होनहार बिरवान के
होनहार बिरवान के
अरे तुम यहाँ दुकान पर ! कब लौट कर आए मसूरी से ! वहाँ सब कैसा चल रहा है।“
मिश्रा जी पिछले बीस सालों से ऑफिस जाते हुए रोज कलक्टरगंज की इसी दुकान पर रुकते थे और चौरसिया जी का पान खाकर ही उनका स्कूटर आगे का सफर तय करता था।
उन्होंने राहुल को अपनी नज़रों के सामने बड़ा होते देखा था। बचपन में वो अक्सर ही अपने पापा के साथ आता था और दुकान के एक कोने में खेलता रहता था। मिश्रा जी शुरु से राहुल को पसंद करते थे। राहुल भी मिश्रा जी से हिला- मिला था। वो चौरसिया जी का इकलौता लड़का था। जैसे-जैसे राहुल बड़ा हो रहा था, चौरसिया जी अपनी सारी ज़िम्मेदारी उसको सौंपते जा रहे थे।
शानदार पान लगाना और ग्राहकों को दुकान से जोड़ने का हुनर राहुल ने सीख लिया था। पिता के बाजार जाने पर अक्सर वो ही मिश्रा जी और अन्य ग्राहकों के लिए पान लगाता था लेकिन उस दिन जब मिश्रा जी ने राहुल को दुकान पर देखा तो काफी आश्चर्य में पड़ गए।
“राहुल तुम्हारी ट्रेनिंग तो अभी पूरी नहीं हुई है फिर तुम यहाँ कैसे ?” मिश्रा जी के सवाल पर राहुल मुस्कराया और बोला, “बस, अंकल जी आप सब से मिलने की इच्छा थी इसलिए चला आया। कुछ दिन की छुट्टियाँ थी इधर पापा की भी तबीयत ठीक नहीं थी। सोचा घर आकर सबसे मिल लूँ। आज सुबह ही घर पहुंचा हूँ। आते ही पापा को घर भेज दिया है, जिससे जब तक मैं यहाँ रहूँ वो आराम कर सकें।“
तभी दूर से मिश्रा जी को चौरसिया जी झोला लेकर आते दिखे। जैसे ही चौरसिया जी, मिश्रा जी के पास पहुंचे तो मिश्रा जी ने उनके कंधे पर हाथ रखकर कहा कि “चौरसिया जी ! अब अपने आई ए एस बेटे से पान बिकवाओगे क्या ? अब तो आप मजे से ज़िंदगी गुजारो और और अपने बेटे के औहदे पर गर्व करो। चौरसिया जी ने सीना चौड़ा करते हुए कहा कि साहब, इस दुकान के कारण ही मैं अपने बेटे को पाल सका। आज मुझे गर्व है अपनी इस पान की दुकान और बेटे की मेहनत पर लेकिन जब तक हाथ-पैर चलेंगे तब तक इस दुकान से आपकी सेवा करता रहूँगा। तभी राहुल उनको बीच में टोकता हुआ बोला, “और अंकल जी समय मिलने पर मैं भी आपके लिए पान बनाता रहूँगा !“