि किसे पसंद करूँ और किस पर यकीन करूँ। उन्हें बहुत अचरज होता है कि मुझे इस बात में दिलचस्पी है, मगर फिर भी टेलिफ़ोन वाली औरत ने हँसकर कहा कि जब फिल्म दिखाई जाएगी, तो मुझे पता चल जाएगा, कि उसमें कौन-कौन काम कर रहा है। मगर मुझे उसका लहजा अच्छा नहीं लगा। मैं फिर से फोन करता हूँ और आवाज़ बदलकर पूछता हूँ कि कहीं किसी थियेटर में “डिस्को डान्सर” तो नहीं दिखाने वाले हैं। मुझे मरियलपन से जवाब मिलता है कि नहीं दिखाएँगे।

जब अगली सुबह मैं फिर से हमारे शहर के थियेटरों में इण्डियन फ़िल्म्स दिखाने के बारे में फ़ोन करता हूँ तो वो लोग मुझे पहचान लेते हैं: “दोस्त, तू क्या नींद में भी सोच रहा था कि कहाँ फ़ोन करना है।

अब मैं उन्हें फोन नहीं करता। अच्छा नहीं लगता मगर ये मैं उनका दोस्त कैसे हो गया ?


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