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Manju Saxena

Drama Thriller Tragedy

1.9  

Manju Saxena

Drama Thriller Tragedy

राख

राख

2 mins
868


"मेरे मरने पर यह मेरी चिता में डाल देना", दशहरे की छुट्टियों में मेरे मायके आने पर बाबूजी ने कागज़ की एक पुड़िया मेरे हाथ में देते हुये कहा।

"यह क्या...।"

"तुम्हारी माँ की अस्थियों की राख है", बाबूजी का स्वर शांत था।

"बाबूजी...", मैं विस्मय से चीख उठी थी। एकबारगी मेरे ज़हन में तीन वर्ष पहले के वह पल चलचित्रसे घूम गये जब पेट में भयंकर पीड़ा होने पर माँ को अस्पताल में भर्ती किया गया जहाँ डाक्टरों ने रिपोर्ट के आधार पर कैंसर की चौथी स्टेज घोषित की। अब माँ की ज़िन्दगी में कुल एक महीना बचा था।

जीवन भर पति की अंधभक्ति करने वाली माँ का मृदु स्वभाव बाबू जी के प्रति अचानक ही बदल गया।

'अपनों के प्रति कोई ऐसा निष्ठुर कैसे हो सकता है', सब सन्न थे ये देखकर।

"रानो...इस आदमी से कह दो ये यहाँ से निकल जाए...मैं इसकी सूरत भी नहीं देखना चाहती," बाबूजी के कमरे मे पांव रखते ही वह बेतहाशा चिल्ला उठतीं।

"इस इन्सान ने मेरी पूरी ज़िन्दगी तबाह कर दी।"

"माँ...तुम्हें क्या हो गया है...तुमने तो पूरी ज़िन्दगी बाबूजी से पूरी निष्ठा से प्यार किया है...उनकी हर इच्छा अनिच्छा का ख्याल किया है...तुम्हें पता है...इस समय तुम्हारे व्यवहार से उन्हें कितना कष्ट हो रहा है।" आखिर एक दिन मुझसे नहीं रहा गया था।

"जानती हूँ...इसीलिए कर रही हूँ...तू क्या समझे...कठोर बनने के लिए मुझे किस पीड़ा से गुज़रना पड़ रहा है...ये चाहें अपने अहम् में न कबूलें पर मैं जानती हूँ...मेरे बिना यह...", माँ का स्वर भर्रा गया, "रानो...तेरे बाबूजी...मुझे बहुत प्यार करते हैं...आखिरी वक्त मैं अपनी नफ़रत दिखाकर उन्हें इस प्यार से मुक्त करना चाहती हूँ...तू किसी से कहना मत। "उफ ! कितना दर्द था उस स्वर में।

और आज...।

"पर बाबूजी...माँ तो आपसे बहुत नफरत...।"

"मैं जानता हूँ उसने ऐसा क्यों किया...पगली यह समझ ही नहीं पाई कि जब वह बिना कहे मेरे मन की बात समझ जाती थी तो मैं कैसे उसकी पीड़ा नहीं समझता...पर वह यह नहीं जानती थी कि मेरी आत्मा तो उसकी आत्मा के साथ ही जाने वाली थी और वह चली गयी।" अजीब सी हँसी थी उनकी। मैंने उन्हें देखा और उनके चेहरे पर गौर करते ही मैं चौंक गयी...' बड़ी बड़ी आँखों की श्री गायब थी...ये बाबूजी नहीं कोई आत्मा विहीन पुतला मेरे सामने खड़ा था।


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