वेदना....
वेदना....
वेदना हमारी अंतर्मन की दशा और भावो को व्यक्त करती है ।ये हमारी शारीरिक और मानसिक स्थितियों को प्रकट करती है।हमारी वेदना किसी भी स्थिति में बदल सकती है।कभी-कभी तो ये खुद के दुखो के कारण होती है और कभी तो बिना किसी के भी हो सकती है परहर परिस्थिति में इसके कारण अलग-अलग होतें है।अपनों को दुःख में देखकर हमारी ये वेदना भी बढ़ जाती है।हम अपने अपनों को दुःख में देखकर मनं ही मन मेंरोते हैं और सोचते हैं की काश ये सारे दुःख और कष्ट हमारे अपनों से दूर हो जाएँ और उन्हें सारी खुशियाँ मिल सकें।और कभी ये वेदना तो दूसरे के सुखों को देखकरईर्ष्या के भावों के साथ हमारे दिल में होती है पर इस प्रकार की वेदना से हमें कभी भी सुख नहीं मिल सकता है बल्कि ये हमारे लिएऔर भी दुखदायी हो जाती है ऐसी वेदना से हमारी बुद्धि का सर्वनाश भी हो सकता है और इस तरह की वेदना से घिरकर हम दिन प्रतिदिन अपने अस्तित्व को खोते जातें हैं।और कभी भी सफल नहीं हो सकते हैं इसलिए जहाँ तक हो सके हमें इस प्रकार की वेदना से खुद को बचाने की कोशिश करनी चाहिए और अपनों के सुखोंको देखकर ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए क्योंकि ऐसी वेदना से हमारा रास्ता खो जाता हैऔर हम अपने लक्ष्यों से दूर होतें जातें हैं'और हमारे अंदर अनेकों बुराइयाँ जन्म लेने लगती हैं।
तो आप खुद ही सोचिये कि क्या अपने लक्ष्यों और आपके परिवार से जुडी आपकी उम्मीदों से दूर होकर उन्हें खोकर अपने अस्तित्व को ही खो देना क्या ये ठीक है?शायद नहीं और ये कभी सही हो भी नहीं सकता जो ख़ुशी हमे अपने अपनों के सुखों को देखकर हमारी आँखों के रास्ते झलकती है वो ख़ुशी हमें कभी भी दूसरों के सुखों और उनकी खुशियों को देखकर दुखी होने में कभी भी नहीं मिल सकती है तो हमें दूसरों की ख़ुशी में खुश होकर उनसे प्रेरणा लेनी चाहिए।और अपने लक्ष्यों तक पहुंचने के लिए रणनीति बनानी चाहिए। ताकि उन लक्ष्योंको प्राप्त करके हम अपनों को और उनकी हमसे जुडी उम्मीदों को ख़ुशी देकर हम अपनी भी एक अलग पहचान बना सकें।
पर तब भी ये वेदना किसी न किसी रूप में हमारे साथ तो जरुर रहेगी क्योंकि ये भी हमारी जिंदगी का एक अभिन्न अंग है,"यही है हमारी वेदना ।"