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एक और प्रेम योग

एक और प्रेम योग

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बिस्तर में पड़कर अधखुले नयनों  से खिड़की के बाहर प्रभात का अवलोकन कर रहा था, दुनियाँ की भागदौड़ शुरू हो चुकी थी, वाहनों का शोर, हॉर्न की आवाज़ बीच-बीच में कानो में गूँज जाती थी, फ़िर अंगड़ाई ली ऐसी कि जिसने सारी चादर को समेट दिया, दोनो हाथों को आँखो पर रगड़ा और बिस्तर पर बैठकर उँधते-उँधते घड़ी पर नज़र डाली दस बज रहे थे।

ऐसे तो ये सुबह एक सामान्य सुबह थी, हर रोज़ की तरह जैसे रोज़ की सुबह होती है। तो फ़िर खास क्या था। यकीकन कुछ तो खास था, लेकिन जिस वक्त हम जी रहे होते हैं उन पलों को पूर्णतया समझ पाना बहुत मुश्किल होता है, उन पलों के बीत जाने के बाद उनका प्रायोजन समझ में आता है। मेरी खिड़की पर आकर एक कौवा काँव-काँव बोलने लगा, ऐसे तो मैं अंधविश्वासों पर विश्वास नहीँ करता लेकिन न जाने क्यों उस दिन मुँह से निकल गया: कोई आयेगा क्या?

उस रोज़ मेरे घर तो कोई न आया, परंतु मन के एक कोने में आकर कोई इस कदर बैठा कि उसको बैठा मैने फ़िर दिल का दरवाज़ा बन्द कर दिया। 

तकिये के नीचे से मोबाइल निकाला, अन्तर्जाल से सम्पर्क स्थापित किया और संदेशों को पढ़ने लगा जो कि मेरे सोने के दौरान मुझे चेहरे की किताब और पारस्परिक सम्वाद पर प्राप्त हुये थे। उनमें कई अपरिचित लोग भी थे। मैने सभी न जानने वालों की प्रोफाइल विजिट किया तत्पश्चात जिसे ज़रूरी था उसे उत्तर दिया गया। एक सुंदर रमणी का चित्र लगे हुयी प्रोफाइल से एक संदेश आया था "हाय" उस हाय की हाय ने मुझे ऐसे डसा कि न चाहते हुये भी मैने हैलो लिखकर भेज दिया। पिछले दो साल से करीब मैने किसी भी रमणी से कोई बात न की थी। संदेश बहुतों के प्राप्त होते लेकिन मैने खुदको सांसारिक कार्यों मे उलझाये रखा। मैं हिन्दी कविता लिखना सीख रहा था, अब मैं पहले से कुछ बेहतर लिखने लगा था, साधना जारी थी, और बेहतर कुछ करने की। मैं अपनी मंज़िल तय कर चुका था। वहाँ पहुँचने से पहले रुकने का कोई नाम नहीँ था पीछे मुड़कर न देखने की कसम खायी थी और रमणीय चीजों से उचित दूरी बनाकर रखी थी। मानो मैं किसी जघन्य रोग से पीडित था। परंतु न जाने क्यों और किस कारण आज उचित दूरी की "दूरी" थोड़ी सी कम कर दी। 

मेरे हैलो लिखते ही उधर से जवाब आया "गुड मॉर्निंग"

फ़िर अगला सवाल: "क्या हो रहा है?"

मैं सोच में पड़ गया आखिर ये है कौन। लेकिन मैने जवाब बन्द न किये मैंने भी उसके प्रश्नों के जवाब कुछ विनोद करने के लिये देना शुरू किये और पुनः प्रोफाइल पे जाकर जानकारी हासिल करने की कोशिश करने लगा। मैने जवाब दिया "जी अभी तो अधखुले नयनो से प्रभात की सुंदरता का बिस्तर में पड़कर अवलोकन किया जा रहा है"।

"अरे! इतनी शुद्ध हिन्दी, बाप रे ईईईइ"

इस संदेश के साथ मैने देखा की रमणी जी की प्रोफाइल पर मेरे ही शहर का नाम लिखा हुआ था मुझे और रुचि उत्पन्न हो गयी। जैसे कुबेर के खज़ाने की चाबी मेरे हाथ लगी हो। सबकुछ तयशुदा सा लग रहा था। फ़िर भी मैं उलझा जा रहा था। ऐसा लग रहा था कि वो वही करवा रही है जो वो चाह रही थी। कुछ और प्रश्न हुये कुछ इधर से और कुछ उधर से कुल मिलाकर उनकी दी गयी जानकारी के अनुसार उन्होंने इसी साल बी.एड की पढ़ाई समाप्त की थी। अबकी बार मैने एक नया सवाल दाग दिया "घर कहा है आपका इस शहर में?"

"क्यों, घर आना है क्या" जवाब आया 

मैं झेंप गया, बुरी तरह। अपने बेइज्ज़ती सी लगी फ़िर भी झेंप मिटाने के लिये जवाब देना ज़रूरी था सो मैने दिया। "नहीँ आदरणीया जी घर तो हम बिना बुलाये किसी के नहीँ जाते और जो बुलायेगा वो पता भी बतायेगा। ऐसे ही पूछ लिया आपको गलत लगा तो उसके लिये माफ करें"

"माफ किया" जवाब मिला 

ये शब्द सुनकर मेरी दिलचस्पी में थोड़ी और वृद्धि हो गयी। धीरे-धीरे मुझे और रुचि उत्पन्न होती गयी और अपनी परकाष्ठा पर पहुँच गयी। मैं कोशिश करने लगा उन्हे रिझाने की और मेरी दो साल की तपस्या, उचित दूरी, आगे इम्तिहान पास कर पदोन्नति की ख्वाहिश जो कि पिछले तीन वर्ष से लंबित थी। सब जैसे एक झटके में और लम्बित होने को तैयार हो चुकी थी।

इतनी घनिष्टता बढ़ती जा रही थी। खाना भी बिन पूछे न खाया जाता। कार्यालय से कमरे तक आना या कमरे से कार्यालय जाना हो नज़र मोबाइल पर ही रहती। हँसता मुस्कुराता कभी-कभी कोई पत्थर मेरी इस मुस्कान से उदास होकर मुझे कष्ट भी दे देता था परंतु इस वक्त मुझे किसी की भी परवाह नहीँ थी। मैं पूर्णतः कल्पनाओ के सुखसागर में डूबता हुआ नज़र आ रहा था। वास्तविकता भी यही है। शायद प्रेम होता ही ऐसा है। मेरे मित्रों की कसी हुई वो फब्तियाँ मुझे याद आने लगी थी। "जिस दिन होगा पता चल जायेगा प्यार क्या होता है।" स्वामी विवेकानंद की प्रेमयोग पढ़ने के बाद मैं उन विचारो को प्रयोगात्मक रूप से आज़माने का मौका पा रहा था। ये वक्त बहुत हसीन बन चुका था। हम और करीब आ रहे थे और धीरे धीरे बहुत करीब आ गये। इस कहानी की सबसे अच्छी बात यह थी कि बेकरारी दोनो तरफ़ थी। मैं भी जलता था और वो भी मुझ बिन अँधेरे में रहती थी। मुझे इस वक्त ये एहसास हो रहा था कि इश्क वाकई बहुत खूबसूरत है। इश्क वाकई इक नशा है। इश्क वाकई एक समंदर है जो सारी ख्वाहिशों को अपने अंदर समेट कर बस एक ख्वाहिश देता है। वो भी सिर्फ इश्क की ख्वाहिश। रातों की नींद दिन का चैन तो सब गंवाते है। मैने तो अपने हर पल के सौँवे हिस्से तक को उसके साथ जोड़ दिया था। यूँ मानो कि उसके बिना मेरा वजूद ही समाप्त हो गया था ये सर्दी की स्याह काली रात भी बड़ी खूबसूरत होने लगी थी और गर्मी के पहाड़ से दिन राई से। सावन की बौछार जैसे आत्मा को शीतलता प्रदान करती थी पदोन्नति या कवि बनकर। लेखक बनकर नाम कमाने का सपना, सपना रह गया था और मेरे कमरे के किसी कोने में पड़ा धूल से अट गया था जो अब दिखाई देना भी बन्द हो गया था। परंतु इसके बावजूद भी मैं जी रहा था अपने जीवन का सर्वोत्तम, सर्वोत्कृष्ट, सर्वश्रेष्ठ,  सर्वानँदित, सर्वविदित थोड़ा और जी लूँ।


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