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शौक जो बन गया मुसीबत

शौक जो बन गया मुसीबत

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जब भी मैं किसी महिला को कार चलाते देखती मेरे मन में भी कार चलाने का खयाल आ जाता, मुझे ऐसा लगता कार चलाने से आत्मविश्वास झलकता है। कार चलाने वाली महिलाओं का अपना रुतबा होता है। कहीं भी जब कार से निकलो अपने आप सामने वाले पर पहला इंप्रेशन अच्छा ही पड़ता है। कार चलाने वाली महिलाओं को बहुत स्मार्ट समझा जाता है। मेरी सारी सहेलियों में बस रीता कार चलाती है और उसका स्टाइल तो देखने लायक है। कभी अपने पति का मुंह नहीं देखती वो कहीं जाने के लिए। अपने मन मुताबिक चलती है।

इस बार मैंने भी मन बना ही लिया, कार सीखने का। लेकिन आये दिन एक्सिडेंट की खबरें, बढ़ते हुए ट्रैफिक से परेशान ये मुझे कार चलाने देने के लिए कहाँ से राज़ी होते। खैर कैसे भी कर के मैंने उन्हें मना ही लिया। आज ड्राइविंग क्लास का पहला दिन था। इंस्ट्रक्टर ने कुछ सामान्य बातें बताई और ड्राइविंग सीट पर बैठा दिया मुझे, घबराहट से मेरे तो हाथ पैर पसीने से भींग गए। जितना सोचा था उतना आसान था नहीं।

सामने देखूं, गेयर बदलू, क्लच पर ध्यान दूँ , एक्सीलेटर दबाऊ, एक पैर ब्रेक में, ट्रैफिक रूल्स,.... ओह!

कितना ज्यादा ध्यान लगाना पड़ता हैं और अंतिम दिन तो ऐसा लग रहा था कि कार नहीं प्लेन चलाना सीख गई हूँ ।

क्लास तो ख़तम हो गई थी। अब इनकी टेस्ट लेने की बारी थी। ऐसा लग रहा था मिलिट्री के किसी बड़े आफिसर के साथ बैठी हूँ।

चलो स्टार्ट करो कार..... अरे अरे! ये कहां से गाड़ी निकाल रही हो?, ऐसे टर्न क्यों नहीं लिया?, गेयर बदलने में इतना टाइम क्यों लगाती हो? और न जाने क्या क्या।

इनके इतना टोकने की वजह से ग़लतियाँ भी ज्यादा ही हो रहीं थीं मुझसे, और ये तो टेस्ट लेने बैठे थे, तो फेल कर दिया बस मुझे।

अब आई प्रैक्टिस की बारी, तो वो कैसे करूँ, ये तो अपनी कार देने से रहे। इन्होंने तो साफ कह दिया था। सीख लो ड्राइविंग लेकिन मैं अपनी कार नहीं देना वाला। वैसे भी कार से इनका लगाव इतना ज्यादा है, जिसके बारे में मैं क्या बताऊं ? बस यही समझ लीजिए कार एक मशीन न होती तो मेरी सौत कहलाती। लेकिन प्रैक्टिस तो जरूरी है। क्योंकि ड्राइविंग कोई साइकिलिंग या स्विमिंग करने जैसा तो है नहीं, एक बार सीख ली तो ज़िन्दगी भर भूलेंगे नहीं। खैर कभी कभी जब ये कार घर में छोड़ कर जाते तो मैं हाथ साफ करने का मौका नहीं छोड़ती। हालाँकि डर तो इतना लगता कि कहीं गाड़ी को कुछ हो गया तो ये मुझे छोड़ेंगे नहीं। कभी कभी अपनी सहेली रीता के साथ कहीं जाती तो उससे थोड़ा मांग लेती चलाने के लिए। वैसे कार चलाने की प्रैक्टिस करने के लिए ही मैं रीता से अपनी दोस्ती थोड़ा बढ़ा रही थी।

इनको तो वैसे भी मेरी ड्राइविंग पर भरोसा था नहीं। इसलिए कभी कुछ बात भी नहीं करते थे इस बारे में " याद भी है कहीं भूल तो नहीं गई " कुछ भी नहीं पूछते। बस मेरा शौक समझकर ड्राइविंग सीखने की रजामंदी दी थी। थोड़ा बहुत जो मेरी प्रैक्टिस चल रही थी वो भी ये नहीं जानते थे। हिम्मत भी नहीं थी उन्हें बताने की " आपसे बिना पूछे कार चलाती हूं आपकी "।

आज सुबह ये ऑफिस के निकल गए और मैं घर के कामों में लग गई। कामवाली भी आई हुए थी उस समय, तो उस तरफ भी ध्यान लगा था मेरा, तभी गिलास गिरने की ज़ोर से आवाज आई पापाजी के कमरे से। मैं चौक कर देखने गई तो सिर्फ गिलास ही नहीं पापाजी भी गिरे थे। उन्हें सीने में ज़ोर का दर्द उठा था। मुझे तो हार्ट अटैक ही लग रहा था। क्या करूँ? इन्हें बताउं इनका इंतजार करूँ, एम्बुलेंस का इंतजार करूँ, पड़ोसियों को बुलाने जाऊँ। कुछ समझ नहीं आ रहा था। जल्दी से जल्दी पापाजी को हॉस्पिटल पहुंचाना था बस यही मेरे दिमाग में चल रहा था। वो तो किस्मत से आज कार घर में ही थी। फिर मैंने ज्यादा नहीं सोचा। बिना देर किए कामवाली की मदद से पापाजी को कार में बैठाया और हॉस्पिटल के लिए निकाल गई । हॉस्पिटल पहुंचते ही पापाजी को आई.सी.यू में एडमिट कर लिया गया। इस बीच मैंने इन्हें फोन किया। ये हॉस्पिटल पहुंचते ही सबसे पहले इसी बात पर बिगड़ गए तुम कार चला कर क्यों लायी। कहीं एक्सिडेंट हो जाता तो क्या करती तुम? इंतजार क्यों नहीं किया। लेकिन डॉक्टर ने जब कहा, सही समय पर हॉस्पिटल पहुंचने की वजह से ही जान बच सकी है, तो सच में इन्हे बुरा लगा और माफी भी मांगी इन्होंने मुझसे।

उस दिन के बाद से इनका विश्वास मेरे ऊपर बढ़ गया। अब ये ज्यादातर कार घर में ही छोड़ कर जाने लगे। मैं बहुत खुश थी चलो इन्हें विश्वास तो हुआ मुझ पर। अब जब भी मन होता मैं कार ले कर निकाल जाती। धीरे धीरे पापाजी को रेगुलर चेकअप के लिए ले जाना। बच्चों के सारे काम करवाना। राशन लाना, सब्जी लाना जैसे कई सारे वो काम जो ये किया करते थे। मेरे हिस्से आ गए। सब कुछ की जिम्मेदारी इन्होंने मुझे ही सौंप दी। हर काम ये मेरे भरोसे ही छोड़ने लगे। और एहसान करते हुए बोलते लो चाभियां मेरे कार की, आज ये काम है ये कर लेना, वो कर लेना। कहीं घूमने जाओ तब भी मुझे बोलते लो तुम चलाओ कार। ये बच्चों के साथ हँसी मज़ाक मस्ती करते खूब और मैं अपना ध्यान कार चलाने में लगाई रहती। एक समय था कार चलाने के लिए तड़पा करती थी। सोचती थी स्टाइल से कार चलाऊंगी अपने मन का करूंगी। क्या सोचा था और हो क्या रहा था। आखिरकार मेरे कार सीखने का असली फायदा किसे हुआ।

मेरा तो बस शौक था कार चलाना लेकिन अब ये "शौक मुसीबत बन गया था "।


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