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काव्या

काव्या

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ख़त्म हुई सिगरेट के निशानों से कमरा सारा भरा पड़ा था..धुएँ के कुछ छल्ले पंखे के आसपास चिपके थे..अब भी एक सिगरेट आधी जली आधी बुझी हालत में उसकी उँगलियों में फँसी  थी..सोच के भँवरों में डूबता उतरता वो..कमरे में होकर भी नहीं था..यूँ ही कही गुम सा...अचानक से बिस्तर पे रखे फोन की हलचल ने उसे झँझोड़ सा दिया..."हेल्लो...सर उसके बैंक के लॉकर से एक डायरी मिली है..और कुछ पन्ने बस..और कुछ भी नहीं..." "ह्म्म्म्म...अच्छा..मेरे टेबल पे रख दो 10 मिनट में पहुँचता हूँ.." 12 साल के कैरियर में आज पहली बार उसकी आवाज में लड़खड़ाहट सी थी..इतनी हसीन सी लड़की इस उम्र में...ख़ुदकुशी ..आखिर क्या वजह हो सकती थी..सुसाइड नोट भी मौजूद था..सारे सबूत इसी ओर इशारा कर रहे थे..ये आत्महत्या है...पर आज..दिमाग से इतर दिल भी कुछ कह रहा था..उसकी बंद आखों से भी ज़िन्दगी यूँ झाँक रही थी..मानो पहाड़ के पीछे डूबता सूरज लाल कर जाता है आसमान को जाते जाते..और वो कमरे में लगी बड़ी बड़ी उसकी तसवीरें...उनमें तो..कोई भी उदासी नहीं..ग़म नहीं..फिर क्यों..यूँ उधेड़बुन में डूबा वो पुलिस स्टेशन पहुँचा..."सर बहुत ही अजीब बात है..लोग अपने बैंक लॉकर में..पैसे गहने ..प्रॉपर्टी के पेपर रखते है...पर यहाँ तो...डायरी और ये..पन्ने..कुछ समझ नहीं आ रहा.." "ह्म्म्म्म दिखाओ मुझे..."....
उसने डायरी खोली पहला पन्ना पलटा...गोल घुमावदार अक्षरों में यूँ के जैसे किसी की अदाऐं हो..लिखा था.."काव्या....."...."दुबे उस लड़की का नाम तो सौम्या था न...पर इसपे तो काव्या लिखा है..."..."मालूम नहीं सर बैंक लॉकर तो सौम्या के नाम से ही था..."..."ह्म्म्म..."....पहले से ही मुह तक आ चुकी सिगरेट को अब उसने सुलगा लिया था..आरामदेह कुर्सी पे वो धँसता गया..सिगरेट सुलगती रही...और पलटते रहे उस डायरी के पन्ने...

मैने इस एक ज़िन्दगी में भी दो जन्म लिऐ हैं ...एक जो मेरे माता पिता ने दिया है.. और उन्होंने नाम दिया मुझे सौम्या..लेकिन फिर से हुआ जन्म मेरा..और इस बार मुझे जन्म देने वाली थी कविता..और कविता से जन्मी काव्य सृजन करती काव्या.....हाँ ये नाम मुझे मेरे अल्फ़ाज़ों ने दिया..आखिर इनका भी तो हक़ है मुझ पर...जैसे चाहे इनको जोड़ तोड़ देती हूँ...बेचारे कोई शिकायत भी नहीं करते..अब जब इतने प्यार से मुझे नाम दिया है तो..मैं ऐतराज कैसे कर सकती हूँ...हाँ..आज से मैं काव्या हूँ...अपने लिए...अपने हर्फो के लिए...और.....
मम्मी बुला रही है...सुनो...जाना मत कही...आती हूँ फिर आगे बताती हूँ..........

कमाल था...उसकी लेखन ने सबकुछ जैसे सामने ला के रख दिया...वो तो उसकी माँ की पुकार भी साफ़ सुन पा रहा था.....
"सौम्या......किधर है बेटा..."..."आई मम्मी..."....
वो साफ़ देख पा रहा था..उसकी नाजुक उँगलियों में फँसी  कलम को..एक झटके में मोड़ डायरी के बीच रख दिया होगा...उठी तेजी में..दरवाजे तक पहुँची और...अरे..सुनो..कलम बंद करना भूल गयी...ढक्कन तो अब भी तुम्हारे कानो में लगा है..ह्ह्ह्ह्हज....ख़ुद  हँसी होगी अपनी बेवकूफी पर...धीरे से हाथ मार सर पे..ख़ुद  को समझाया होगा...वापस धीरे से खोल डायरी को..कलम बंद की होगी..."सौम्या..."...मम्मी ने फिर से आवाज दी होगी...ओह्ह ये लड़की भी न..इस बार डायरी बंद करना भूल गयी....पंखे की हवा एक एक कर पन्ने पलटती रही.....

इस डायरी में कही भी साल नहीं लिखा न ही तारीख है..जहाँ लिखी भी थी उसको मैंने काट दिया है..पता नहीं क्यों..लेकिन यूँ वक़्त की ज़ंजीरों से आजाद होने का भ्रम होता है..हाँ फख्त भ्रम..भ्रम ही है तो क्या हुआ..अच्छा है..सुकून देता है..और वैसे भी ये पूरी दुनियाँ एक भ्रम ही तो है..एक दिन सब खत्म हो जाना है...ये रिश्ते ये नाते..सब तो भ्रम ही है...हाँ वो एक चीज जो हमें सबसे ज्यादा प्रभावित करती है..इश्क़....हाँ भ्रम ही तो है...एक ऐसा भ्रम जो एक काल्पनिक दुनिया का सृजन करता है..और हम कही गुम हो जाते है उसमे..और फिर यूँ ही किसी रोज अनायास ही टूट जाता है वो भ्रम और बिखर जाते है हम सपाट..कुछ यूँ ही तो था..उसका मिलना..और फिर......खैर छोड़ो...आज मालूम है क्या हुआ...आज न...अमरुद के पेड़ से गिर पड़ी मैं...अरे न..मेरी कोई गलती नहीं...सुनो बताती हूँ हुआ क्या...

ये जो मेरी खिड़की के सामने पेड़ है न...हाँ यही...तो बरसात का मौसम है..ढेर से अमरुद फले है उसमे...शिखा आई थी आज घर पे..उसने ही जिद किया..तो बस मैं न..चढ़ गयी..हाँ तो मुझे चढ़ना आता है न...बड़े अच्छे से...अरे जब उससे मिलना होता था शाम में..तब बालकनी से होकर..इसी पेड़ से उतर कर तो जाती थी मैं...और ....खैर उसको छोड़ो...तो फिर मैं तोड़ रही थी..और वो शिखा है न..एकदम पगलेट है...बिलकुल किनारे वाली अमरुद दिखा रही थी नीचे से..मैं आगे गयी..डाली कमजोर थी और बस...टूट गयी...ओह्ह...मम्मीईईईइ.....बड़ी जोर की हँसी आ रही है न तुम्हे..मेरी पाँव में इतनी चोट लगी है और तुम...हँस लो हँस लो बस....

हाहाहा...सचमुच डायरी बंद कर हँसने लगा था वो..."क्या हुआ सर इतने जोर जोर से हँस रहे है..क्या लिखा है ऐसा...."..."अरे नहीं कुछ भी नहीं...".....इतना सीरियस रहने वाला इंस्पेक्टर आज पहली बार अपने ही स्टेशन में यूँ खुल के...और इसकी वजह...वापस डायरी खोली...

मैं न मोटी वोटी नहीं हूँ बिलकुल भी...मुझे न मोटी मत समझना...इतनी मेहनत से तो फिगर मेन्टेन किया है...पहले ही ईश्वर ने ये सावला रंग दिया है..कितनी ही तो कोशिश करती हूँ गोरी होने की..पर सब ही बेकार..मालूम है दूध मुझे बिलकुल भी पसंद नहीं..पर मम्मी कहती है इसको पीने से गोरी हो जाऊंगी..तो बस इसलिए ही...नीम के कड़वे पत्ते चबाए है..वो मुल्तानी मिट्टी और जाने क्या क्या..पर ये सावला रंग...इसलिए कम से कम फिगर ही सही रख लूँ..चौबीस से ज्यादा तो कमर होनी ही नहीं चहिए...और सीने के कसाव...कम से कम चौतीस...जब वो जीन्स और शर्ट पहनती हूँ और बालो को बाँध लेती हूँ..रबर बैंड से..तो देखो अच्छी तो लगती हूँ...उम्म्म्म्म्म्म्म...उबासियाँ आ रही है....बाक़ी बाद में......

एक बार फिर वो....उसके कमरे में दाखिल हो गया था...नीले रंग का वो लिबास...गले के गहरायी से झाँकते..वो उसके बदन के कटाव..हाँ बिलकुल सही ही तो बयाँ  किया था उसने..और ये सावला रंग....खामख्वाह ही परेशान होती है ...ये रंग तो कितना जँचता है उसे...यूँ के जैसे कोई धुसिर सी शाम हो...नदी किनारे की..ये रुखसारों पे बिखरी जुल्फ़ें ..हाथो से हटा दूँ क्या...

"सर....सर...."...."हाँ....."...."सर रात के दो बज रहे है आप घर नहीं जायँगे..."...."एम्म्म हाँ...बस निकल रहा हूँ...."

बस इतना करीब था उसको छूने के...और इस आवाज ने उसे वापस ला दिया...कितना अजीब था...जो है ही नहीं..उसे महसूस कर रहा था वो.... ख़ुद  ही तो देखा था उसकी लाश को..तफ्तीश भी की थी...अब यूँ उसका ज़िंदा लगना....ये उसके शब्दों का जादू था या फिर कुछ और.......ऐसी जादूगर...इतनी जबरदस्त लेखिका को आत्महत्या की जरुरत....डायरी सीने पे रख...यूँ ही इस सोच के भँवरों में डूबते उभरते...उसे कब नींद आ गयी पता ही न चला...इक छोटा सा पन्ना..इसी बीच कमरे के उस इकलौते बल्ब से नजरे चूरा...हवा की साँठ-गाँठ से..धीरे से पलँग के नीचे सरक गया...और पसरा जो आराम को..तो फिर वही घुमावदार अदाओं से शब्द उभर आऐ ......

"मैं इक अफ़साना हूँ...मेरी कोई उम्र नहीं...
जो गुजर भी गयी तो..बीतूँगी नहीं कभी..."

अगली सुबह.....

रोज की तरह ऑफिस पहुँचा...कमिशनर का फोन..."राठौड़...सुनो एक बैंक डकैती हुई है..तुम जल्दी पहुँचो और छानबीन करो...देखो क्या मामला है..."
आज पहली दफा किसी केस की तफ्तीश में उसका जी नहीं लग रहा था...अब भी काव्या गूँज रही थी...यूँ लग रहा था उसे मानो...गुजर रही हो...आसपास से उसको छूते हुए....कभी अपने नीले दुप्पटे से...कभी रेशमी जुल्फों से..

स्टेशन को लौटती उसकी जीप अचानक ही ठिठक गयी. काव्या के फ्लैट के सामने...कदम ख़ुद- ब- ख़ुद  खिंचते चले गऐ ..दीवारों से ताकती उसकी वो हलकी भूरी आँखें...सफ़ेद रंग का वो दुप्पटा..काली जुल्फों की कुछ लड़ियाँ गर्दन पे..और इक छोटी टेढ़ी सी बिंदी...सच कितनी कशिश थी उसमें...हाथ बढ़ चले थे..यूँ उसका स्पर्श..महज एक तस्वीर नहीं हो सकती ये...कोई सांवला जादू तो नहीं जानती थी...हाँ साँवला जादू...उसका जादू साँवला ही हो सकता था....काला  नहीं...यूँ उसका होना..न होकर भी..

सिगरेट अब तक सुलग चुकी थी..मुँह से बाहर आते धुएँ के छल्ले...गोल गोल हो गुम हो रहे थे...आज वो छल्ले भी उसे कभी तो..उसके कानो की बड़ी बड़ी बालियाँ लग रही थी...और कभी...तो...वो नाज़ुक सी कलाई..हाँ जहाँ अटकती थी अक्सर हरी चूड़ियाँ...काव्या......हाँ वो अब भी डायरी में छिपी बैठी तो है...

घर पहुँचा..

मेज पे पड़ी डायरी खिलखिला कर बुला रही हो मानो...उसने लाइट्स ऑन की..पंखा चलाया..और अभी बढ़ा ही था डायरी की ओर..के हवा पे झूलते हुए एक पन्ने ने उसकी बाहें थाम ली...वही अदाओं से इठलाते हर्फ़....

"दरिया ...सागर...साहिल...
या फिर कोई मझधार...
कौन हूँ मैं..
रौशनी...अँधेरा..जगमगाहट..
या फिर कोई जलती बुझती टिमटिमाहट..
कौन हूँ मैं..
कितना अजीब है यूँ..
ख़ुद  से होना अंजान ..
जानती हूँ सबको ही..
फिर कौन करायेगा मुझ से पहचान...

सुनो जो तुम जान सको तो..
करना मुझे भी इत्तेला ....
कौन हूँ मैं......."

सच कौन है ये...हाँ है...वो थी नहीं हो सकती...सच वो तो है..अब भी..पर ख़ुद  से भी अंजान..अपना रहस्य उसे भी मालूम न हो सका...तो फिर मैं कैसे...क्या यूँ ही बस एक पहेली सी..रह जाएगी....

विस्की अब सोडे के साथ मिल चुकी थी...हाथ ग्लास पे कस चुके थे...कुछ बूँदें गले से उतर गयी..मेज पर ग्लास रख...उसने डायरी उठाई....और ...पन्ने पलटता गया...

जब भी इस अनन्त आसमान को देखती हूँ..अनायास ही इसमें कहीं ग़ुम हो जाने को जी करता है..
काश के मेरे पंख होते..उड़ जाती फिर मैं...उड़ती रहती..उड़ती रहती..और जो थक जाती तो..फिर अपना चाँद है न..बस वही रुक थोड़ा सुस्ता लेती..हाँ..ये चाँद मेरा अपना ही तो है..ह्म्म्म कई दफ़ा दौड़ लगायी है इसके साथ...और हाँ पेड़ के पीछे से लुका छिपी भी तो खेलता है ये फिर अपना ही तो हुआ..ह्म्म्म पर चाँद पे पानी नहीं जो प्यास लगी तो...तो फिर ये बादल है न..इनके टैंक तो हमेशा ही फुल रहते है..और क्या..इतनी बार तो मुझे भिंगोया है अपनी मर्जी से..फिर क्या इक बारगी मेरी प्यास को कुछ बूँदें न देगा..

पहाड़ों पे चलना कितना अच्छा लगता है न...हाँ एक बार गई थी कॉलेज ट्रिप पे...वो विस्तार..वो पहाड़ की बाहें..और उनपे थिरकती हवाओं का साज..सच कितना मनोरम था न..डर सा लगता था..उस ऊँचाई से नीचे देखने पर..फिर भी..कपकपातें कदम बढ़ ही जाते थे...ये प्रकृति कितनी हसीं है न..खींचती जाती है मुझे अपनी ओर...कितना अच्छा होता जो मैं भी...इस प्रकृति का इक हिस्सा होती...किसी कुहासे की कोई धुंध...या फिर वो धूप को रेखाओं में घुलती एक धूल की कण...या वो...नन्ही घास पे उतरती फिसलती गोल वाली ओस की बून्द...आसमां के कैनवास पे बिखरा कोई रंग ही होती या फिर..होती मैं वो ब्रश जिससे रंगता है वो बादलों के पार का चित्रकार..इस दुनियाँ को..हाँ देखो तो..इंद्रधनुष का ये सतरंगी लिबास..कितना कमाल का चित्रकार है न..

चार पेग हो चुके थे अब..पन्ने धुँधले हो रहे थे और उँगलियों की रफ़्तार कम..बमुश्किल ही वो अब पन्ने पलट पा रहा था..नींद उसे अपने आगोश में ले चुकी थी..हाथ से छूट डायरी वहीँ बिस्तर पे लुढ़कती कुछ दूर जा चादर की सिलवटों में अटक गयी...पन्ने आपस में ही उलझ गऐ ..और वही अदाओ से शब्द कनखियों से झाँकते दिखे...

"होना चाहती हूँ..कोई ओस की बूँद ..
या कोई नन्ही सी बुलबुली पानी की..
के उम्र छोटी सी तो होगी.. पर तब..
ताउम्र रहूँगी खूबसूरत..मासूम सी.."

"यार दुबे क्या लगता है..इस केस में कोई एंगल हो सकता है क्या...".."कौन सा केस सर..?.."..."यार यही काव्या वाला.."..."काव्या..कौन काव्या...?..".."अरे वो सौम्या यार..सौम्या शर्मा...".."ह्म्म्म कुछ कह नहीं सकते सर..सारे सबूत तो आत्महत्या ही बताते है..किसी के उँगलियों के कोई निशां या कुछ भी तो और मिला नहीं..."..."पर ऐसी लड़की आखिर आत्महत्या क्यों....."..."ऐसी लड़की..!मतलब कैसी लड़की सर...?.."..."ह्म्म्म कुछ नहीं...एक काम करो..पता करो वो दिल्ली में कब से थी...इससे पहले कहा रहती थी..उसका परिवार...दोस्त सारे डिटेल्स चाहिए मुझे...ओके...."..."ओके सर..."....

जिस घर का वो ज़िक्र  करती है अपनी डायरी में वो ये दिल्ली वाला फ्लैट तो नहीं है..मतलब वो यहा कही और से आई है..उसका परिवार हाँ मम्मी का ज़िक्र किया था...पर यहाँ तो कोई नहीं..फिर..आखिर आत्महत्या क्यों करेगी वो...सोच की आँधी चलती रही..सिगरेट फूँकने की रफ़्तार भी बढ़ती रही...आज वो डायरी ऑफिस में लिए आया था..अब काव्या से दूरी बर्दाश्त नहीं हो रही थी..हाँ उसे जानने की तलब बढ़ती जा रही थी..आखिर आगे क्या...उसका साँवला जादू सर चढ़ के बोल रहा था..अल्फ़ाज़ों की छड़ी जो घुमाई थी उसने...
उँगलियाँ फिर पन्नों में फँस गयी थी..और ज़िंदा हो उठी काव्या...फिर से..

आज मैंने शराब पी है..हाँ शराब..बेकार ही बदनाम करते है लोग इसे..कितनी अच्छी सी तो है..सब भूल जाती हूँ..इसको पी के..उसे भी..उसका यूँ मेरी ज़िन्दगी में आना..और फिर यूँ ही चले जाना..पूरा का पूरा भूल जाती हूँ...वो जब पहली बार उसे अपने कॉलेज के बाहर देखा था..बाइक पे...फिर उसका यूँ मेरे पीछे पीछे घूमना...कैसे मैंने अपने दोस्तों में धौंस ज़माने को कह दिया था..वो मेरा बॉयफ्रेंड है..तब तो उसको जानती भी नहीं थी..फिर जब उसने मुझे प्रोपोज़ किया तो..मैं कितनी हैरान हुई थी..सच कर दी थी उसने मेरी झूठी कहानी और फिर........फिर हर सच को झूठ साबित कर...यूँ ही चला गया..पर मैं क्यों करूँ फ़िक्र उसकी..नहीं करती मैं...कुछ भी..फ़िकर..हाँ...

वफ़ा करे..या हो बेवफा..उसकी बात है..
दीवानी हूँ मैं.. दीवानगी अपनी जात है..!!

मेरा इश्क़ तेरे इश्क़ का मोहताज नहीं...
इसकी ख़ुद  की अपनी एक बिसात है..!!

क्यों आते है लोग हमारी ज़िंदगी मे जब उन्हें चले जाना होता है..क्या औचित्य है फिर उनका...आज भी अपने बदन पे उसकी उँगलियाँ महसूस करती हूँ...यूँ लगता है जैसे निचोड़ रहा हो अब भी वो मुझे बाहों में भर कर....और मैं कसमसा रही हूँ..उसके सीने पे अपनी नाक रगड़ते हुए...निशां जिस्म से हवा हो गऐ ...पर अब भी उसके साँसों की आहट अपनी रूह पे महसूस करती हूँ...हाँ....अब सब घूम रहा है..आँखें बंद हो रही है.....अब्बब्ब बाक्कीक   कललल...देखूँ तो कुछ भी ठेक से लिख नहीं पा  रही.................

नाईट बल्ब की धीमी रौशनी से नहाया वो कमरा..3 पे चल रहा पंखा..न ज्यादा तेज न बिलकुल ही धीमा बस इतना भर की...उसकी जुल्फ़ें हिल रही थीं ...बिस्तर पे बिखरी थी वो..हाथ पैर छितरे थे..और बगल की टेबल पे..वो आधा पेग...समझ नहीं आ रहा था..वो आधा भरा था..या आधा खाली..उसने ग्लास उठाई और........इस आधे पेग में...पूरी बोतल का नशा था...सावले जादू ने फिर उसे काव्या के सामने ला खड़ा कर दिया था...इसे देखो जरा ये डायरी यूँ सीने पे ही रख के...इसे हटा इधर रख देता हूँ...और एक चादर ओढ़ा दूँ  इसे...उसने चादर ओढ़ाया..और सुगबुगाहट करती हुई उसने करवट ली........

"सर उसके घर का पता चल गया है.."..."हाँ.....हाँ...बताओ.."....अब वो वापस स्टेशन में था...दुबे ने बताया...गाज़ियाबाद की रहने वाली थी..वो...घर बंद ही है अब तो...कोई रहता नहीं वहाँ..माँ तो बहुत पहले ही जा चुकी थी..बाप अभी एक साल पहले...हाँ पिता से कुछ झगड़ा कर आई थी दिल्ली रहने...सो इन दो सालो में किसी से कोई भी कांटेक्ट नहीं किया था काव्या ने...

निगाहें रास्ते पे थी...हाथ स्टेरिंग पर..और एक हाथ में सुलग रही थी..इक नन्ही गोल्ड फ्लैक...और वो..वो उस गाड़ी में कहा था..वो तो अब भी साँवले जादू में कही गुम था...क्यों आखिर आत्महत्या...और काव्या जैसी लड़की को कोई छोड़ कैसे सकता है..कैसा रहा होगा वो..काव्या जो न होकर भी यही लगती है..कैसा होगा उसका सामने होना..उसके हाथो में हाथ ले..आँखों में आँखे डाल उससे बात करना...कैसे कोई काव्या को ठुकरा सकता है..कहीं उसका कत्ल...वही लड़का तो नहीं...रास्ते बड़ी तेजी से भागे जा रहे थे...डायरी अब भी बगल की सीट पर बैठी मुस्का रही थी..सवालो का इक जत्था लिए वो बढ़ता जा रहा था...गाजियाबाद की ओर...अब जवाब मिलेंगे या जुड़ेंगे कुछ और सवाल.....

घर का दरवाजा खोला...लकड़ी की पुरानी सीढ़ियाँ ऊपर को जाती हुई..अचानक से..सारी धूल.. सारे जाले हवा हो गऐ ..देखा उसने..काव्या को...उछलते हुए सीढ़ियों पे कदम बढ़ाते...एक हाथ से बाहें थाम रखी थी उसने सीढ़ी की..और गुनगुनाते हुए वो गीत....

"तेरे बिना ज़िन्दगी से ...शिकवा.. तो नहीं....
शिकवा नहीं...शिकवा नहीं...ह्म्म्म्म्म्म
हम्म्म्म्म...ह्म्म्म्म्म्म..."

वो गुलाबी दुपट्टा गिरता संभलता...और अरे अरे..रुको संभालो ख़ुद  को...काव्या...बिलकुल कुर्सी के पास जा कर ही रुकी...अभी बची बिलकुल गिरते गिरते....तुम भी न काव्या...

"सर .....सर...ऊपर वाला कमरा है सौम्या का..."...."हाँ.....हाँ...चलो चलते है..."

कमरे में पहुँचा....दाँऐं हाथ को दरवाजा और..बाँऐं हाथ पे वो खिड़की...खिड़की के ठीक सामने वो पेड़...खिड़की से लगी पलंग...हाँ..यहाँ तो आ चुका है वो.....उसी दिन तो जब माँ बुला रही थी तब..इसी कमरे में बैठ के तो लिख रही थी...और फिर उस रोज जब..उसको छूने को..आगे बढ़ा..था....यही तो लेटी थी वो...खिड़की पे रखा वो छोटा आईना...हाँ इसी में तो देखती होगी ख़ुद  को....

"दुबे तुम जाओ...आसपास जाकर तफ्तीश करो...रिश्तेदारों से पूछो...मैं कुछ देर यही छानबीन करूँगा..."...."ओके सर..."....

बड़ी देर से उसके हाथो में फँसी  काव्या कसमसा रही थी..बिन धूल झाड़े ही उस रॉकिंग चेयर पे झूलने लगा वो...कुछ मकड़े सिगरेट के धुँऐ से अकबकाने लगे थे..और उँगलियों..घुमाने लगी थी वक़्त को पीछे...पन्ने फिर पलटने लगे थे......

अब बस बहुत हो गया...मैं जा रही हूँ...कल ही दिल्ली चली जाऊँगी..और पापा को तो ...बताऊँगी भी नहीं...हाँ..अमर उजाला में जॉब तो मेरी पक्की हो ही चुकी है बस...और करूँ भी तो क्या..दम घुटने लगा है अब यहाँ...कितना पसंद था ये शहर मुझे पर अब तो जैसे....कुछ भी बाक़ी नहीं यहाँ...कुछ भी नहीं...उसकी बेरुखी भी अब बर्दाश्त नहीं होती....और पापा का रोज यूँ पी कर हल्ला करना...माँ की मौत के ज़िम्मेदार भी तो वही है...हाँ जानती हूँ मैं...कैसे माफ़ कर सकती हूँ उनको...उस दिन जब माँ ने हमेशा की तरह धमकी दी थी...उन्होंने...सुना भी नहीं...फिर सचमुच ही आग लगा...

पन्ने पे कुछ सूख चुके आँसू अब भी ज़ब्त थे...वो समझ सकता था..कैसे फिसले होंगे वो चंद आँसू और भिंगो गऐ  होंगे वो लफ्ज़.....

और वैसे भी अब है ही कौन मेरा...हाँ..राजिव को थोड़ी परेशानी होगी...मेरे बचपन का दोस्त...उसके साथ वक़्त कैसे कट जाता है पता ही नहीं चलता...ह्ह्ह्ह...आज ही शाम तो आया था...उसकी आँखों पे चश्मा भी तो कितना जँचता है...कई बार मैंने ख़ुद  पे लगा के...पर मुझपे उतना अच्छा नहीं लगता जितना उसपे..उसके कंधे पे सर रख कितने ही घंटे तो मैं...वो शायद मिस करेगा मुझे...पर उसे भी कुछ न बताऊँगी...हाँ मैं चली जाऊँगी...इस शहर से दूर...आखिर मैं नहीं चाहती की.. साहिल को कुछ भी पता चले....बस चली जाऊँगी...

डायरी बंद की...

इस बार उसे कही जाने की जरुरत ही नहीं थी...वो तो पहले से वही था...काव्या के कमरे में...बिस्तर पे...औंधे पड़ी वो...तकिए गीले थे...आँखे बरस रही थी...मैं छोड़ूँगा नहीं इस साहिल के बच्चे को...उसने मेरी काव्या को रुलाया...उसकी ही वजह से इस शहर को छोड़ जा रही है वो...ये शहर जो उसको इतना पसंद है...इस साहिल को तो मैं...काव्या ...तुम रोते हुए बिलकुल भी अच्छी नहीं लगती...तुम्हे.....

अचानक फोन बज उठा..."हाँ दुबे बोलो....अच्छा....ठीक है मैं आता हूँ..."

अब काव्या उसे अपनी लगने लगी थी...मेरी काव्या....उसको रुलाने वाले पे उसे गुस्सा आने लगा था..क्या था ये...और ये कैसे..आज से पहले तो कभी भी किसी लड़की के लिए यूँ नहीं....फिर आज अचानक..कॉलेज के ज़माने में कितनी ही लड़कियाँ तो.....उसके पीछे...फिर भी कभी नहीं...उसके बाद ये पुलिस की नौकरी..और आज..यूँ..काव्या का अपने अल्फ़ाज़ों से उसको बाँध लेना....साँवला जादू अपने चरम पे था...

सारे रिश्तेदारों से पूछताछ की...किसी को भी दो साल से कोई ख़बर नहीं...कोई सुराग कुछ भी नहीं...किसी दोस्त को भी कुछ पता नहीं...राजिव भी स्वीडन में सेटल हो चूका था..डेढ़ साल पहले ही...शायद उसके जाने के बाद ही...
"सर अब बस एक ही बंदा रह गया..है..उसका बॉयफ्रेंड ...यहाँ से जाने के कुछ दिन पहले ही ब्रेकअप हुआ था..उससे शायद कोई सुराग मिल सके..."....."ह्म्म्म्म चलो फिर साहिल के पास चलते है..."...."साहिल..?....कौन साहिल...सर...उसके बॉयफ्रेंड का नाम तो...आकाश है..."...."आकाश.....पर उसने तो साहिल बताया था..."..."उसने...?...उसने..किसने सर...?..."..ह्म्म्म्म्म्म..."...."सर...सर...क्या सोच रहे हैं ...?.."..."ह्म्म्म..कुछ नहीं...चलो  आकाश के पास चलते है.."...

फिर से इक उधेड़बुन के गुबार ने उसे घेर लिया था...आकाश...अगर ये है तो ..फिर साहिल कौन...जिसको वो नहीं चाहती थी की कुछ भी पता चले...सिगरेट फूँकने की रफ़्तार बढ़ गयी थी...

आकाश से बात हुई..कुछ अलग ही चीजे बयाँ की उसने..."वो बहुत अच्छी थी सच...आज भी सोचता हूँ..शायद मेरी गलती थी उसे यूँ छोड़ना...लेकिन उसकी पागलपन को कोई झेलता भी तो कैसे...कभी भी कही भी चली जाती थी...बिन बताये ही..और तो और उसे शादी करनी थी..उस वक़्त मेरे पास कोई नौकरी नहीं थी..ऐसे में शादी..बस इतना ही कहा था..अभी नहीं कर सकता..बस उसे लगा मैं उसे धोखा दे रहा हूँ..इसी बात के लिए इतना बवाल..आप बताइए बिना रोज़ी रोजगार भला कोई कैसे..."..."ह्म्म्म्म..आपको साहिल के बारे में कुछ पता है..."...."साहिल?...नहीं..तो कौन साहिल..."

साहिल अब भी एक रहस्य की तरह बरक़रार था...गाज़ियाबाद की तफ्तीश लगभग पूरी हो चुकी थी..यहाँ भी कुछ हाथ न लगा था..सिवाए उसकी खुशबु के..हाँ यहा तो ऐसा लगता था मानो जैसे पतझड़ में पत्तों से पट जाती है राहे कुछ ऐसे ही ये शहर काव्या की खुशबु से लिपा हुआ था...किसी हल की माफ़िक एक सवाल अब भी उसके जेहन को कुरेदे जा रही थी....आखिर क्यों.....क्यों यूँ.....

और शायद वो जवाब जब्त था कही..उस डायरी में..हाँ काव्या ही दे सकती थी जवाब इस बात का...

रात के अँधेरों के बीच वो नन्हा स्टडी लैंप पूरी मजबूती के साथ खड़ा था..और रौशनी से नहाए वही अदाओं से इठलाते हर्फ़...एक बार फिर चमक रहे थे...

आकाश...कल तक तो मुझे मेरे ख्वाबों का आसमान सा लगता था..और आज देखो..कितना बदल गया है न...यूँ जैसे दिन ढलने के साथ आसमान का रंग बदल जाता है..रौशन जगमग निलयी से स्याह...कुछ ऐसे ही तो आकाश भी..जिसे मेरी नादानियों मेरी बच्चों सी हरकतों से ही प्यार था...वो आज..उनसे ही परेशान हो गया है...अब तो बस..मैं भी हार गयी हूँ...उसका मन भर गया है क्या...मुझसे...आज कुछ 6 महीने बाद तो उसे यूँ कॉल किया था..पर वो तो अब भी...चला गया है वो..जानती हूँ ..मानती क्यों नहीं...इतना आसान कैसे...कैसे होता है इतना आसान किसी से प्यार करना और फिर..यूँ चले जाना जैसे कुछ हो ही न... ये बूँदें बारिश की अब..जलाने लगी है...क्या वो आ नहीं सकता...ये जो अंदर ही अंदर जल रही हूँ मैं..जो उसके साँसों की इक फूँक मिल जाऐ तो..सब बुझ जाऐगा...सारी तपिश..सारी जलन से निजात मिल जाएगी मुझे...पर वो...नहीं आऐ गा...वो....बुझाना पसंद ही कब था उसे...वो तो सिगरेट सुलगाता था...बुझाती तो मैं......अब जो ख़ुद  जल रही हूँ तो...

खलिशें तपिश सी लगती है..
ये खलाऐं बड़ी खलती है..

फूँक ही जा साबुत मुझे..
बुझाने की आरजू नहीं तो..
के यूँ घुट घुट कर ज़िन्दगी...
न जलती है..न चलती है...

काव्या के दर्द ने उसे भी अपने आगोश में ले लिया था..आँसू रुखसारों से उतर गिरेबाँ  में गुम हो रहे थे..इतना मजबूत इंस्पेक्टर आज..यूँ...आज उँगलियाँ रुकने का नाम नहीं ले रही थी...पूरा जी लेना था आज काव्या को...पन्ने पलटते रहे...

प्यार...क्या है ये बला...इक तरफ तो..आकाश और दूसरी तरफ ये साहिल.... बेकार ही इससे थोड़ी बात कर ली ये तो बिलकुल पागल ही हो गया है मेरे लिए..क्या इसको प्यार कहते है..यूँ इसका धमकाना नहीं शादी की तो जान दे दूँगा...मैं भी तो आकाश से इतना प्यार करती हूँ...पर मैंने तो ऐसा नहीं कहा कभी..इसकी वजह से ही तो दिल्ली आई थी ..यहाँ भी..अब तो कुछ एक साल हो गऐ ..उसे तो पता भी नहीं की मैं यहाँ हूँ...अब ये अपना गाज़ियाबाद का नंबर ही बदल दूँगी..इस उम्मीद में रखा था की शायद..आकाश कभी...पर शायद सब बेकार है...वो कभी भी नहीं..कितना अजीब है न ये इश्क़ भी..ह्ह्ह्ह..जिसे हमारी परवाह नहीं उसके लिए इतनी बेचैन हूँ..और जो मरने को तैयार है..उसके लिए....

सुबह हो चुकी थी...अब स्टेशन जाना था...

"सर एक एहम बात पता चली है..उस सौम्या शर्मा के केस में..उसके आत्महत्या के ठीक एक सप्ताह पहले किसी साहिल नाम के लड़के ने उसके ऑफिस में आकर बड़ा हंगामा किया था..उसने धमकी भी दी थी शादी कर ले..नहीं तो...जो मेरी नहीं वो किसी की नहीं..ऐसा कहा था उसने.....सर हो सकता है की उसी ने..."

हाँ वो सही था..बस..यही तो था वो..जिसने उसकी काव्या को...हाँ..उसकी काव्या...अब नहीं..अब नहीं छोड़ेगा उसे...हाँ उसे लग ही रहा था...आखिर काव्या क्यों करेगी ऐसा...आज उसकी जीप पूरी रफ़्तार में थी...सड़क किनार के पेड़ दौड़े जा रहे थे...रास्ते भाग रहे थे...साहिल को शक के बिनाह पे हिरासत में ले लिया...पर सबूत...सबूत....तो चाहिए न..उसके बिना कैसे कुछ कर सकता है वो..सबूत शायद उसकी डायरी में...कुछ लिखा हो...हाँ....

पन्ने बेतरतीबी में उलट रहे थे...आज पहली बार राठौड़ नहीं..बल्कि एक इंस्पेक्टर डायरी पलट रहा था..सबूत चाहिए थे...सबूत...साहिल...क्या लिखा है और उसके बारे  में....अचानक यूँ लगा काव्या ने बाहें थाम ली उसकी...अब वो ठहर सा गया था..

बस...अब बस...अब और नहीं जीना..मन भर गया है अब...कोई नहीं जानता मुझे कोई नहीं पहचानता...सब बस सौम्या को जानते है..पर इस काव्या का क्या...हाँ यही तो हूँ मैं..मेरी असलियत...कहाँ किसी को परवाह है...यूँ बेवजह जीना भी क्यों...हम सब किसी मकसद के साथ ही यहाँ आते है...कुछ ख्वाहिशें और आरज़ुओं के संग जीते है..और फिर जब सब ख़त्म ही जाए तो...क्या करूँ  मैं...और कैसे.....और फिर क्यों...ये रस्सी का फंदा यूँ लग रहा है मानो मुझे खींच रहा हो अपनी तरफ...मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं...सब अपने जगह सही है...और मैं...मैं भी तो सही हूँ...हाँ...यूँ कब तक इक कोरे पन्ने सी पड़ी रहूँगी...वक़्त आ गया है जो इसपे अलविदा लिख दूँ....कल जाकर ये सारे पन्ने और ये डायरी लॉकर में डाल दूँगी...हाँ आखिर मेरी विरासत यही तो है...ये पन्ने...इनको अपने दर्द से सींचा है और इनपे अलफ़ाज़ उगाए है...कोई है भी तो नहीं अपना जिनको सौंप जाऊँ ...जो कोई होता तो सहेज कर रखता.....

वक़्त –ऐ -रुखसत बस इतना ही कहूँगी.......

मुझे दिल में अफ़साने सा रखना...
सुना है कहानियाँ अमर होती है....

अलविदा...........

काव्या.......जा चुकी थी...कौन है जिम्मेदार....उसके पापा...उसकी माँ के जाने की वजह ...जिसने कभी उसे बेटी का प्यार नहीं दिया...आकाश जिसने उसके दिल में प्यार की उम्मीद जगा मुँह मोड़ लिया...या..साहिल जिसने उसे इतना परेशान किया की वो सुक़ून से रह ही नहीं पायी...या फिर......वो ख़ुद ....शायद वो थी ही नहीं इस जहाँ की इसलिए तो यहाँ रह नहीं पाई...चली गई  वो....पर..नहीं..काव्या कही जा नहीं सकती...उसे अब कोई मिल गया था सहेज कर रखने वाला...

राठौड़ ने अपना घर छोड़ दिया..उसने काव्या का फ्लैट खरीद लिया...दीवार पे उसकी तस्वीरों के साथ..लगी थी अब.. कुछ सफहें...और उनपे चमकते वही अदाओ से इठलाते हर्फ़....अब राठौड़ और काव्या दोनों की तन्हाई ने एक दूसरे का कत्ल कर दिया था...हाँ अब वो दोनों साथ थे....

इधर...

राठौड़ के घर की सफाई हो रहे थी...वो एक पन्ना जो उसकी नजर बचा कर पलंग के नीचे चला गया था..उसे उठा कर सफाई करने वालों  ने कचड़े के डब्बे में डाल दिया..और जब उस डब्बे को बाहर सड़क पे उल्टा तो फिर..धूप के रेशे में चमक उठे वही...गोल घुमावदार  अदाओ से इठलाते हर्फ़.....

"सफ़हों के दायरों में सिमटी ज़िन्दगी..
शख्सियत मेरी ज़ब्त इन हर्फो में कहीं ..

जुस्तजू-ऐ-आगोश-ऐ-सुकूँ में भटकती..
लम्स-ऐ-स्याही में देखो कैसे  हूँ घुलती..

सफ़र-ऐ-ज़िन्दगी मुक़म्मल  हो यूँ ही...
ठहर जाऊँ जिस मोड़ मंजिल हो वही..

मैं इक अफ़साना हूँ...मेरी कोई उम्र नहीं...
जो गुज़र भी गयी तो..बीतूँगी नहीं कभी..."

 


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