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मफ़लर

मफ़लर

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सुबह-सुबह बेशिन के नल से निकली पानी की धार ने जब साँवली उंगलियों को छुआ तो लगा चाकू की नोक चीरते हुए निकल गयी।

सुन्न पड़ती उंगुलियाँ मानो लटक गयी हों। 'इस बार माघ का जाड़ सही के चिल्ला जाड़ है ..पाथर तक काँप जाई' सोचते हुए कँपकँपाकर और झिल्ला हो चले शाल में लिपटी रामप्यारी ने कड़ाही को मलना शुरू ही किया था कि कान में अंगार उड़ेलती आवाज़ गूंजी, "ठीक से मलना चिकनाई रह जाती है।"

ये हीटर में सामने रजाई में घुसकर टीवी देखती मेम साहब थीं 'दहिजरा के चो..' बुदबुदाते हुए रामप्यारी अपनी खुरदुरी हथेली को जोर देकर फिराने लगी।

'मंगल ठीक ठाक कमा रहा होता तो ऐसी नकचढ़ी गोल मटोल बोरी को दूसरे दिन ही दो की जगह चार बोलकर काम छोड़ देती, लेकिन मंगल अब तो जब तब बीमार रहने लगा है। महीने में १० दिन भी बनी मजूरी कमा ले तो बहुत समझो।'

सोचते हुए रामप्यारी को मंगल की दौरे वाली खाँसी की आवाज़ ख्याल में सुनाई दी। 'और कहीं से नहीं बस गले और छाती से ठंड घुस जाती है। '

मंगल हर दफे खाँसते हुए कहता है। बर्तन मलकर राम प्यारी जब जी कड़ा करके नंगे पाँव बर्फ सी टाइल्स पर ठंडा पोंछा मार रही थी तब रह रह कर ठंड उसके भीतर करंट की तरह दौड़ जाती थी लेकिन रह-रह कर रामप्यारी की आँखों में मंगल की सूरत कौंध जाती थी जो सड़क के किनारे गले और छाती में चादर लपेटे धूप में बैठा खाँस रहा होता और उसकी आँख खाँसी के ठसके पर निकल आती।

जब खाँसी का दौरा सहन से बाहर हो जाता तो रामप्यारी सब काम छोड़ पीठ मलने लगती और ये जादू की तरह असर करता..खाँसी थम जाती। मंगल रामप्यारी को ऐसे देखता कि रामप्यारी शरमा जाती।

'खाँसते-खाँसते इस ठंड में मर ही ना जाये कहीं' राम प्यारी अपने आप में बुदबुदाते हुए बालकनी में आ गयी।

बालकनी में फर्श पर चितकबरे रंग का ऊनी मफलर फर्श पर पड़ा था।

रामप्यारी ने मफलर हाथ में लिया तो हाथ गरमा गया...आग सेंकने पर जैसे हाथ को लगता है..वैसे लगा।

'मंगल के गले में डाल दो तो ठंड और खाँसी दोनों छू..' सोचते हुए रामप्यारी ने उसे तह किया।

लेकिन ये है किसका ? बाई के पास कभी देखा नहीं ? साहब तो भोपाल रहते हैं .. फिर यहाँ बालकनी में ये कैसे आया ?

बहुत से सवाल करंट की तरह रामप्यारी के भीतर दौड़ गये।

'बाई कहीं साहब के पीठ पीछे गुल तो नहीं खिला रही..' रामप्यारी ने इस बार मन ही मन सवाल नहीं किया ..मन ही मन समाधान भी कर डाला।

'पूछूँगी तो बाई बुरा मान जायेगी..और मफलर घर में काम किसके आएगा ?'

रामप्यारी ने खुद से सवाल किया और खुद को जवाब देते हुए मफलर को अपने शाल के नीचे छिपा लिया।

काम खतम कर रामप्यारी तेज़ कदमो से निकली।

तीन बाकी के घर छिपे मफलर की गर्मी से ऐसे निपटाये मानो माघ नहीं जेठ का महीना हो।

सब घरों का काम समेट कर रामप्यारी हुलसते कदमों से अपने घर वापस जा रही थी।

ख्यालों में मंगल था जिसे वह अपने हाथ से गले में मफलर पहना रही है और उसकी खाँसी उड़न छू हो गयी है।

वह फिर ऐसी नज़रों से रामप्यारी को निहार रहा है कि रामप्यारी शरमा कर अपने में सिमटी जा रही है।

सोचते-सोचते रामप्यारी ने मफलर को शाल के नीचे से निकाल कर हाथ में ले लिया और रुक कर उसे देखने लगी।

मंगल को क्या कहकर देगी इसे ?

'कह दूँगी सड़क में गिरा मिला 'रामप्यारी ने खुद को समझाया।

तब तो मंगल इसे कभी नहीं लेगा ...फेंक देगा ..याद नहीं एक बार गुजराती बाई ने अपने साहब का कोट दिया था। रामप्यारी जब घर लेकर आई तो मंगल मारने दौड़ पड़ा था..दाँत पीसता हुआ..

'हरामजादी हम भिखारी हैं जो ये भीख उठा लाई ..अरे अपनी कमाई का खायेंगे भले सूखा खायेंगे।'

रामप्यारी के भीतर कई आवाज़े ..कई चित्र एक साथ नाचने लगे।

जब बियाह कर आई थी तो सास ने समझाया था.. ' तेरा भतार बहुत पानीदार है ..ऐसी वैसी कोई बात ना कर देना 'रामप्यारी ने बियाह के कुछ दिन बाद ही मंगल का पानी देख लिया था। मंगल जहाँ फेक्ट्री में चौकीदारी करता था, वहाँ साहब ने जरा गाली क्या दे दी थी ..मंगल उसे मारने दौड़ पड़ा था।

नौकरी से बर्खास्त होकर आया तो मिठाई लेकर आया था।

'ले खा आज इज्जत के लिए कुर्बानी दी है।' मिठाई खिलाते हुए बोला था।

'सहना सीखा होता तो आज नौकरी पक्की होती .. लेकिन ये तो अपनी अकड़ ही में सेंत का सिकन्दर बना बैठा है।'

मन ही मन बतियाते रामप्यारी साई मंदिर तक आ पहुँची।

चितकबरा मफ़लर हाथों में अठखेलियाँ कर रहा था।

सामने कतार से भिखारी ठंड में ठिठुरते बैठे थे। अचानक राम प्यारी के हाथ से चितकबरा ऊनी मफलर उछला और एक भिखारी की गर्दन में जा पड़ा।

पहले तो ना भिखारी को कुछ समझ आया ना रामप्यारी को। थोड़ी देर बाद भिखारी ने आदतन दुआ की।

रामप्यारी तब तक आगे बढ़ चुकी थी। उसकी रफ़्तार दुगनी थी। आँखों के आगे खाँसी के दौरे से हलाकान मंगल की तस्वीर नाच रही थी।

रामप्यारी की खुरदुरी गरम हथेली उसकी पीठ पर मचलने को मचल रही थी।


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