एक तस्वीर
एक तस्वीर
तब शाम के शायद 5 बजे थे | मैं दुकान से घर आया तो देखा की दरवाजे पर माँ किसी आदमी से बहस कर रही है | तभी मेरी नज़र बायें दरवाजे की तरफ पडे रद्दी सामान की तरफ गयी | शायद कबाड़ी वाले से कुछ मौल-भाव को लेकर बहस हो रही होगी, ये सोचकर मे घर के अंदर जाने लगा | रद्दी सामान के पास से निकलते हुए देखा की बहुत सारे अख़बारो के साथ कुछ मेरी पुरानी किताबे भी पड़ी थी | उन किताबो के एक तरफ रंग के खाली डिब्बो के सहारे एक तस्वीर थी | मैं रुका और देखा की कोई किताब मेरे काम की तो नही है और फिर उस तस्वीर को देखा | बहुत ही पुरानी सी, एक किनारे से टूटा काँच, लकड़ी की कमजोर फ्रेम वाली वो तस्वीर | ऐसा लग रहा था जेसे वो तस्वीर घूर रही हो मुझे, उस तस्वीर को कहीं देखा था, लेकिन याद नही कहाँ | उसे वहीं छोड़कर घर के अंदर पहुँचा और T.V. चालू की | तभी T.V. वाली दीवार के दाँयी तरफ एक खाली जगह दिखी, जहाँ से कुछ गायब था | वो ही तस्वीर जो मेने बाहर देखी | मैं दौड़ता हुआ बाहर गया और माँ से पूछ लिया की ये तस्वीर क्यों बेच रहे हो | माँ पलट के बोली की टूटे काँच वाली चीज़े घर मे नही रखते, अपशगुन होता है, और फिर रद्दी समान के मौल भाव मे व्यस्त हो गयी |
मैं चुपचाप घर के अंदर आ गया और T.V. देखने लग गया | लेकिन अब मेरी नज़र बार बार दीवार की उस खाली जगह पे जा रही थी | पहले जब वो तस्वीर वहाँ थी, तब कभी भी उस तरफ ध्यान ही नहीं गया | ऐसा लगता है जैसे वो तस्वीर उस दीवार का हिस्सा थी | वो तस्वीर आसपास की चीज़ों के साथ एसे घुलमिल गयी थी की कभी उसपे नज़र ही नही गयी | लेकिन आज जब वो तस्वीर वहाँ नहीं थी, तब बार बार नज़र उस खाली जगह की तरफ दौड़ रही थी, क्योंकि अब वहाँ कुछ कमी थी | जैसे कोई अपना जब दूर जाता है तभी उसकी कमी महसूस होती है, जब वो आसपास होता है तब उसकी अहमियत नही पता होती | मेरी पूरी शाम यही सोचते हुए निकल गयी |
शाम को जब पापा घर आये तो मेरे सबसे पहले सवाल यही थे की वो तस्वीर कौन लाया था?, कब लाया था?, क्यों लाया था? पहले तो पापा को समझा ही नहीं की किस तस्वीर की बात चल रही है, फिर जब माँ ने व्यंग से कहा, "पता नही दोनों बाप-बेटों को पुरानी चीज़ो से कितना लगाव है", तब पापा ने दीवार की तरफ देखा और हँसते हुए कहा की तेरे दादाजी की लायी हुयी तस्वीर थी वो | ये बोलते हुए उन्होने दुकान का सामान रखा और रसोई मे माँ का हाथ बटानें चले गये | मैं उनके पीछे-पीछे गया और फिर से पूछा, "लेकिन वो कब लाये ये तस्वीर"? तब उन्होने बताया की, 'पहले तेरे दादाजी कोलकाता में नौकरी करते थे, जब उन्होने यहाँ व्यापार करने का फ़ैसला किया तो कोलकाता से आते वक़्त वहाँ के किसी कलाकार से ये तस्वीर लाए थे और तब से वो उसी दीवार पे लगी हुई थी | लेकिन जब बँटवारा हुआ तो दादाजी इसे चाचा के घर क्यों नही ले गये,- मेने फिर पूछा | इसका जवाब शायद पापा के पास भी नही था | 'पता नहीं शायद भूल गये होंगे' ये कह के उन्होने बात ख़त्म कर दी | लेकिन मैं अभी भी उसी के बारे मे सोच रहा था | वो तस्वीर उस दीवार पे शायद पिछले 40 सालों से थी, एकदम चुपचाप, सबको देख रही थी | उस तस्वीर ने इस घर मे मेरा बचपन, सुख-दुख, बँटवारा, सब कुछ देखा था, और आज वो वहाँ नही थी | शायद कह रही थी मुझे की, हर किसी का अंत आता है |
3 दिन बाद माँ ने उस तस्वीर वाली खाली जगह पे, हम तीनो भाई-बहन के बचपन की एक तस्वीर लगा दी | उसके आसपास पहले से माँ-पापा की और परिवार की बहुत सारी तस्वीरें थी, लेकिन हमारे बचपन की एक भी तस्वीर नही थी | सच कहूँ तो ये वाली तस्वीर उस दीवार पे ज़्यादा अच्छी लग रही थी | लेकिन जब वो पुरानी तस्वीर गयी तो मुझे किस बात का बुरा लग रहा था या फिर किसी से डर लग रहा था ? शायद कोई हमेशा के लिए चला गया इस बात का बुरा लग रहा था या किसी के चले जाने से मेरी जिंदगी मे जो बदलाव आएगा, शायद मैं उस बदलाव से डर रहा था |