खलबली
खलबली
कई दिनों से फोन पर चल रही आज-कल के बाद आज मैंने उनसे मिलने का निश्चय कर लिया और उन्हें सूचित कर दिया। जब वहाँ पहुँचा तब वे अपनी पीढ़ी के एक व्यक्ति से विमर्श कर रहे थे। औपचारिक अभिवादन और परिचय के साथ ही मैं उनके विमर्श का श्रोता बन गया। यद्यपि कोई निश्चित विमर्श-बिंदु नहीं था; वे दोनों ईश्वर है, काल्पनिक, नहीं है, आस्तिक, नास्तिक, जातिवाद, सत्ता के दुरुपयोग, अमीरों की सोच इत्यादि शब्दों का अधिक उपयोग कर रहे थे लेकिन हर बार गरीब एवं गरीबी रेखा के आसपास आकर ठहर जाते और फिर एक नये प्रश्न के साथ चर्चा आगे बढ़ी। 'भाई, मैं तो यह समझता हूँ कि आस्तिक, नास्तिक, ये धर्म, वो मजहब, जाति, विजातीय, अमीर, गरीब... सब अपनी जिंदगी को अपने तरीके से जीने का रास्ता निकाल लेते हैं , किसी को एक दूसरे से अधिक शिकायत नहीं है लेकिन माहौल बिगाड़ने- बनाने वाले लोग इस सब के लिए जिम्मेवार होते हैं।
'उन्हें आप न तो आस्तिक मान सकते हो और न ही नास्तिक होने का दावा कर सकते हो। क्योंकि जैसे ही कोई इन्हें नास्तिक के नाम से संबोधित/ परिभाषित करे तभी ये स्वयं को उन महापुरुषों का अनुयायी बताने लगते हैं जिनका पूर्ण चिंतन ही ईश्वर की संस्था को खारिज करने पर केंद्रित रहा। बड़ी रोचक बात एक यह है कि कई महापुरुष जो ईश्वर को नहीं मानते रहे, क्षदम अनुयायियों ने, अपने हित साधने के लिए उन्हीं को ईश्वर के समरूप खड़ा कर दिया।' 'यह सही बात कही आपने, लेकिन बहुत ही विडम्बना इस बात को लेकर है कि ये लोग दोनों हाथों में लड्डू रखना चाहते हैं, जनता की भावना और राजनीतिक समीकरण बदलने के साथ ही ये अपनी विचारों की सीमा से कूदकर आम जनता के स्थिर जीवन के क्षेत्र में सर्जिकल स्ट्राइक कर देते हैं.. ऐसे लोगों को क्या नाम देंगे आप !'
यह जानते हुए कि यह प्रश्न-उत्तर उन दोनों तक ही सीमित है और मैं इस विचारक्रांति के समुद्र में किनारे पर ही तैर रहा हूँ, कुछ कहने के लिए लपलपा रहा था जिसे उन आगंतुक श्रीमान ने भाँप लिया और .. 'हाँ, कहो, तुम क्या कहना चाहते हो !' 'जी, कुछ नहीं, कुछ अटपटा सा विचार आया था..' 'कहिये, तुम भी लिखते रहते हो, और लेखन में विचार प्रथम होता है, व्यक्ति द्वितीय' 'जी, यह आपका बड़प्पन है, मेरा अनगढ़ सा मत है कि जो लोग धार्मिक स्वतंत्रता के नाम पर अपनी सुविधानुसार पहलू बदल कर सदियों से स्थापित बहुआयामी समाज को खंडित और दंडित करने का प्रयास करते हैं उन्हें संत्रास्तिक जैसा कोई नाम देना होगा ( संत्रास्तिक अर्थात वे लोग जो स्वयं आस्तिक हों या नास्तिक या कुछ और लेकिन आम जनता को संत्रास देने हेतु भ्रमित करने के चक्रव्यूह रचते रहते हैं।) क्योंकि लोगों को पीड़ित करके ही ये अपने लक्ष्य साधने में सफल होते हैं...' 'भाई, ऐसा तो कोई शब्द नहीं है शायद, लेकिन अपनी बात को समझाने के लिए तुम इसे वैकल्पिक निकनेम की तरह उपयोग कर सकते हो।'
वहाँ से लौटने के बाद सोने के समय तक उन्हीं शब्द-गुत्थियों ने मस्तिष्क पटल पर अधिकार कर रखा था, मेरे विचारों का लोलक दायें से बायें घूम रहा था या कहिये कि मुझे घुमा रहा था। नींद मौका देखकर फरार हो गई। अब मेरे कानों में, कभी अवधेश के शब्द खनक रहे थे तो कभी गुरविंदर के। पिछली दीपावली पर हुई बातचीत ने दशक पुरानी यादों से पर्दा क्या सरकाया, आज कुछ बातें बिल्कुल ताजातरीन प्रतीत हो रही थीं।
पिछले वर्ष एक बहुत पुराने साथी से संवाद हुआ तो उस कालावधि में संग रहे अनेक मित्रों की चर्चा होती गई और याद ताजा हो गई। मन बहुत हल्का फुल्का महसूस कर रहा था। तभी उन्होंने बताया कि अवधेश कुमार सिंह पूना में पोस्टिंग है। और भी कई लोगों और घटनाओं को लेकर रोचक तथ्य आदान प्रदान किये। संवाद विच्छेद होने के बाद मेरे दिमाग की सुई अवधेश पर अटक गई। वह हमसे तीन बैच यानी लगभग बीस महीने जूनियर था।
यह उन दिनों की बात है जब मैं और कुछ साथी वायुसेना में अपने बीस वर्ष पूरे कर ऐच्छिक रूप से नौकरी छोड़ने की तैयारी कर रहे थे और उससे जुड़ी अच्छी और अप्रिय बातें (वरिष्ठ लोगों के अनुभव) प्रायः चर्चा किया करते थे। कुछ साथी वायुसेना में सेवा जारी रखने के इच्छुक थे तो अन्य कई मिलिट्री लाइफ से बाहर निकल कर सिविल में दूसरी नौकरी या व्यवसाय में अपने हाथ आजमाने के इच्छुक। चर्चा के प्रसंगों के अनुसार (किसी के विशेष अनुभव की बात सुनकर) कमोवेश कोई व्यक्ति कभी कभार उत्साहित से अति उत्साहित या हतोत्साहित हो जाता था लेकिन कुछ लोगों ने नोट किया कि अवधेश सदा एक ही रट लगाए रहता था- अब एयरफोर्स नौकरी करने लायक नहीं रही सर, पहले की बात और थी जब लोग काले बालों के साथ आते थे और चैन से 30-35 साल नौकरी कर सफेद सिर लेकर घर जाते थे। अब तो नौकरी करना जिल्लत का काम है, खुद को उठाने के लिए हर दिन किसी को धोखे से गिराना पड़ता है, जमीर बेचकर अपने साथियों के बीच में मुस्कुराना रोज की बात हो गई है अब.... ।
मुझ जैसे सीमित इच्छाओं के स्वामी साथियों को, लोगों के नकारात्मक अनुभवों को अपने ढंग से पेश कर दिशा भ्रमित करने की उसकी कोशिश रहती थी जिसे वह किसी राजनीतिक दल के प्रवक्ता की भाँति अडिगता से आगे बढ़ाता रहता। और उसके निरंतर प्रयास ने कुछ ऐसे लोगों को भी सर्विस छोड़ने को प्रेरित किया जो नीली वर्दी और वायुसेना के वातावरण से पूर्ण संतुष्ट रहते थे। और जिनकी दूसरी नौकरी या व्यवसाय को लेकर कोई तैयारी नहीं रही।
हमने कभी इस बात का ध्यान नहीं दिया कि एक व्यक्ति लोगों के साथ इतनी बड़ी साजिश कर रहा होगा, ऐसा सोचने का कारण भी नहीं था। एक दिन जब हम स्टेशन कमाण्डर की विदाई पार्टी (एक ड्रिंक्स पार्टी) से लौट रहे थे तो अनायास ही मेरे मुँह से निकला कि भाई आज अवधेश बड़ा शान्त था, वैसे तो वह बहुत बड़बड़ाता है तब कुलीग सरदार जी ने बताया, 'सर, वह बहुत शातिर खिलाड़ी है। यहाँ बड़े अधिकारी भी मौजूद हैं और कोई भी व्यक्ति किसी की बगल में आकर कभी खड़ा हो सकता है, वह ऐसी रिस्क नहीं लेता।' 'कैसी रिस्क !' तीन सैकंड में ही मेरी जीभ लपक पड़ी। 'आप कुछ नहीं जानते हो उसके बारे में। हम अक्सर बार में जाते रहते हैं, वहाँ सब लोग कहते हैं कि वह जो लोगों के सामने सर्विस और इसके वातावरण को कोसता रहता है, वैसा बिल्कुल नहीं है, वह तो अपने भविष्य की डगर तैयार कर रहा है। बार में जो लोग उसकी बात को समझते हुए इग्नोर करना शुरू कर देते हैं वह उनके साथ बैठकर पीना बन्द कर नये समूह में बैठने लगता है, और आप उसकी बातों पर विश्वास करते हैं!' 'तो क्या अवधेश दो साल बाद सर्विस छोड़कर नहीं जायेगा!' 'जी नहीं सर, बिल्कुल नहीं। वह अगले 20 वर्ष तक यहीं दारू पीता हुआ मिलेगा। बस, सीनियर होकर यहाँ पर उसके बैठने की जगह अवश्य बदल जाएगी।'
फोन पर साथी से बात 30 मिनट पहले ही समाप्त हो गई थी लेकिन ये 30 मिनट एक झपकी की तरह गुजर गए। मुझे अपने कुलीग सरदार की दूरदृष्टि पर गर्व हो रहा था और उन चर्चाओं पर आश्चर्य। मैंने शर्मा जी से गुरविंदर (सरदार) का फोन नम्बर खोजने का विशेष निवेदन किया लेकिन उन्होंने असमर्थता जताई। उस समय सभी लोगों के पास सेलफोन नहीं होते थे। मेरे और गुरविंदर के पास भी नहीं। खैर, हमारे आसपास सदा कोई गुरविंदर रहता है लेकिन पाखंडी, नेता और अभिनेता (अभिनयी नेता) ऐसा माहौल बना कर अपने मुद्दों को हमारी जुबानों पर रखते हैं कि आम आदमी उसे गुलाब जामुन में रखी नशीली गोली के माफिक निगल जाता है और उसके असर से उसी की भाषा बोलकर (जिससे उसके मूल विचारों का कोई सरोकार नहीं है) अन्य लोगों की जुबान को कड़वा या कसैला करता है। उदाहरणतः , कुछ वर्ष पहले देश में असहिष्णुता का लेवल दिल्ली के प्रदर्शन की तरह बढ़ गया जिसमें कुछ लोगों को साँस लेने तक में तकलीफ होने लगी। कुछ लोग तो देश छोड़ने की (अति काल्पनिक) बात कहने लगे। मुझे खयाल आया कि यदि अभी गुरविंदर मेरे पास होता तो मैं उससे इसके बारे में अवश्य प्रश्न करता। बहुत संभावना है कि गुरविंदर का उत्तर घंटे की टन की आवाज की तरह स्पष्ट होता, "इनकी अनेक पीढियां अपनी उम्र बम्बई की चौपाटी या दिल्ली के चाँदनी चौक पर ही गुजारेंगी, लिख लो तुम।"
मुझे कल की तरह वह दृश्य याद है। एक बार दिल्ली से जम्मू जाने वाली पूजा एक्सप्रेस रेलगाड़ी में जब इसी प्रकार के मुद्दों पर बहस हो गई थी तो गुरविंदर ने अचंभित तरीके से कई लोगों के नाम पूछते हुए ताने देकर सब के मुँह बन्द कर दिए। उसका जोर देकर कहना था - 'जब आप ईश्वर से कोई इत्तेफाक ही नहीं रखते तो सबसे पहले अपना नाम जो कि रामलाल, महेश चन्द्र, ब्रह्मदेव, इन्द्राणी, मेनका, नरेंद्र, सुरेंद्र आदि है उसे क्यों नहीं बदल डालते। इसकी तो छूट न्यायालय ने दे रखी है, मात्र किसी समाचार पत्र में एक विज्ञापन देना है और आप खुद को एक्स वाइ जेड बना सकते हैं। ऐसा कर आप एक झटके में ही, ईश्वर के साथ अपने माँ बाप को भी गलत सिद्ध करने में सफल हो जाओगे। एक बातूनी को उसने यह कहकर चुप कराया कि कई शातिर एवं महत्वाकांक्षी बुद्धिजीवियों ने आम लोगों को बहुत छला है- वे स्वयं तो पूरी जिंदगी अपने धर्म और संप्रदाय से जुड़े रहे (और उससे प्राप्त आर्थिक, सांस्कृतिक, भौतिक सुखों का उपभोग करते रहे) लेकिन जीवन के अंतिम पड़ाव पर कुछ और बन गए ताकि किसी एक प्रकार के लोग उनकी सोच, दूरदृष्टि, त्याग आदि के मुखौटा से अलंकृत कर देर सबेर उन्हें स्थापित कर सकते हैं, पूजनीय बना सकते हैं और वश चला तो पत्थर का रूप भी दे सकते हैं। किन्तु मुझे आम लोगों की इस बात पर रोना आता है कि यदि उसके भोजन में नमक अधिक हो जाता है तो सामान्यतः वह कुछ खास नहीं करने पर असमर्थ महसूस करता है और उसे यथास्थिति में गटकने को मजबूर दिखता है (जिसके कि उसके पास विकल्प भी होते हैं) और दूसरी तरफ, जीवन, आस्था, धर्म, संस्कृति जैसे विषयों पर अपनी राय ऐसे देने लगता है जैसे अब तो वह समुद्र का खारापन दूर करने के बाद ही चुप बैठेगा।' इसके बाद, कूपे में जो बहुत देर से खलबली मची हुई थी, सन्नाटे में बदल गई और लोग अपने अपने स्थान पर सो-बैठ गए।