महाउद्यापन
महाउद्यापन
हमने कई तरह के कई बार १६ व्रत रखे, जैसे की १६ सोमवार, १६ गुरूवार, आदि परन्तु अपेक्षित फल नहीं मिला। न प्रमोशन मिला और न ही कहीं से अनायास धन की प्राप्ति हुई। इस बारे में अपने परिवार के पंडित जी से शिकायत की कि आपके बताये हुए व्रतो से कोई लाभ नहीं हुआ।
पंडित जी ने तुरंत पूछा की क्या हमने उद्यापन किया था। हमने जवाब में पूछा की यह क्या होता है। पंडित जी ने बताया कि, “कोई अनुष्ठान पूरा करने के लिए उसे विधि पूर्वक समाप्त करना होता है, व्रत पूरे होने पर उद्यापन भी करने की जरूरत होती है। उद्यापन बगैर व्रत का शुभ फल नहीं मिलता है इसलिये जरूरी है कि व्रत का उद्यापन किया जाए। भले ही किसी ब्राह्मण या परिजन को न बुलाया जाए या बहुत बड़ा आयोजन न करें, लेकिन सामर्थ्यानुसार एक या अधिक पड़ोसिओं को भोजन या केवल मिष्ठाआहार (जैसे की छोटी कटोरी में खीर) खिलाकर भी उद्यापन कर सकते हैं।”
खैर, बात आई गई हो गई। समय के फेर ने व्रत छुडवा दिए। बहुत सारों को छुड़ा कर, एक इष्ट ने अपना लिया। प्रमोशन भी खूब मिले और धन भी। जीवन रक्षक (अति आवश्यक) और आरामदायक आवश्यकताएँ पूरी होने में कोई परेशानी नहीं रही। विलासिता-पूर्ण आवश्यकता पूर्ण होने की कोई ख्वाहिश नहीं थी।
पिछले साल यानी की २०१७ की गर्मियों की छुट्टियों में हमारी परमज्ञानी और विलक्षण स्मरण कोष अध्यापिका धर्मपत्नी जी ७ जून को अपने मायके चली गई। सुबह का नाश्ता और दोपहर का भोजन तो काम वाली बाई और हमारे रात्री भोजन की व्यवस्था एक पड़ोसी के जिम्मे थी। पत्नी २३ तारीख को लौट कर आई, यानी की ७ तारीख से २२ तारीख तक हमने रात्री भोजन पड़ोसी के यहाँ किया, अर्थात१६ दिन।
उसके बाद हमे १६ दिन रात्री भोजन कराने वाले हमारे पड़ोसी ने अगले रविवार यानी २५ जून को हमे सपत्नी रात्रि भोजन कराया। हम उनकी सहृदयता से कृतज्ञ और आभारी थे।
लेकिन हमारी पत्नी को स्त्री स्वभावानुसार (त्रिया चरित्र अनुरूप), पड़ोसी की इतनी सह्र्दयता हज़म नहीं हो रही थी। ऐसे में पत्नी को पंडित जी की वर्षों पुरानी बात स्मरण हो आई। हमारे पडोसी धर्म कर्म के काफी ज्ञानी है, अतः हमारी पत्नी इस निष्कर्ष पर पहुंची की १६ दिन भोजन कराने का पुण्य पाने के लिए चतुर पड़ोसी ने उद्यापन स्वरूप हमे २५ जून को रात्री भोजन कराया।
लेकिन तू डाल डाल, तो मैं पात पात, पड़ोसी चतुर, तो हमारी धर्मपत्नी महा चतुर। हमारी धर्मपत्नी और पड़ोसी के बीच चूहे-बिल्ली या कुत्ते-बिल्ली का खेल चलता ही रहता था। कभी ये आगे तो कभी वो आगे। दोनों नहले पे दहला, कभी किसी की पतंग कटी कभी किसी की, लेकिन किसी के चेहरे पर शिकन नहीं। अगली चाल की तैयारी, पैतरेबाजी में कोई भी कम नहीं।
पड़ोसी द्वारा कराये गए १६ दिन के भोजन और उसके उपरान्त किये गए उद्यापन का फल कैसे अपनी ओर खींचा जाये, इस संबंध में हमारी महा चतुर धर्मपत्नी ने तुरंत निर्णय लिया। अगले रविवार यानी की २ जुलाई २०१७ रात्रि को पूरे पड़ोसी परिवार को भेंट सहित अति विशिष्ठ कई व्यंजनों वाला छकवा भोजन कराया और इसे हमारी धरेमपत्नी ने महाउद्यापन का नाम दिया।
और फिर महाउद्यापनों का सिलसिला चल निकला। हर बार एक महा जुड़ता गया। इन महाउद्यापनों के क्रम में अपनी दावते होती रही। हमें सुंदर से सुंदर भोजन मिल रहे ये ही कामना करते रहे की महफिलों यानी कि महाउद्यापनों के दौर यूँ ही चलते रहे।
हींग और फिटकिरी की फिक्र हमें कभी नहीं रही, हमें तो सिर्फ रंग से मतलब था, जो की चोखा ही चोखा था।
झूठ बोलना और झूठ लिखना हमारे स्वभाव में ही है। भगवान् झूठ ना बुलवाए, डरपोक भी अव्वल नंबर के हैं। अतः उपरोक्त सच्ची कहानी में कहीं कहीं घटनाक्रम उलट फेर कर लिखा है।