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Sunny Kumar

Inspirational

1.5  

Sunny Kumar

Inspirational

ओ माई री

ओ माई री

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स्कूल की शुरूआती क्लासों को छोड़कर, वो भी रोज़ाना नहीं- मैं कभी टिप्पन नहीं ले गया. क्योंकि स्कूल दोपहर का था तो सुबह चाय-मट्ठी-फैन इतना ठूस लेते थे कि खाने की कोई ख़ास चिंता रहती नहीं थी. मिल गया तो ठीक, नहीं मिला तो ठीक.

लेकिन वो टाइम ऐसा था जब दूसरों को खाते हुए देखकर भूख लग जाती थी. और वो वक़्त होता था आधी छुट्टी का, और जगह होती थी हमारा स्कूल का गेट. जहां गेट के हर हिस्से पे एक से एक खाने की चीज़ मिलती थी. जहां से हमारा आना-जाना होता था, गेट के उस हिस्से पे एक लड़का खड़ा होता था, जिसका नाम मुझे याद नहीं. और शायद ही उसे किसी ने कभी नाम से पुकारा हो. जिससे लड़के उधार खा के पैसे नहीं दिया करते थे. पैसे याद दिलाने पर हड़काते थे, और पीटते थे अलग. उसने एक कान में पीतल, तांबे या सोने की पतली-सी तार पहने हुए थी. शायद वो राजस्थानी था. वो सूखे छोले और कुलचे बेचता था. उस समय एक कुलचा दो रुपये का आता था. जिसपे वो सूखे हुए तैयार छोले रखता और रोल की तरह लपेटकर बच्चों के हाथों में थमा देता.

इसके बगल में खड़ा होता था इसका सबसे बड़ा प्रतिद्वंदी 'सोनू छोले वाला'. उसके पास तरीदार छोले मिलते थे और परांठे. ये ऑप्शन होने के कारण जब लड़के उस राजस्थानी के छोले-कुलचों से अघा जाते तो इसके पास शिफ्ट हो जाते थे. और इसके साथ लगकर एक रेहड़ी और भी खड़ी होती थी. जिसपे मूली और गाजर, निम्बू निचोड़ के मिला करते थे. ये जगह मौसम के हिसाब से बदलती रहती थी. यहां गर्मियों में आइसक्रीम वाला आ जाता था. एक रेहड़ी और थी जिसके आधे कटे ब्रेड पकौड़े खूब दबा के बिकते थे. अब आ जाइए गेट के इस तरफ आखिरी छोर पर, जहां दीवार से सटकर बैठती है माई. माई की टोकरी भरी हुई है दुनिया-जहान की तमाम खट्ठी-मिट्ठी और रंग-बिरंगी चीज़ों से. जिसमें हमारी सबसे हिट आइटम नमक लगी इमली होती थी, जो कागज़ से लिपटी होती थी. जिसे हम कटारे भी कहते थे. लेकिन छीनाझपटी कटारे से चिपटी हुई लकड़ी के लिए होती थी. जो ज़ाहिर है ज़्यादातर बार खरीदने वाले के हिस्से में जाती थी. साला मुंह में पानी आ गया. पर इससे आप ये न समझें कि कटारे की महिमा इससे ज़रा भी कम पड़ती थी. कटारे खाने के बाद, उसके बीज खाली पीरियड  में एक-दूसरे की टांट पे मारने के काम आते थे . फिर एक छोटी-छोटी लाल बर्फी भी हुआ करती थी, मूंगफली के टुकड़े वाली और खाने में नर्म. एक सख्त बर्फी भी आती थी पीले रंग की, जिसे काटने के लिए दांतों से ज़ोर लगाना पड़ता था. लेकिन खाने में वो भी मज़ेदार लगती थी. ये बर्फियां माई के बाद कही खाने को नहीं मिली, न किसी दूकान पे बिकते हुए देखी. इलायची वाली टॉफियां भी होती थी इस टोकरी में, जो पच्चीस पैसे की एक आती थी. माई की उस टोकरी में फल भी होते थे. जैसे, अमरुद, अमरक और संतरा. जिसे माई चक्कू की मदद से बड़े क़रीने से काटती और नमक लगाकर देती. और तो और किसम-किसम के चूरन और नमकीनें भी. हमारे लिए तो सब कुछ था माई की टोकरी में. वो सब चीज़ें थीं जिनकी तलब उस बचपन में थी हम को. जिस तरह हमने माई की टोकरी चखी, उसी तरह माई की टोकरी ने हम सबका थोड़ा-थोड़ा बचपन चख रखा है. 

माई साठ से क्या कम होगी. उसके चेहरे पे झुर्रियां थीं, और सीधे पैर में चाँदी का चमचमाता हुआ कड़ा. जो उसपे खूब फबता था. माई जब अपनी साड़ी का किनारा अपने घुटनों पे रखती तब वो कड़ा अपनी पूरी ख़ूबसूरती लिए हुए नज़र आता.

माई की दुकान उस आधी छुट्टी में बड़े ज़ोर-शोर से चला करती थी. बच्चे छत्ते की तरह माई और उसकी टोकरी को छेके रहते थे. लेकिन इस भीड़ का फायदा उठाकर, माई की दुकानदारी में बट्टा लगाने वाले भी पैदा हो गए थे. और जिसके लिए ज़्यादा दूर जाने की ज़रूरत नहीं थी. एक तो हमारी मंडली में ही था. गुलशन नाम था उसका. प्यार से उसे हम चरसी बुलाते थे. वो क्या करता था कि जैसे ही माई की टोकरी पे बच्चों की भीड़ टूटती और वो सारे जब अपनी-अपनी अठन्नियाँ, रुपे-दो रुपए हाथों में लिए माई मेरेको दे... मुझे कटारे दे दे... माई एक की नमकीन... माई अठन्नी की बर्फी... अरे पीली वाली नहीं... लाल वाली माई.. चिल्लाना शुरू करते, गुलशन फट से घुस जाता अपना करतब दिखाने के लिए. उस धक्कमधक्के में वो अपना एक हाथ गेट से बाहर निकलता और चिल्लाना शुरू कर देता- माई दो के कटारे दे दे... एक की टॉफियां... ऐ माई, जल्दी कर न... और दो रुपए वापस कर दे. इस तरह गुलशन माई से चीज़ और पैसे दोनों उड़ा लाता. पैसे वो अंटी कर लेता, बाक़ी चीज़ में तो हम मुंह मार ही लेते थे.

लेकिन ये अय्याशी ज़्यादा दिनों तक न चल सकी, और माई भाप चुकी थी कि उसके साथ कुछ तो गड़बड़ चल रही है. आखिर माई, माई है. कब तक हम जैसे बच्चों से लुटती रहती. और ये बात हमारे सामने तब साफ़ हुई, जब एक दोस्त शायद विनोद, जिसे हम मुठ्ठल कहा करते थे. ये उसकी हरकतों का नाम था. वो हमारे पास मुंह लटकाये हुए आया. हम गेट से सटे झुके हुए कीकर के पेड़ पे बैठे हुए थे. क्या हुआ - हमने पूछा. यार.. मैंने माई को पांच रुपए दिए, माई ने चीज़ नहीं दी... गालियां दी. मेरे पूरे पांच रुपए ठग लिए..!

हमने हँसते हुए बताया कि ऐसा चरसी की वजह से हुआ है. चरसी भी दांत फाड़-फाड़के हंसने लगा. मुठ्ठल की किलस गयी और मुठ्ठल ने चरसी को पेट भर के गालियां दी. इस बीच चरसी को पता नहीं क्या सूझा कि उसने मुठ्ठल से कहा- आ दिलाता हूँ तुझे चीज़... रुक पहले थोड़ी भीड़ होने दे. और जैसे ही भीड़ बढ़ी. वो अपने उसी चिर-परिचित अंदाज़ में घुसकर रोब से चिल्लाने लगा- ओये माई, दो के कटारे दे... एक की टॉफी... एक की नमकीन... और एक रुपे वापस कर जल्दी. चल   भाग जा यहां से.. माई को निरा बेकूफ समझा  है -माई आँखे तरेरकर और चाकू चलाकर गुलशन की तरफ झपटी. अरे माई तो पागल होगी.. पागल... कहकर गुलशन उलटे पाँव वहाँ से दौड़ा.  

 

 


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