अंतिम अस्त्र
अंतिम अस्त्र
"एक बार फिर से विचार तो करो, तुम जो चाह रही हो शोभा, क्या वो ठीक है ? मैं बहुत छोटा था, तभी से पापा के न रहने पर माँ ने अपना सर्वस्व लगा कर मुझे पाला -पोसा। अपनी पूरी जमा-पूँजी मेरी शिक्षा और शादी में लगा दी। एक मात्र सम्पत्ति घर को भी बेच कर हमें पैसा दिया। हमारे इस घर के लिए, अब उन्हें यहाँ से कहाँ छोड़ आऊँ ?" समीर ने आर्द्र स्वर में पूछा।
"माँ ने जो कुछ किया वो तो हर माँ -बाप करते हैं और जो भी किया तुम्हारे लिए किय। मैंने तुम्हे आज तक का वक्त दिया था। मैं तो बस इतना जानती हूँ, आज के बाद इस घर में वो होंगी या मैं।" शोभा ने तल्खी से कहा।
शोभा की बातों से आहत समीर अन्दर आया। माता-पिता के बीच उच्च स्वर में हो रहे विवाद से सहमे दोनों बच्चे दादी से चिपक कर बैठे थे। समीर के लिए भी सदैव ममता की शीतल छाँव बनकर खड़ी उसकी माँ शांत और निर्विकार बैठी थीं। उसको देखते ही वो बोल पड़ी,
"मैंने अपना सूटकेस जमा लिया है। मैं नहीं चाहती तुम दोनों के बीच झगड़े का कारण बनूँ। तुम खुश रहो इसी में मुझे संतोष होगा।"
छलकते आँसू संभालता समीर अपने कमरे में चला गया। उसके फ़ोन पर किसी के साथ चल रहे वार्तालाप की हलकी -सी आवाज़ सुन शोभा को आभास हो गया कि वो जाने की व्यवस्था कर रहा है। वो अपनी जीत पर खुश हो रही थी।
थोड़ी देर बाद समीर के ऑफिस की गाड़ी आ गई थी।
“आओ माँ ,चलें।” कहते हुये समीर ने माँ का सूटकेस और सामान तो ड्राईवर को दिया, साथ ही अपने कमरे में से भी दो बड़े सूटकेस ले आया।
शोभा ने अचरज से पूछा, “ये सामान किसका है ?”
“मेरा” समीर ने जवाब दिया।
"ऑफिस से जो क्वाटर आबंटित हुआ था वो मैंने छोड़ा नहीं था। माँ के साथ मैं वहीं रहूँगा। माँ ने पापा के न रहने पर मज़बूरी में अकेले मेरा पालन-पोषण किया, पर मैं तुम्हें हर माह घर-खर्च देता रहूँगा। आगे चलकर हमारा अनुकरण करते हुए हमारे बच्चे तुम्हे अकेला न छोड़ दें, इसलिये मैं माँ के साथ रहने जा रहा हूँ।"
रचनाकार सखी प्रतियोगिता