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कुछ कहना था तुमसे

कुछ कहना था तुमसे

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वैदेही का मन बहुत अशांत हो उठा था। अचानक यूँ दस साल बाद सौरव का ई-मेल पढ़ बहुत बेचैनी महसूस कर रही थी। दस साल पहले हुआ वाकया आँखों के सामने तैर गया। ठंड की भरी दोपहरी में हाथ पैर सुन्न पड़ते जा रहे थे।

वैदेही ना चाहते हुए भी सौरव के विषय में सोचने को मजबूर हो गई थी। क्यों मुझे बिना कुछ कहे छोड़ गया था वो? कहता था - "तुम्हारे लिए चाँद तारे तो नहीं ला सकता अपनी जान दे सकता हूँ पर वह भी नहीं ले सकता क्योंकि मेरी जान तो तुममें बसी है।" और वैदेही हंस के कहा करती थी - "कितने झूठे हो ना तुम ....डरपोक कहीं के।" आज भी इस बात को सोच वैदेही के चेहरे पे एक हल्की सी मुस्कान आ गई थी। पर दूसरे ही क्षण गुस्से के भाव से पूरा चेहरा लाल हो गया था। फिर वही सवाल - क्यों वह मुझे छोड़ गया था? और फिर आज क्यों याद कर मुझे ई-मेल किया है? सामने आये तो दो थप्पड़ रसीद कर दूं। मन में बेचैनी और सवालों का ताँता सा लगा था।

वैदेही ने दोबारा मेल खोला और पढ़ा। सौरव ने केवल दो लाइन ही लिखी थीं - "आई एम कमिंग टू सिंगापुर टुमारो, प्लीज कम एंड सी मी ....आई विल अपडेट यू द टाइम। गिव मी योर नंबर आई विल कॉल यू।"

यही पढ़कर बेचैन थी और सोच रही थी नंबर दे या नहीं। क्या इतने सालों बाद मिलना ठीक रहेगा? इन दस सालों में क्यों कभी उसने मुझसे मिलने या बात करने की कोशिश नहीं की? कभी मेरा हाल चाल भी नहीं पूछा, मैं मर गई हूँ या जिंदा हूँ या किस हाल में हूँ। कभी कुछ भी तो जानने की कोशिश नहीं की, फिर क्यों वापस आया है? सवाल तो कई थे पर जवाब एक का भी नहीं था।

जाने क्या सोच अपना नंबर लिखकर भेज दिया और आराम कुर्सी पर बैठ सौरव से हुई पहली मुलाकात के बारे में सोचने लगी। दस साल पहले "फोरम द शॉपिंग मॉल" के सामने ऑर्चर्ड रोड पे एक एक्सीडेंट में वैदेही रास्ते पर पड़ी थी। कोई अजनबी... कार से टक्कर मार गया था। रास्ते पे ट्रैफिक जाम हो रखा था। एक तो बिज़ी रोड और कोई मदद के लिए सामने नहीं आ रहा था। किसी सिंगापोरियन ने हेल्पलाइन में फ़ोन कर इन्फार्मेशन दी थी की फलां रोड पे एक्सीडेंट हुआ है एम्बुलेंस नीडेड।

एम्बुलेंस आने में अभी टाइम था और वैदेही के पैरों से खून तेज़ी से बह रहा था रोड पे हेल्प ....हेल्प चिल्ला रही थी पर मदद के लिए कोई आगे नहीं आ रहा था। उसी ट्रैफिक जाम में सौरव भी फँसा था। जाने क्या सोच वह मदद के लिए आगे आया और वैदेही को अपनी ब्रांड न्यू स्पोर्ट्स कार में हॉस्पिटल पहुंचाया था।

वैदेही हलकी बेहोशी में थी पर वो मंज़र आज भी कितना ताज़ा महसूस कर रही थी। "सौरव का उसे अपनी गोद में उठा कर कार तक ले जाना" उसके बाद तो वो पूरी बेहोश हो गई थी। पर आज भी उसकी वो लेमन येलो टी - शर्ट उसे अच्छे से याद थी। वैदेही की मदद करने के एवज में उसे कितने ही चक्कर काटने पड़े थे पुलिस के। विदेश के अपने पचड़े हैं कोई किसी की मदद नहीं करता, खास कर प्रवासियों की। फिर भी एक भारतीय होने का फ़र्ज़ निभाया था। यही बात तो दिल को छू गई थी उसकी। कुछ अजीब और पागल सा था। कभी भी कुछ भी कर लिया करता था जब जो उसके मन में आता था। चार घंटे बाद जब वैदेही होश में आई थी तब भी वो उसके सिरहाने ही बैठा था। एक्सीडेंट में वैदेही को ज्यादा चोट नहीं आई थी पर फिर भी कहा जाये तो बाल बाल बच गई थी। एक टांग में फ्रेक्चर, कुछ खरोंचे और मोबाइल भी टूट गया था। यही कारण था सौरव उसके होश में आने का इंतज़ार कर रहा था। ताकि उससे किसी अपने का नंबर ले और इन्फॉर्म कर सके|

होश में आने पर वैदेही ने उसे पहली बार अच्छे से देखा था। देखने में कुछ खास तो नहीं था पर फिर भी एक स्टाइल एंड मैनारिस्म था। कुछ तो अलग ही बात थी।

कुछ सवाल करती उससे पहले उसने कितने एहसान जताते हुए कहा था "ओह गॉड! अच्छा हुआ आप होश में आ गई नहीं तो आप के साथ मुझे भी हॉस्पिटल में रात काटनी पड़ती। एनी वेज़ आई एम सौरव।" उसके तेवर देख, जानबूझ कर उसने उसे थैंक यू नहीं कहा था।

वैदेही से उसने परिवार के किसी मेम्बर का नंबर माँगा, माँ के फ़ोन का नंबर दिया था। उसने अपने फ़ोन से माँ का नंबर मिलाया और उन्हें वैदेही के विषय में सारी इनफार्मेशन दे दी। डॉक्टर से इन्फार्मेशन ले अचानक ही हॉस्पिटल से चला गया था। ना बाय बोला ना कुछ... मन ही मन उसका नाम खडूस रख दिया था।

उस मुलाकात के बाद तो मिलने की उम्मीद भी नहीं थी। ना उसने वैदेही का नंबर लिया था ना ही वैदेही ने उसका। उसके जाते ही वैदेही के माँ और बाबा भी हॉस्पिटल आ पहुँचे थे। वैदेही ने माँ और बाबा को एक्सीडेंट का सारा ब्यौरा दिया और बताया कैसे सौरव ने उसकी मदद की। दो दिन हॉस्पिटल में ही बीते फिर घर वापस आ गई थी। ऐसी थी पहली मुलाकात वैदेही और सौरव की .....कितनी अजीब सी .....वैदेही सोच सोच मुस्कुरा रही थी। सोच तो रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी। सौरव के ई-मेल ने वैदेही के पुराने सारे मीठे और दर्द भरे पलों को ताजा कर दिया था।

एक्सीडेंट के बाद पंद्रह दिन का बेड रेस्ट लेने को कहा गया था। नई नई नौकरी भी ज्वाइन की थी तब वैदेही ने। घर पहुँच वैदेही ने सोचा ऑफिस में इन्फॉर्म कर दूं। मोबाइल खोज रही थी, याद आया मोबाइल तो हॉस्पिटल में सौरव के हाथ में था और शायद अफरा तफरी में उसने उसे लौटाया भी नहीं था पर इन्फॉर्म तो कर ही सकता था। ओह! सारे कांटेक्ट नंबर्स भी गए - वैदेही चिल्ला उठी थी। अचानक तब याद आया के उसने अपने फ़ोन से माँ को फ़ोन किया था। माँ के मोबाइल में कॉल लगा चेक किया तो नंबर मिल गया था उसका।

तुरन्त तब नंबर मिलाया अपना इंट्रोडक्शन देते हुए उसने सौरव से मोबाइल लौटने का आग्रह किया। तपाक से बोला "फ्री में नहीं वापिस करूँगा खाना खिलाना होगा कल शाम तुम्हारे घर आऊंगा एड्रेस बताओ।" वैदेही के तो होश ही उड़ गए थे मन में सोच रही थी कैसा अजीब प्राणी है ये?" मोबाइल तो चाहिए था सो एड्रेस दे दिया।

अगले दिन शाम को महाराज हाज़िर भी हो गए थे। सारे घर वालों को सेल्फ इंट्रोडक्शन भी दे दिया और ऐसे घुल मिल गये जैसे सालों से हम सब से जान पहचान हो। वैदेही ये सब देख हैरान भी थी और कहीं ना कहीं एक अजीब सी फीलिंग भी हो रही थी। बहुत मिलनसार स्वभाव था। माँ, बाबा और वैदेही की छोटी बहन तो उसकी तारीफ करते नहीं थक रहे थे। सच तो था उसका स्वभाव, आव-भाव सब कितना अलग और प्रभावपूर्ण था। वैदेही उसके साथ बहती चली जा रही थी।

वह सिंगापुर में अकेले ही रहता था और बेंटले कार डिस्ट्रीब्यूशन कंपनी में मैनेजर के रूप में काम कर रहा था। तभी आये दिन उसे नई कार का टेस्ट ड्राइव करने का मौका मिलता रहता था। जिस दिन उसने वैदेही की मदद की थी उस दिन भी न्यू सपोर्ट कार कि टेस्ट ड्राइव पे था। उसके पैरेंट्स इंडिया में रहते थे।

अच्छी दोस्ती हो गई थी रोज़ आना जाना होने लगा था। वैदेही के परिवार के सभी लोग उसे पसंद करते थे। और शायद धीरे-धीरे उसने वैदेही के दिल में भी खास जगह बना ली थी। उसके साथ जब होती थी तो लगता था ये पल यहीं थम जाय। पंद्रह दिन हर शाम वो वैदेही से मिलने आता। उसके साथ बिताये पल में वो तो खोई सी ही रहती थी। वैदेही को ये एहसास हो चला था की सौरव के दिल में भी वैदेही लिए खास फीलिंग्स थीं। अब तक उसने वैदेही से अपनी फीलिंग्स कही नहीं थी।

पंद्रह दिन बाद वैदेही ने ऑफिस ज्वाइन कर लिया था। सौरव और वैदेही का ऑफिस ऑर्चर्ड रोड पर ही पड़ता था। सौरव अक्सर वैदेही को ऑफिस से घर छोड़ने आया करता था फ्रेक्चर होने कि वजह से छ: महीने तो केयर करनी ही थी। और तो और वैदेही को उसका लिफ्ट देना अच्छा ही लगता था। रास्ते भर वे बात किया करते उसकी बातें और वैदेही का उसकी बातों पे हंसना कभी खत्म ही नहीं होता था। वह अक्सर कहा करता था "की वैदेही की मुस्कराहट उसे दीवाना बना देती है इस बात पे वैदेही और खिलखिला के हंस पड़ती थी।"

आज भी वैदेही को याद है सौरव ने उसे दो महीने के बाद वैदेही के बाईसवें बर्थडे पर प्रपोज किया था। औसतन लोग अपनी प्रेयसी को गुलदस्ते या चाकलेट या रिंग के साथ प्रपोज करते हैं पर उसने वैदेही के हाथों में एक कार का छोटा सा मॉडल रखते हुए कहा था - "क्या तुम अपनी पूरी ज़िन्दगी का सफ़र मेरे साथ करना चाहोगी?" कितना पागलपन और दीवानगी थी उसकी बातों में। वैदेही उसे समझने में असमर्थ थी। ये कहते कहते सौरव उसके बिलकुल नजदीक आ गया और वैदेही का चेहरा अपने हाथों में थामते हुए उसके होंठों को अपने होंठों से छूते हुए दोनों की सांसें एक हो चली थी। वैदेही का दिल जोरों से धड़क रहा था। खुद को सँभालते हुए वह सौरव से अलग हुई। दोनों के बीच एक अजीब मीठी सी मुस्कराहट ने अपनी जगह बना ली थी। और दोनों की धड़कने आपस में रोमांटिक बॉल डांस कर रही थी।

कुछ देर तो वैदेही वहीं बुत की तरह खड़ी रही थी। जब उसने वैदेही का उत्तर जानने की उत्सुकता जताई तो वैदेही ने कहा था अगले दिन "गार्डन बाय द बे" में मिलेंगे और वही वैदेही अपना जवाब तब उसे देगी। उस रात वैदेही एक पल भी नहीं सोई थी। कई विषयों पे में सोच रही थी जैसे करियर... आगे की पढ़ाई... और ना जाने कितने ख्याल। नींद आती भी कैसे मन में बवंडर जो मचा था। तब वैदेही मात्र बाईस साल की ही तो थी और इतनी जल्दी शादी भी नहीं करना चाहती थी। और सौरव भी केवल पच्चीस वर्ष का ही था। पर वैदेही उसे यह बताना भी चाहती थी की उससे बेइंतहा मोहब्बत हो गई थी और हाँ ज़िन्दगी का पूरा सफ़र उसके साथ ही बिताना चाहती थी। बस कुछ समय चाहिए था उसे। पर ये बात वैदेही के मन में ही रह गई थी कभी उसे बोल ही नहीं पाई।

जैसा की दोनों ने तय किया था अगले दिन वैदेही ठीक शाम के पांच बजे "गार्डन बाय द बे" में पहुँच गई थी। उसने वहां पहुँच सौरव को फ़ोन मिलाया तो फ़ोन ऑफ आ रहा था। वहीं उसका इंतजार करने बैठ गई थी। आधे घंटे बाद फिर फ़ोन मिलाया तब भी फ़ोन ऑफ ही आ रहा था वैदेही बहुत परेशान और विचलित थी पर उसने सोचा शायद ऑफिस में कोई ज़रूरी मीटिंग में फंसा होगा। वहीं उसका इंतजार करती रही। इंतज़ार करते करते रात के दस बज गए पर वो नहीं आया और उसके बाद उसका फ़ोन भी कभी ऑन नहीं मिला।

दो साल तक वैदेही उसका इंतज़ार करती रही पर कभी उसने उसे एक भी कॉल नहीं किया। दो साल बाद माँ-बाबा की मर्जी से आदित्य से वैदेही की शादी करवा दी गई। आदित्य एक ऑडिटिंग कंपनी चलता था। उसके माता-पिता सिंगापुर में उसके साथ ही रहते थे।

शादी के बाद कितने साल लगे थे वैदेही को उसे भूलने में पर ठीक से भूल भी तो नहीं पाई थी। कहीं ना कहीं किसी मोड़ पे तो हमेशा उसे सौरव की याद आ ही जाया करती थी। आज अचानक क्यों आया है? और क्या चाहता है?

वैदेही की सोच की कड़ी को तोड़ते हुए तभी अचानक फ़ोन की घंटी बजी एक अंजाना सा नंबर था। दिल की धड़कने तेज़ हो चली थी वैदेही को लग रहा था हो ना हो सौरव का कॉल ही है। एक आवेग सा महसूस कर रही थी कॉल रिसीव करते हुए। हेलो कहा तो दूसरी ओर सौरव ही था। सौरव ने अपनी भारी आवाज़ में "हेलो इस दट वैदेही"। इतने सालों के बाद भी सौरव कि आवाज़ वैदेही के कानों से होते हुए पूरे शरीर को झंकृत कर रही थी।

स्वयं को सँभालते हुए वैदेही ने कहा "यस दिस इज़ वैदेही" ना पहचाने का नाटक करते हुए कहा "मे आई नो हू इज़ टॉकिंग"

सौरव ने अपने अंदाज़ में कहा - "यार तुम मुझे कैसे भूल सकती हो मैं सौरव"
"ओह या!" वैदेही ने कहा।
"क्या कल तुम मुझसे मरीना बे सेंड्स होटल के रूफ टॉप रेस्टोरेंट पे मिलने आ सकती हो..... शाम पांच बजे।" सौरव ने कहा।

कुछ सोचते हुए वैदेही ने कहा - "हाँ तुम से मिलना तो है ही विल सी यू टुमारो।" कहते हुए कॉल डिसकनेक्ट कर दिया।

शायद ज्यादा बात करती तो उसका रोष फ़ोन पर ही सौरव को सहना पड़ता। वैदेही के दिमाग में कितनी हलचल हो रक्खी थी इसका अंदाज़ा लगाना भी मुश्किल था। ये सौरव के लिए उसका प्यार था या नफरत थी। मिलने का उत्साह था या असमंजसता थी। एक मिला जुला मिश्रण भावों का जिसकी तीव्रता सिर्फ वैदेही ही महसूस कर सकती थी।

अगले दिन जब वैदेही तैयार हो रही थी सौरव से मिलने जाने के लिए तभी आदित्य कमरे में आया वैदेही से पूछा - कहाँ जा रही हो? वैदेही ने कहा - सौरव सिंगापुर आया हुआ है वो मुझसे मिलना चाहता है इतना कह वैदेही रुक गई। कुछ सोचकर वैदेही ने आदित्य से पुछा - जाऊं या नहीं। आदित्य ने जवाब में कहाँ - हाँ जाओ मिल आओ। डिनर पर मैं तुम्हारा इंतज़ार करूँगा। आदित्य ने अपना पक्ष बहुत सहज तरीके से वैदेही के सामने रख दिया था। इतना कह आदित्य कमरे से बाहर चला गया।

आदित्य, नाम से तो सौरव को जानता ही था। सौरव के विषय में काफ़ी कुछ सुन रक्खा था। वह यह जानता था कि सौरव को वैदेही के परिवार वाले बहुत पसंद करते थे और कैसे उसने वैदेही की मदद की थी। आदित्य एक खुले विचारों वाला इंसान था।

हलके जामुनी रंग के ड्रेस में वैदेही खूबसूरत लग रही थी। बालों को ब्लो ड्राई कर बिलकुल सीधा किया था। सौरव को वैदेही के सीधे बाल बहुत भाते थे। वैदेही हू-बहू वैसे ही तैयार हुई थी जैसे सौरव को पसंद था। वैदेही यह समझने में असमर्थ थी कि आखिर वो सौरव की पसंद से क्यों तैयार हुई थी? (कभी कभी ये समझना मुश्किल हो जाता है की आखिर किसी के होने का हमारे जीवन में इतना असर क्यों हो जाता है) वैदेही भी एक असमंजसता से गुज़र रही थी। स्वयं को रोकना चाहती थी पर कदम थे की रुकने का नाम ही नहीं ले रहे थे।

वैदेही ठीक पांच बजे मरीना बाय सेंड्स के रूफ टॉप रेस्टोरेंट में पहुँची। सौरव वहां पहले से इंतज़ार कर रहा था। वैदेही को देखते ही वो चेयर से उठा और वैदेही की तरफ बढ़ा और उसे गले लगते हुए बोला - "सो नाइस टू सी यू आफ्टर आ डिकेड। यू आर लुकिंग गॉर्जियस।"

वैदेही अब भी इक गहरी सोच में डूबी हुई थी और एक हलकी मुस्कान के साथ उसने कहा - थैंक्स फॉर द कॉम्प्लीमेंट, आई एम सरप्राइज़ टू सी यू एक्चुअली।

सौरव भांप गया था वैदेही के कहने का तात्पर्य। उसने कहा - "क्या तुमने अब तक मुझे माफ़ नहीं किया। मैं जानता हूँ, तुम्हें वादा कर मैं आ ना सका। तुम नहीं जानती मेरे साथ क्या हुआ था।

वैदेही ने कहा - "दस साल कोई कम तो नहीं होते माफ़ कैसे करूँ तुम्हें। आज मैं जानना चाहती हूँ क्या हुआ था तुम्हारे साथ?

सौरव ने कहा - तुम्हें याद ही होगा, तुमने मुझे पार्क में मिलने बुलाया था उसी दिन हमारी कंपनी के बॉस को पुलिस पकड़ के ले गई थी कुछ स्मगलिंग के सिलसिले में। टॉप लेवल मैनेजर को भी रिमांड में रखा गया था। हमारे फ़ोन, अकाउंट सब सीज़ कर दिए गए थे हालांकि दो दिन लगातार पूछताछ के बाद, महीनों तक हमें जेल में बंद कर दिया था। और दो सालों तक केस चलता रहा। जब तक केस चला बेगुनाहों को भी जेल की रोटी तोड़नी पड़ी। आखिर जो लोग बेगुनाह थे उन्हें तुरन्त डीपोर्ट कर दिया गया था। और जिन्हें डिपोर्ट किया गया था उनमें से में भी था। पुलिस की रिमांड में वो दिन कैसे बीतें क्या बताऊँ तुम्हें। आज भी सोचता हूँ तो रूह कांप जाती है। किस मुंह से तुम्हारे सामने आता।

इसलिए जब में इंडिया (मुंबई ) पहुंचा तो मेरे पास न कोई मोबाइल था ना ही कांटेक्ट नंबर्स थे और मुंबई पहुँचने पर पता चला माँ बहुत सीरियस थी और हॉस्पिटलाएज़ थी। मेरा मोबाइल ऑफ होने की वजह से मुझ तक ख़बर भी पहुँचना मुश्किल था। ये सारी चीज़ें आपस में इतनी उलझी हुई थी की उन्हें सुलझाने का वक़्त ही नहीं मिला। और तो और माँ ने मेरी शादी भी तय कर रखी थी, उन्हें उस वक़्त कैसे बताता की मैं अपनी ज़िन्दगी सिंगापुर ही छोड़ आया हूँ। उस वक़्त मैंने चुप रहना ही ठीक समझा था या ये कह लो में डर गया था। माँ को यूँ हॉस्पिटल में देख के।

और फिर ज़िन्दगी की आपाधापी में उलझता ही चला गया। हम्म.... पर तुम हमेशा याद आती रही। हमेशा सोचता था की तुम क्या सोचती होगी मेरे बारे में इसलिए तुम से मिलकर तुम्हें सब बताना चाहता था। काश!! मैं इतनी हिम्मत पहले दिखा पाता। उस दिन जब हम मिलने वाले थे तब तुम मुझसे कुछ कहना चाहती थी ना ..... आज बोल दो क्या बताना था।

वैदेही को यह सब जान कर इस बात की तसल्ली हुई थी कि सौरव ने उसे धोखा नहीं दिया था और शायद किस्मत भी इक अहम् भूमिका निभाती है हमारे रास्ते तय करने में। वेदैही ने कहा - "वो जो में तुम से कहना चाहती उन बातों का अब कोई मोल नहीं। वैदेही ने अपने जज्बातों को अपने अंदर ही दफ़नाने का फैसला किया था।

एक मुस्कराहट के साथ वैदेही ने कहा - "लेट्स आर्डर सम कॉफ़ी।"

 

 


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