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इंतज़ार

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समर अति शीघ्रता से एक लेख लिख रहा था जो कि उसे कल के समाचार पत्र मे छपवाने के लिए देना था। वह एक दैनिक समाचार पत्र में पत्रकार था। जैसे ही उसका लेख तैयार हुआ, दीवार पर लगी घड़ी ने रात के एक बजने का संकेत दिया। उसने ये लेख जल्दी से अपने सम्पादक को ई मेल कर दिया। अपना काम खत्म कर उसने ठंडी आह भरी। उसकी पलकें नींद के बोझ से दबी जा रहीं थी। वह अपना लेपटाॅप बन्द करने ही जा रहा था कि एक नया मेल आ गया। उसने मेल को खोला और सन्देश को पढ़ा -

जल्दी से सतवाड़ा की पुरानी हवेली आ जाओ। मैं तुम्हारा जाने कितने वर्षों से इन्तज़ार कर रही हूँ।- रत्ना

पढ़कर समर दंग रह गया। वह रत्ना नाम के किसी व्यक्ति से परिचित न था। केवल इतना ही नहीं वह तो यह भी नहीं जानता था कि ये 'सतवाड़ा' नामक स्थान है कहाँ? अगले ही क्षण उसके मन में विचार आया कि सम्भव है कि किसी मित्र ने शरारत कि हो। अपने संशय को मिटाने के लिए उसने इन्टरनेट पर 'सतवाड़ा' को ढूँढा। किन्तु जो परिणाम सामने आया उसने समर कि धारणा को गलत साबित कर दिया। सतवाड़ा, राजस्थान का एक छोटा गाँव था।

समर की नींद उड़ गई और वह इस पहेली का हल ढूढ़ने में लग गया। वह यह बात जानता था कि उसके पूर्वज राजस्थान से थे। परन्तु परिवार में कोई भी राजस्थान का ज़िक्र न करता। उसके परदादा वर्षों पहले मुम्बई में आकर बस गए। उन की मृत्यु समर के जन्म के पूर्व ही हो चुकी थी। समर ने उन्हें कभी नहीं देखा। जब वह पाँच साल का था तब उसके दादाजी चल बसे। पिछले वर्ष उसने अपने माता पिता को भी खो दिया। वह उनका इकलौता बेटा था। वह मुम्बई में ही पला बड़ा था इसलिए गाँव के रिश्तेदारों से अपरिचित था। अब वह इस बात का सच किस से पूछता। वैसे भी वह काम में व्यस्त था और सम्पादक महोदय उसे छुट्टी देने वाले नहीं थे। इसलिए सतवाड़ा जाने का प्रश्न तो वैसे भी नहीं उठता। फिलहाल वह उठा और जाकर सो गया।

इस घटना के ठीक एक मास बाद की बात है। समर के मित्र एवं सहकार्यकर्ता वरूण का जन्मदिन था। पार्टी कर के वह रात को तीन बजे घर लौटा। तभी उसे एक फोन आया।

"हेलो?"

"तुम क्यों नहीं आए? मैं कब से इन्तज़ार कर रही हूँ।"

फोन पर कोई लड़की थी। उसकी आवाज़ बहुत मधुर थी। किन्तु स्वर बेहद दुखद था। समर को ऐसा लगा की उस आवाज़ से उसका कोई गहरा रिश्ता था।

"आप कौन हैं?"

"रत्ना"

समर को ई मेल वाली बात याद आई।

"देखिए शायद आप से कोई भूल हो गई है। मैं किसी रत्ना को नहीं जानता।"

"भूल तो तुम मुझे गए हो।"

अगले दिन कार्यालय में समर विचारों में खोया बैठा हुआ था कि वरुण आ गया।

"क्या हुआ समर बड़े गुमसुम लग रहे हो?"

"मेरे साथ पिछले कुछ दिनों से कुछ अजीब हो रहा है।"

"क्या हुआ?"

समर ने उसे सब बता दिया।

"मैं टेलीफोन एक्स्चेंज से पता करता हूँ।" वरूण ने सारी बातें सुनने के पश्चात कहा।

समर बड़ी बैचेनी से अपने फ्लेट में चहल कदमी कर रहा था। शाम हो गई पर वरुण का कोई पता नहीं था। तभी दरवाज़े की घण्टी बजी और समर ने दौड़ कर दरवाज़ा खोला।

"एक्स्चेंज वालों ने कहा कि कल रात तीन बजे तुम्हें कोई काॅल नहीं आया।"

"ऐसा कैसै हो सकता है?"

"ज़रा वो मेल तो दिखाओ?"

समर ने झट से अपना लेपटाॅप वरुण को दिखाया पर रत्ना का मेल ग़ायब था।

"ये क्या हो रहा है वरुण?"

"मुझे लगता है कि तुम्हें आराम की ज़रूरत है। मेरी एक दोस्त बहुत अच्छी ड़ाॅक्टर है। क्यों न तुम....?"

"तुम्हें मुझ पर विश्वास नहीं? ठीक है मैं सतवाड़ा जाऊगाँ और स्वयं पता लगाऊँगा।"

सतवाड़ा के छोटे से स्टेशन पर जब गाड़ी रूकी तो शाम ढ़ल चुकी थी। समर स्टेशन से बाहर आया और एक टाँगेवाले से बोला, "पुरानी हवेली चलोगे?"

जब टाँगा हवेली पहुँचा तो चारों तरफ रात का सन्नाटा था। हांलाकि समर पहली बार सतवाड़ा आया था, पर जाने क्यों वह हवेली उसे बहुत जानी पहचानी लग रहीं थी।

"ये हवेलो किस की है?" समर ने टाँगेवाले से पूछा।

"ये हवेली तो सालो से बंद पड़ी है। ठाकुर जी ही इसकी देख रेख करते हैं। शायद उनके किसी मित्र की है। कई वर्ष पूर्व एक दुर्घटना में ठाकुर जी का पूरा परिवार चल बसा और उन्होंने अपनी चलने फिरने की क्षमता को खो दिया।"

समर ने टाँगेवाले से हवेली के द्वार पर प्रतीक्षा करने के लिए कहा और अन्दर चला गया। उसे ऐसा लगा जैसे वह उस हवेली के हर कक्ष से, वहाँ रखी हर चीज़ से भली भाँति परिचित है। हवेली की दीवारों पर कई चित्र लगे हुए थे। समर ने अपना लाईटर जलाया और उन्हें ध्यान से देखने लगा। उसमे से एक चित्र देखकर समर के रोंगटे खड़े हो गए। उसने भयभीत होकर टाँगेंवाले को आवाज़ दी।

"क्या हुआ बाबूजी?"

"ये तस्वीर किस की है?"

टाँगेवाला आश्चर्यचकित होकर बारी बारी से चित्र को और फिर समर को देखता रह गया। उस चित्र में जो व्यक्ति था उसकी बड़ी बड़ी मूँछे थी। उसने राजस्थानी पोशाक पहन रखी थी और सिर पर बड़ी सी पगड़ी बाँध रखी थी। परतु उसका चेहरा बिल्कुल समर जैसा था।

"मुझे ठाकुर जी के पास ले चलो।" समर हड़बड़ा कर टाँगे में बैठ गया।

"तुम आ गए दिग्विजय?" ठाकुर वीरप्रताप सिंह समर को देखकर बोले।

"जी, मेरा नाम समर है।" वह कुछ देर सोच कर बोला, "कहीं आप मेरे परदादा जी की बात तो नहीं कर रहे हैं?"

"मैं अपने अपराधों के लिए तुम से क्षमा याचना करने की इच्छा से ही आज तक जीवित हूँ। तुम और रत्ना मुझे यदि क्षमा कर दोगे तो हि मुझे मुक्ति मिल सकेगी।"

"रत्ना कौन है?" समर के प्राण जैसे वह नाम सुन कर फड़फड़ा उठे।

"मेरा मित्र दिग्विजय और रत्ना एक दूसरे से प्रेम करते थे। मुझे भी रत्ना से प्रेम था और इस कारण मैंने उन दोंनो के बीच गलतफ़हमियाँ पैदा कर दीं। दिग्विजय ने रत्ना से संबंध तोड़ दिया और मुम्बई चला गया। इस दुख में रत्ना ने आत्महत्या कर ली। कुछ समय बाद मैंने पुरानी बातों को भुला दिया और विवाह कर लिया। किन्तु मुझे मेरे अपराधों का दण्ड मिल गया और मैंने अपने पूरे परिवार को खो दिया। अब मेरे पास अपना कहने को केवल एक परपोती ही शेष रह गई है।"

ठाकुर जी ने अपने नौकर से कह कर दिग्विजय और रत्ना का एक पुराना चित्र समर को दिखाया। चित्र देख कर वह समझ गया कि हवेली में उसने जो चित्र देखा था वह उसके परदादा दिग्विजय सिंह का था। उसने उन की क्षमा याचना को स्वीकार किया और मुम्बई वापस आ गया।

मुम्बई आ कर वह अपने व्यावसायिक कार्यों में व्यस्त हो गया। एक दिन उसे सूचना मिली कि एक नई पत्रकार भी आज उस के साथ काम करने के लिए आ रही है। उस ने घड़ी देखी, ग्यारह बज चुके थे। परन्तु अब तक देवी जी लापता थीं। कुछ क्षण पश्चात, फोन की घण्टी बजी। वह काॅल उस नई पत्रकार का था।

"सर, मुझे आने में थोड़ी देर हो जाएगी। मैं ट्रफ़िक में फ़सी हुई हूँ।"

समर एक क्षण के लिए स्तब्ध हो गया। उसे ऐसा प्रतीत हुआ जैसै वह ये आवाज़ पहले भी सुन चुका था।

आधे घण्टे बाद किसी ने उसके कक्ष का द्वार खटखटाया। उसने अन्दर आने के लिए कहा। जैसे ही समर ने सिर उठा कर देखा तो ड़र के मारे चीख उठा।

"ऐसा नहीं हो सकता।" समर पागलों की तरह चिल्लाने लगा। "तुम तो मर चुकी हो।"

उसके सामने रत्ना खड़ी थी।

"सर, मैं रिया हूँ। मैं ही वो नई पत्रकार हूँ।" रिया ने पानी का गिलास समर को थमाते हुए कहा। "मैं आपको सब समझाती हूँ। मैं ठाकुर वीरप्रताप सिंह की परपोती हूँ। वे अपने मित्र दिग्विजय जी से क्षमा माँगने के लिए व्याकुल थे। यह उन की अंतिम इच्छा थी। मुम्बई में अपने कुछ मित्रों की सहायता से मैंने दिग्विजय जी के परिवार का पता लगाया। रत्ना के नाम से मैंने ही आपको मेल और फोन किया था।"

"लेकिन वरुण को फ़ोन करने वाले का पता क्यों नहीं चला? और वो मेल कहाँ ग़ायब हो गया?"

"टेलीफ़ोन एक्स्चेंज में मेरी एक सहेली काम करती है। उसने मेरे कहने पर ही यह बात छुपाई थी। और वो मेल मैंने ही आपका मेल हेक कर के डिलीट किया था। मैं नहीं चाहती थी कि किसी को भी मेरी इस हरकत का पता चले।"

"ओह!" सारा मामला समर की समझ में आया तो उसने ठण्डी आह भरते हुए कहा।

"वैसे परदादा जी की एक और इच्छा भी थी। पर मैंने उन्हें अपनी कसम दे कर कहा कि वे यह बात आप से कभी न कहें। शायद आपको इस पर आपत्ति होगी।" रिया ने नज़रें झुका कर कहा।

"कौन सी इच्छा?"

"वे मेरा विवाह आप से करवा कर रत्ना और दिग्विजय का मिलन करवाना चाहते थे। उनका मानना है कि हम दोंनो के रूप में उन दोंनो का पुनर्जन्म हुआ है।"

"मैं उनकी यह इच्छा पूरी करने के लिए तैयार हूँ।"

समर ने मुस्कुरा कर रिया की ओर देखा और रिया ने शर्म से सिर झुका लिया।


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