बंद खिड़की भाग 1
बंद खिड़की भाग 1
बन्द खिड़की भाग 1
सब इन्स्पेक्टर तुकाराम ने अपनी गंजी खोपड़ी पर हाथ फेरा और कुर्सी पर थोड़ा और पसरते हुए बुदबुदाया, हाय गरमी! जीवच घेशील का? (जान ही लोगी )! नासिक के कालाराम मंदिर इलाके के पुलिस स्टेशन में तैनात तुकाराम दरअसल कोल्हापुर के किसान परिवार से आता था। बारहवीं पास करने के बाद वह पुलिस में कॉन्स्टेबल की नौकरी पा गया था और अठारह सालों बाद आज सब इंस्पेक्टर के पद पर आसीन था। इतने साल की पुलिस की नौकरी का उसका रिकार्ड साफ सुथरा था। न काहू से दोस्ती न काहू से बैर! छोटे-मोटे अपराधियों की डंडा परेड कर चुकने के बाद उनसे मानधन ग्रहण कर के उन्हें विदा कर देता, इलाके के बीयर बारों को नियत समय से अधिक समय तक सेवाएं देने के लिए तुकाराम की सेवा करनी पड़ती थी लेकिन तुकाराम एकदम भ्रष्ट अधिकारी हो ऐसा भी नहीं था। एक तरह से उसे व्यवहारकुशल आदमी कह सकते हैं। वह क़ानून की तरह अंधा नहीं था अपितु अपनी सहज बुद्धि के अनुसार चलने वाला एक अधिकारी था। जो लोग जानबूझ कर क़ानून की आँखों में धूल झोंकते और गंभीर अपराध करते उनसे वह काफी सख्ती से पेश आता था और कतई समझौता नहीं करता था। शाम होने को थी। तुकाराम ने अपने इलाके की रूटीन गश्त लगाने का फैसला किया। पुलिस की कॉलिस जीप थाने के बाहर ही खड़ी थी। ड्राइवर मंगेश माने जीप के बोनट से टेक लगाए तंबाकू मल रहा था वह अपने साहब को देखते ही अलर्ट हो गया उसने झट हाथ का तंबाकू फेंका और सावधान की मुद्रा में खड़ा हो गया। तुकाराम ने आकर बगल की सीट ग्रहण की, रियर व्यू मिरर में देखते हुए अपनी टोपी का कोण सही किया और बोला, चलो! माने ने फौरन जीप आगे बढ़ा दी।
क्या अपनी रूटीन गश्त से तुकाराम किसी केस तक पहुंचा ?
कहानी अभी जारी है...
पढ़िए भाग 2