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काश

काश

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"लड़कियों की पढ़ाई पर ज्यादा खर्च नहीं करना चाहिए वरना इनके दिमाग फिर चूल्हे चौके को छोड़ हवा में उड़ने लगती हैँ.." अपने पड़ोसी मित्र प्रेम सहाय जी के यहाँ चाय का सिप लेते हुए नवीन बाबू ने कहा।

मीता, प्रेम सहाय जी की बेटी जो अपने परा स्नातक के फार्म में अभिभावक के हस्ताक्षर के लिए अपने पिताजी के पास आई थी, हस्ताक्षर कराके मुंह बनाकर अंदर चली गई। "हम तो बेटी और बेटे में कोई अंतर नहीं रखते नवीन जी" प्रेम सहाय जी ने सामान्य भाव से उत्तर दिया और बातों का मुद्दा बदल दिया।

नवीन जी ने अपने पुत्र रितेश को जहाँ इंजीनियरिंग की पढ़ाई के लिए गांव के बाहर भेजा हुआ था वहीं पुत्री सिया की दसवीं पूरी होते ही शादी सम्पन्न कर दी थी। उनका मानना था कि लड़की तो पराया धन है उसकी पढ़ाई पर धन का खर्च व्यर्थ है।

कुछ सालों बाद वक्त ने करवट ली और सामान्य सा चलता जीवन जटिल हो गया नवीन जी के लिए, जब दामाद जी की सड़क दुर्घटना में असमय मृत्यु के बाद पुत्री सिया को ससुराल वालों ने दो मासूम बच्चों के साथ अशगुनी कहकर घर से निकाल दिया। सिया दोनों बच्चों के साथ अपने पिता के घर आ गई। बेटा रितेश अपने बीबी बच्चों के साथ हैदराबाद में रह रहा था। शांति से कटते नवीन जी के जीवन में उथल पुथल मच गई। 

इस उम्र में विधवा बेटी और उसके दो मासूम बच्चों के दुख और जिम्मेदारी का भार नवीन जी पर आ पड़ा था। अलमस्त रहने वाले नवीन जी बिखर गए।

किसी तरह से परिस्थितियों को सामान्य करने का प्रयास करने में जुट गए।

एक सुबह दरवाजे की कुंडी बजने पर नवीन जी ने दरवाज़ा खोला तो प्रेम सहाय जी की बेटी मिठाई के डिब्बे के साथ खड़ी थी।

"चाचाजी.. मेरा सलेक्शन कस्टम अॉफीसर की पोस्ट पर हो गया है..लीजिए मिठाई खाइए.." खुशी से चहकती मीता ने आत्म विश्वास भरे चेहरे के साथ एकटक देखते नवीन जी को बताया।

मिठाई का पिस उठाते हुए नवीन जी हताश मन से यही सोच रहे थे कि .."काश मैने भी अपनी बेटी को पढ़ाया होता तो वो आज यूँ बेसहारा न होती बल्कि अपने पैरों पर खड़ी होती..काश.. वक्त वापस लौट पाता.."


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