वो मेरा अपना सा
वो मेरा अपना सा
आज लग रहा है शब्द खुद कागज़ के पन्नो पर उतरने के लिए बेकाबू हो रहे हैं! जानते है क्यूँ? आईये मैं बताती हूँ जैसे ही लेखनी उठायी आंखे डबडबा गयी, नम हो गईं, हाथ कपकपाने लगे, चेहरा सुर्ख लाल-सा होता गया, ये देखिये मैंने इस कहानी का शीर्षक लिखा- वो मेरा अपना सा। ...
परन्तु यही तो जीवन का सबसे बड़ा प्रश्न है- क्या वो मेरा अपना सा है भी या नहीं? इसी उलझन में हूँ मैं आज! मैं जानती हूँ भलीभंति वो मेरा नहीं है तो अपना सा कैसे हो गया? खैर !!! मेरी उलझन में मत उलझिए साहब हमे तो आदत है यूँ आँखों में नमी लेकर मुस्कुराने की!!!
आज बड़े दिन बाद उससे फिर बात हुई मन हुआ सब बता दूँ उसे आज, कैसे व्यतीत हो रहे है दिन ये तुम्हारे बिना... फिर अचानक लगा जैसे भीतर से सहसा कुछ आवाज़ आई-अरे!!! बस! बस! ज़रा रुक जा पगली!!! वो तेरा अपना - सा नहीं है, तो क्यूँकर सब बताया जा रहा है? बस मानो मैं थम- सी गई! वो कहता गया और मैं निःशब्द होकर बस चुपचाप यूँ सुनती रही मनो किसी फूल के कांटे हाथो म चुपचाप धसते चले गए हो, और में मूक सी सुनती रही उसकी सब बातें! ऐसा लग रहा था ये फोन कॉल खत्म न हो! आज यूँ ही सुनती रहूँ सब निस्तब्ध!!
आज वो फिर से चाहता था की हम फिर चलो एक हो जाये, जो हुआ उसे भूल जाओ! जानते हैं क्यूँ? उसे ये एहसास हो गया था ये पागल उसके बिना अपने आपको संभाल ना पाएगी! परन्तु मेरे लिए असमंजस की सी स्तिथि थी, यही सब तो मैं भी चाहती थी "वो" और मैं साथ हो! फिर यकायक स्मरण हुआ उसी ने कहा था एक दिन "अब तुम अपने लिए कुछ सोचो! हम साथ नहीं रह सकते!!"
बस ये स्मरण होते ही वो सब मेरे विचारों में कौंध गया, जो सब हमारे बीच बीत चुका था! तभी भीतर से आवाज़ आयी नहीं! अब नहीं! बस बहुत हुआ! वो हर वक़्त अपनी मर्ज़ी नहीं चला सकता! और मैंने न चाहते हुए भी उसे साफ-साफ शब्दों में मना कर दिया। आँखे नम हो गयी गला रुआंसा, पर उस तक अपने भीतर के एहसासों को पहुँचने ना दिया! बस दबे शब्दों में उसे "ना" कह दिया! मन में विचार आता है बहुत बार, क्या वो सचमुच में मुझे नहीं समझता होगा? जो मेरे विचारो एहसासों को समझ ना पाया होगा!
फिर मैं क्यूकर उससे फिर से बात करूँ? क्यूँ सब पहले जैसा कर दूँ? वो मेरे लिए सदैव से चार दिन की वो चाँदनी थी जिसे अपनी आँखों में जितना चाहे भर लो वो तुम्हारी नहीं हो सकती! टूटे रिश्तों को फिर से जोड़ना ही क्यों जब कुछ निष्कर्ष नहीं निकलेगा!
परन्तु उसका कहना था सब कुछ फायदे या नुकसान के लिए नहीं होता! तुझसे मेरा अपनापन जुड़ा है! और उसके विपरीत "मैं" थक चुकी थी इस टूटे रिश्ते की डोर को संभालते-संभालते! वो बस मेरा अपना-सा ही है मेरा अपना नहीं है! फिर भी उसका इंतज़ार है, मेरे अपने-पन में कुछ तो असर बाकि होगा जो उसे मुझ तक लाएगा! आएगा वो एक दिन! जब हम हमेशा के लिए एक साथ होंगे! शायद ये मेरा पागलपन होगा, किन्तु पागल ही सही! पागलपन से किसी अपने-सा का इंतज़ार कर के देखिये साहब!, जीवन में रस आपके भी आ जाएगा!