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अजनबी हमसफ़र

अजनबी हमसफ़र

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वो ट्रेन के रिजर्वेशन के डब्बे में बाथरूम के तरफ वाली एक्स्ट्रा सीट पर बैठी थी। उसके चेहरे से पता चल रहा था कि थोड़ी सी घबराहट है उसके दिल में कि कहीं टीसी ने आकर पकड़ लिया तो। कुछ देर तक तो पीछे पलट-पलट कर टीसी के आने का इंतजार करती रही। शायद सोच रही थी कि थोड़े बहुत पैसे देकर कुछ निपटारा कर लेगी। देखकर यही लग रहा था कि जनरल डिब्बे में चढ़ नहीं पाई इसलिए इसमें आकर बैठ गयी, शायद ज्यादा लम्बा सफ़र भी नहीं करना होगा।

सामान के नाम पर उसकी गोद में रखा एक छोटा सा बैग दिख रहा था। मैं बहुत देर तक कोशिश करता रहा पीछे से उसे देखने की कि शायद उसका चेहरा सही से दिख पाये लेकिन हर बार असफल ही रहा।

फिर थोड़ी देर बाद वो भी खिड़की पर हाथ टिकाकर सो गयी। और मैं भी वापस से अपनी किताब पढ़ने में लग गया। लगभग 1 घंटे के बाद टीसी आया और उसे हिलाकर उठाया।

“कहाँ जाना है बेटा।”

“अंकल अजमेर तक जाना है।”

“टिकट है?”

“नहीं अंकल... जनरल का है।”   

“लेकिन वहां चढ़ नहीं पाई इसलिए इसमें बैठ गयी।”

“अच्छा 300 रूपये का पेनाल्टी बनेगा।”

“ओह, अंकल मेरे पास तो लेकिन 100 रूपये ही है।”

“ये तो गलत बात है बेटा। पेनाल्टी तो भरनी पड़ेगी।”

 

“सॉरी अंकल, मैं अगले स्टेशन पर जनरल डिब्बे में चली जाउंगी। मेरे पास सच में पैसे नहीं हैं। कुछ परेशानी आ गयी, इसलिए जल्दबाजी में घर से निकल आई।”

और ज्यादा पैसे रखना भूल गयी।” बोलते-बोलते वो लड़की रोने लगी। टीसी ने उसे माफ़ किया और 100 रूपये में उसे अजमेर तक उस डिब्बे में बैठने की परमिशन दे दी।

टीसी के जाते ही उसने अपने आँसू पोंछे और इधर-उधर देखा कि कहीं कोई उसकी ओर देखकर हंस तो नहीं रहा था।

थोड़ी देर बाद उसने किसी को फ़ोन लगाया और कहा कि उसके पास बिलकुल भी पैसे नहीं बचे हैं। अजमेर स्टेशन पर कोई जुगाड़ कराके उसके लिए पैसे भिजवा दे, वरना वो समय पर गाँव नहीं पहुँच पायेगी।

मेरे मन में उथल-पुथल हो रही थी,  न जाने क्यूँ उसकी मासूमियत देखकर उसकी तरफ खिंचाव सा महसूस कर रहा था। दिल कर रहा था कि उसे पैसे दे दूं और कहूँ कि तुम परेशान मत हो।और रो मत लेकिन एक अजनबी के लिए इस तरह की बात सोचना थोड़ा अजीब था।

उसकी शक्ल से लग रहा था कि उसने कुछ खाया पिया नहीं हैं शायद सुबह से। और अब तो उसके पास पैसे भी नहीं थे। बहुत देर तक उसे इस परेशानी में देखने के बाद मैं कुछ उपाय निकालने लगा जिससे मैं उसकी मदद कर सकूँ और फ्लर्ट भी ना कहलाऊं। फिर मैं एक पेपर पर नोट लिखा,“बहुत देर से तुम्हें परेशान होते हुए देख रहा हूँ, जानता हूँ कि एक अजनबी हमउम्र लड़के का इस तरह तुम्हें नोट भेजना अजीब भी होगा और शायद तुम्हारी नज़र में गलत भी। लेकिन तुम्हें इस तरह परेशान देखकर मुझे बैचेनी हो रही है। इसलिए 500 रूपये दे रहा हूँ, तुम्हें कोई अहसान न लगे इसलिए मेरा एड्रेस भी लिख रहा हूँ।जब तुम्हें सही लगे मेरे एड्रेस पर पैसे वापस भेज सकती हो।वैसे मैं नहीं चाहूँगा कि तुम वापस करो... अजनबी हमसफ़र”

एक चाय वाले के हाथों उसे वो नोट देने को कहा, और चाय वाले को मना किया कि उसे ना बताये कि वो नोट मैंने उसे भेजा है। नोट मिलते ही उसने दो-तीन बार पीछे पलटकर देखा कि कोई उसकी तरफ देखता हुआ नज़र आये तो उसे पता लग जायेगा कि किसने भेजा। लेकिन मैं तो नोट भेजने के बाद ही मुँह पर चादर डालकर लेट गया था। थोड़ी देर बाद चादर का कोना हटाकर देखा तो उसके चेहरे पर मुस्कराहट महसूस की। लगा जैसे कई सालों से इस एक मुस्कराहट का इंतज़ार था। उसकी आखों की चमक ने मेरा दिल उसके हाथों  में जाकर थमा दिया। फिर चादर का कोना हटा-हटाकर हर थोड़ी देर में उसे देखकर जैसे सांस ले रहा था मैं। पता ही नहीं चला कब आँख लग गयी। जब आँख खुली तो वो वहां नहीं थी।

ट्रेन अजमेर स्टेशन पर ही रूकी थी। और उस सीट पर एक छोटा सा नोट रखा था। मैंने झटपट अपनी सीट से उतरकर उसे उठा लिया। और उस पर लिखा था...

थैंक यू, मेरे अजनबी हमसफ़र...

आपका ये अहसान मैं ज़िन्दगी भर नहीं भूलूँगी। मेरी माँ आज मुझे छोड़कर चली गयी हैं। घर में मेरे अलावा ओर कोई नहीं है, इसलिए आनन-फानन में घर जा रही हूँ। आज आपके इन पैसों से मैं अपनी माँ को शमशान जाने से पहले एक बार देख पाऊँगी।

उनकी बीमारी की वजह से उनकी मौत के बाद उन्हें ज्यादा देर घर में नहीं रखा जा सकता। आज से मैं आपकी कर्ज़दार हूँ जल्द ही आपके पैसे लौटा दूँगी। उस दिन से उसकी वो आँखें और वो मुस्कराहट जैसे मेरे जीने की वजह थे। हर रोज पोस्टमैन से पूछता था शायद किसी दिन उसका कोई ख़त आ जाये! आज 1 साल बाद एक ख़त मिला। आपका कर्ज़ अदा करना चाहती हूँ लेकिन ख़त के जरिये नहीं आपसे मिलकर। नीचे मिलने की जगह का पता लिखा था और आखिर में लिखा था...

अजनबी हमसफ़र...


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