जड़ से उखड़ी
जड़ से उखड़ी
उस कस्बे के हवेली नुमा घर मे पैर रखते ही शादी मे आये मेहमानों के बीच शोर मच गया, "ताईजी आ गयीं।" और फिर छोटे से लेकर बड़े तक का उसके पैर छूने का सिलसिला चल पड़ा। पूरा कस्बा जैसे जमा हो गया था।धीमे स्वर में वह आशीर्वाद गुनगुना रही थी।
कितना अपनत्व था सब में...जैसे एक ही पेड़ की सब डालियाँ हों।
"कैसी हो भाभी।",अचानक एक सीधा औपचारिक प्रश्न मीनाक्षी के कान मे पड़ा तो उस आवाज से उसके ज़ेहन में एक भूचाल आ गया,..बीस बरस पहले यही स्वर उसके कान में गिड़गिड़ाया था,
"भाभी....अपनी जड़ों को छोड़ कर मत जाओ....यहाँ क्या कमी है...हम भाइयों का अपना काम है...खेती है..."
"काम....खेती..",उसने हिकारत से कहा था, "कभी दिल्ली जा कर देखो मेरे मायके वालों को...यह कस्बा कोई रहने लायक जगह है ?"
पति पर दबाव डाल उसने पैतृक मकान में अपना हिस्सा बेच दिया था ताकि लौटने के सारे रास्ते बंद हो जाए।
पर दिल्ली जाते ही उसका यथार्थ से सामना हुआ था। यहाँ सिर्फ दिखावे के रिश्ते थे। दो वर्ष मे ही पति का बीमारी के कारण बिजनेस फेल हो गया... बच्चों ने दसवीं पास करते ही नौकरी कर ली......किसी तरह गुज़र चल रही थी कि पति भी चल बसे। लड़की ने प्रेम विवाह कर लिया और लड़का टाइपिस्ट हो गया।
इन लोगों से तो उसका संबंध केवल कभी कभार फोन तक सीमित था। ससुराल किस मुंह से आती।
पर इस बार..... बड़े देवर का फोन आया था, "आपकी बेटी की शादी है उसकी ज़िद है कि बड़ी माँ ज़रूर आए।"
"क्या हुआ ..भाभी..कैसी हो।" देवर का फिर स्वर गूंजा तो वह जैसे गहरे कुंए से बाहर आ गयी,
"भैया... अपनी जड़ों से उखड़ा वृक्ष कैसा होता है.....
बस वैसी ही हूँ मैं।" एक फीकी हंसी उसके सूखे अधरों पर बिखर गयी।