दिखाई तो दे लेकिन सुनाई ना दे
दिखाई तो दे लेकिन सुनाई ना दे
कुछ अजीब सी बात है, जी हाँ, लेकिन यही नाम है मेरी इस कहानी का। आज भी हमारे देश में अधिकतर परिवार ऐसे हैं जिनमें सास और ससुर यही अपेक्षा रखते हैं कि उनकी बहू “दिखाई तो दे लेकिन सुनाई ना दे”। बहू सुबह से शाम तक जी हूज़ूरी करे, हर बात में उनकी हाँ में हाँ मिलाये, हमेशा उनकी आँखों के सामने रहे लेकिन कभी मुंह ना खोले। यहाँ कभी मुंह ना खोलने का मतलब सिर्फ पलटकर जवाब ना देने तक सीमित नहीं है बल्कि सास ससुर की हुकूमत को किसी भी प्रकार की चुनौती ना मिले। सास ससुर का प्रभुत्व बरकरार रहे।
राजस्थान राज्य के भरतपुर शहर में ऐसा ही एक परिवार था। परिवार में श्री लाला रामजी, उनकी पत्नी दाखा देवी, घर का होनहार बेटा सुरेश और उनकी बेटी पायल रहते थे। सुरेश ने मैकेनिकल इंजीनीयरिंग की पढ़ाई पूरी करने के बाद, बेंगलोर में नौकरी जॉइन कर ली। पायल अभी कॉलेज में ही थी और उसके स्नातक होने में १ साल बाकी था। बेटे की नौकरी लगते ही लाला रामजी और उनकी पत्नी बहू का सपना देखने लगे थे। उन्होने सुरेश से भी इसकी चर्चा की थी। उसको इससे कोई आपत्ति नहीं थी।
लाला रामजी और उनकी पत्नी दाखा देवी ने अपने सभी संबंधी, रिश्तेदार, जान पहचान वाले और दोस्तों को इसकी जानकारी दे दी थी कि वो लोग सुरेश के लिये लड़की ढूंढ रहे हैं। जहां-२ से सुरेश के बारे में जानकारी मांगी जाती, लाला राम जी सुरेश का एक संछिप्त विवरण और उसके कुछ फोटो भेज देते। इस सबमें २ से ३ महीने का समय लग गया। अब लाला रामजी के पास ५-६ अच्छे प्रस्ताव इकट्ठे हो गये थे। दो हफ्ते के बाद सुरेश भी दिवाली की छुट्टियों में घर आ रहा था। लाला रामजी और उनकी पत्नी दोनों ही सोच सोचकर खुश थे। अगर सब कुछ ठीक ठाक चला तो सर्दियों में सुरेश की शादी कर देंगे।
सुरेश के घर आते ही सभी प्रस्तावों पर गहन विचार हुआ और उनमें से २ प्रस्तावों पर पूरे परिवार की सहमति बनी। अगले २ दिनों में दोनों परिवारों से मिलकर दोनों लड़कियां भी देख ली गई। सुरेश को दोनों प्रस्ताव ठीक लगे और अंतिम निर्णय अपने माता पिता पर छोड़कर वापिस बेंगलोर चला गया। अगले कुछ दिन, दोनों प्रस्तावों पर लाला राम और उनकी पत्नी के बीच काफी विचार विमर्श हुआ। निधि और सलोनी के परिवारों में ज्यादा फर्क नहीं था। दोनों परिवार व्यवसायी, समृद्ध, सुशिक्षित, अपनी जात पांत वाले और भले से लोग थे। लेकिन ऊपरी तौर पर दोनों में एक फर्क साफ दिखाई देता था। निधि का परिवार खुले विचारों वाला था। परिवार का हर सदस्य खुलकर अपनी बात कहता था। उनकी लड़की निधि भी खूब बोलती थी। निधि ने तो सुरेश से भी अकेले में घंटे भर तक बातें की थी।
सलोनी के परिवार में उसके माता पिता को छोडकर कोई और नहीं बोल रहा था। खाने पीने की बात छोडकर माँ भी कुछ नहीं बोली थी। सलोनी से भी जितना पूछा गया, बस उसी का जवाब दिया था। सलोनी का भाई तो बस सुरेश से हाथ मिलाकर ही चला गया था। इसके अलावा ज़्यादातर बातचीत उसके पिताजी ने ही की थी। ऐसा लगता था, इतनी पढ़ी लिखी होने के बावजूद भी सलोनी को चुप रहना ज्यादा पसंद था। आखिरकार पहला निर्णय लाला रामजी ने दिया। उनको निधि के बजाय सलोनी ज्यादा ठीक लगी। दाखा देवी ने भी उनकी हाँ में हाँ मिलाई। बहुत पहले से ही दोनों इस बात पर एक मत थे कि बहू ऐसी हो जो “दिखाई तो दे लेकिन सुनाई ना दे”। दोनों को ही घर में बोलने वाली लड़की नहीं चाहिये थी। सुरेश की सहमति लेकर, लाला रामजी ने चाँदनी के साथ उसका रिश्ता पक्का कर दिया।
दिसम्बर के पहले सप्ताह में सुरेश और सलोनी का विवाह धूमधाम से सम्पन्न हो गया। सलोनी का अभी बेंगलोर जाना संभव नहीं था। सुरेश को परिवार के रहन सहन के हिसाब से दूसरा घर लेकर कुछ जरूरी सामान भी जुटाना था। पिता और पुत्र के बीच इस बात पर सहमति बनी कि अभी सलोनी १-२ महीने यहीं सास और ससुर के साथ रहेगी। सुरेश के जाने के बाद, सलोनी का अपनी हमउम्र ननद पायल के साथ ज्यादा वक़्त गुजरता था। इससे दोनों काफी घुल मिल गयी। सलोनी की तरह ही पायल भी एक समझदार और सुलझी हुई लड़की थी। दोनों हर विषय पर खुलकर चर्चा करती थी, लेकिन अपने कमरे के अंदर ।
सुरेश के जाते ही, दाखा देवी ने अपनी सासूगिरी दिखाना शुरू कर दिया था। वो सलोनी के रहन सहन, पहनावा, खान पान, घूमना फिरना, मिलना जुलना यानि हर चीज में अपनी दखलंदाजी रखती थी। अचानक से सलोनी की आज़ादी पर पहरा लग गया था। वो अपनी नयी ज़िंदगी से सामंजस्य नहीं बैठा पा रही थी। सलोनी ने इस बात का जिक्र सुरेश से किया लेकिन उसने १ महीने की बात कहकर टाल दिया। धीरे धीरे सास और ससुर ने घर के काम काज का सारा जिम्मा सलोनी पर डाल दिया। साथ ही उसे अपने मन पसंद का कुछ भी करने को दोनों की अनुमति लेनी पड़ती थी। एक महीने में, सलोनी की ज़िंदगी बिल्कुल बदल गयी थी या यूँ कहें कि सास ससुर के साथ रहना दूभर हो गया था ।
अपनी आज़ादी पर लगे पहरे का, सलोनी ने एक दो बार विरोध किया और सासू माँ को समझाना चाहा, लेकिन नयी सासू माँ के कान पर जूँ तक नहीं रेंगी। उल्टे सासू माँ ने सलोनी को डांट कर चुप करा दिया। सास के ऐसे सत्तावादी व्यवहार से दोनों के रिश्ते में दरार पड़ने लगी थी। दो महीने बाद, सुरेश सलोनी को बेंगलोर ले आया। दोनों ही बहुत खुश थे। ज़िंदगी फिर एक बार पटरी पर लौटने लगी थी। कुछ दिन की मौज मस्ती के बाद, सलोनी ने भी नौकरी कर ली। ज़िंदगी हंसी खुशी मस्ती में चल रही थी ।
धीरे धीरे एक साल बीत गया। पायल की पढ़ाई पूरी हो गयी। लाला रामजी और उनकी पत्नी, पायल का रिश्ता ढूँढने में पहले से ही प्रयासरत थे। किस्मत अच्छी थी, समय से रिश्ता मिल गया। बेंगलोर में एक छोटा सा परिवार था। परिवार में रिटायर्ड पिता, माता और उनका बेटा नकुल थे। नकुल बेंगलोर में ही काम करता था। इस रिश्ते से सभी लोग संतुष्ट थे, खासकर पायल बहुत खुश थी। लाला रामजी ने बिना देरी लगाये, पायल और नकुल की शादी कर दी। बेटा और बेटी दोनों के एक ही जगह होने से, लाला रामजी और दाखा देवी का बेंगलोर आना बढ़ गया था। अब तो दोनों कभी कभी ३-४ हफ्ते तक भी ठहर जाते थे। बहू के घर में भी सासू माँ ने अपना सत्तावादी व्यवहार जारी रखा। उनकी निरंतर दखलंदाजी और टोका टोकी से घर का माहौल बिगड़ गया था। सासू माँ खुद तो घर का कोई काम करती नहीं थी और साथ ही उन्हें अपने बेटे सुरेश का घर के काम में हाथ बँटाना भी बिल्कुल अच्छा नहीं लगता था। उनकी अपेक्षा थी कि सलोनी ऑफिस के काम के साथ साथ घर के सारे काम की भी ज़िम्मेदारी ले ।
एक दिन शाम, सुरेश देरी से घर आया। उसके आने के बाद सबने साथ खाना खाया। देरी से आने के बावजूद भी, खाने के बाद सुरेश ने रसोई का सारा काम खत्म किया। सासू माँ को सुरेश का रसोई में काम करना, खासकर खाने के बर्तन साफ करना कतई पसंद नहीं आया और उन्होने मगरमच्छ के आँसू बहाना शुरू कर दिया। सुरेश ने माँ को बहुत समझाया कि हम दोनों ही नौकरी करते हैं और दोनों ही थके हारे घर लौटते हैं। ऐसे में, मैं सारा काम अकेली सलोनी पर कैसे छोड़ सकता हूँ ? लेकिन, सासू माँ कुछ भी सोचने समझने को तैयार नहीं थी। उनकी इकतरफा सोच ने घर में कोहराम मचा दिया ।
अगले दिन शनिवार यानि छुट्टी का दिन था। आज पायल भी अपने माता पिता और भाई भाभी से मिलने आ रही थी। सुबह जैसे ही सलोनी सासूजी से मिली, सबसे पहले उसने रात के लिये माफी मांगी। साथ ही उसने भी सासूजी से बात करने की कोशिश की। लेकिन सासूजी कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थी। उन्होने उल्टे बहू को डांट दिया और बोली, “अब तुम हमको समझाओगी कि क्या सही है और क्या गलत”। हमारे घरों में बहू अपना मुंह बंद रखती हैं। मुझे अकेला छोड़ दो और जाओ सबके लिये नाश्ता तैयार करो ।
थोड़ी देर बाद ही पायल आ पहुंची। मिलने जुलने के बाद सबने नाश्ता किया। उसके बाद सलोनी अपना काम समेटने रसोई में चली गयी। पायल अपने माता, पिता और सुरेश से बातें करने बैठ गयी। थोड़ी बहुत इधर उधर की बातों के बाद, पायल ने बताया कि उसकी ऑफिस की ८ से १० घंटे की नौकरी और रास्ते का ट्रैफिक काफी थका देने वाले होते हैं। इसीलिये काम वाले दिन मैं और नकुल शाम का रसोई का काम मिलजुलकर करते हैं। उसके अलावा शनिवार, रविवार या और किसी छुट्टी के दिन, रसोई का काम मैं अकेले ही संभालती हूँ। मम्मीजी और पापाजी ठीक हैं लेकिन शारीरिक काम ज्यादा नहीं कर पाते। वैसे दोनों ही मेरा बहुत ध्यान रखते है। घर की हर बात में मेरी सलाह लेते रहते हैं। घर का माहौल बहुत खुशनुमा है। लाला रामजी और दाखा देवी अपनी बेटी की बातें सुनकर बहुत खुश थे। उन्होने ये बात पायल से खुलकर कही भी ।
सुरेश, पायल की हर बात, बहुत गौर से सुन रहा था। सब कुछ सुनने के बाद, सुरेश अपने माता पिता से बोला, अपने घर में ऐसा माहौल क्यों नहीं है ?
हम सब लोग मिल-जुल कर क्यों नहीं रह सकते ?
हम सब वक़्त के साथ क्यों नहीं बदल सकते ?
माँ, कल रात को मेरे बर्तन साफ करने में क्या गलत था ?
आज सुबह सलोनी का आपको समझाने में क्या गलत था ?
आप आज जिन बातों को अपनी बेटी के घर में सही मान रही हैं, उन्हीं बातों को अपने घर में गलत ठहरा रही हैं। माँ, ये बहू और बेटी में फर्क क्यों ?
आप लोग आज भी बहू के लिये “दिखाई तो दे लेकिन सुनाई ना दे” वाली परंपरा का अनुकरण क्यों कर रहे हैं ?
अगर आप चाहें तो अपने घर का माहौल भी बदल सकता है, खुशनुमा हो सकता है ।
चुप्पी साधे लाला रामजी सबकी बात ध्यान से सुन रहे थे। सुरेश की बातों ने उनको झकझोर कर रख दिया था। बहुत सोच विचार कर, अपनी चिरपरिचित गंभीर मुद्रा में लाला रामजी बोले, सुरेश की बात तो ठीक है। हमको समय के साथ बदलना चाहिये। हमको आजसे बल्कि यूँ कहो अभी से बदलने का प्रयास करना चाहिए। हम सबको मिल-जुल कर जीना चाहिए। और हाँ अब आगे से ‘बहू दिखाई भी दे और सुनाई भी दे”।