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बड़ा छोटा

बड़ा छोटा

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सुरेश और उसके तीन दोस्त, ये चारों एक ही सरकारी स्कूल में पढ़ते थे। सुरेश के पिता की घर के नीचे ही ज्वेलरी की दुकान थी।

सुरेश का एक दोस्त जिसका नाम मल्लू था। उसके पिता सब्ज़ी की रेहड़ी लगाकर, अपना गुजरा करते थे। आये दिन सुरेश को यही नसीहत मिला करती थी की तुम इस मल्लू से दूर रहा करो।

अपने बराबर वालों से दोस्ती रखो लेकिन ये चारों दोस्त इन सब बातों की परवाह नहीं करते थे।

इनको तो बस साथ स्कूल जाना साथ ही खेलना यही जन्नत नजर आती थी।

घर वालों को मल्लू का साथ फूटी आँख नहीं भाता था। कई बार सुरेश को डांट खानी पड़ जाती थी। एक दिन रात के समय मल्लू ने देखा की सुरेश के घर से चीखने चिल्लाने की आवाजें आ रही हैं।

उसने अपने पिता को भी जगाया, अरे ये क्या सारा मोहल्ला सुरेश के घर के पास खड़ा था। घर में आग लगी हुई थी जो दुकान से शुरू हुई थी और पूरे घर को अपनी चपेट में ले रखा था।

घर के अंदर चीख पुकार मचा हुआ था। सुरेश की पूरी फैमिली अंदर आग से घिर चुकी थी।

किसी की भी हिम्मत अंदर जाने की नहीं हो रही थी। भला आग में अपने आपको जलाने का जोखिम कौन ले।

फायर ब्रिगेड को फ़ोन तो कर दिया था, लेकिन आने में समय तो लगेगा ही, आखिर मल्लू और उसके पिता ने एक-एक कम्बल लपेट कर भीड़ को चीरकर अंदर जाने का जोखिम लिया।

दोनों ने दरवाजों को तोड़कर रास्ता बनाया। खिड़कियों को खोल दिया। रास्ता मिलते ही घर के लोग बाहर की तरफ भागे भगवान का शुक्र था की सभी लोग बहार थे।

मल्लू और उसके पिता भी बाहर आ चुके थे। लेकिन आग के जख्मों की वजह से उन दोनों की हालत बहुत ख़राब थी। आखिर फायर ब्रिगेड ने पहुँच कर आग पर काबू पा लिया और एक एम्बुलेंस मल्लू और उसके पिता को हॉस्पिटल ले गयी।

एक बहुत बड़ा हादसा मल्लू और उसके पिता की बहादुरी की वजह से टल चुका था। मरहम पट्टी करने के बाद उन दोनों को सुरेश के पिता हॉस्पिटल से अपने साथ लेकर आये।

सुरेश के पिता ने नम आँखों से हाथ जोड़कर उन दोनों का धन्यवाद व्यक्त किया। उनको अपने आप पर ग्लानि अनुभव हो रही थी की इनको मैं छोटा समझता था।

लेकिन ये अपनी जान की परवाह किये बिना हमें मौत के मुँह से निकालकर लाये।

आखिर हम लोग कब बड़े होंगे।


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