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Yogesh Suhagwati Goyal

Drama

5.0  

Yogesh Suhagwati Goyal

Drama

सबसे पहले पढ़ाई-लिखाई

सबसे पहले पढ़ाई-लिखाई

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मेरा जन्म २७ नवम्बर १९५४ को हुआ। उस वक़्त मैं, घर में अकेला बच्चा था, इसलिये लाड़ प्यार भी बहुत होता था। हमारी माँ से ज्यादा दादी हमारा ध्यान रखती थी। मेरे पैदा होते ही पिताजी, ना जाने क्या-क्या सपने देखने लगे थे। उनको पढ़ाई-लिखाई से बहुत लगाव था। वो हमेशा कहा करते थे- सरस्वती के पीछे भागो, लक्ष्मी अपने आप आ जायेगी।

मेरे जन्म से ही वो अपने देश के प्रसिद्द पब्लिक स्कूल जैसे दून, मेयो, वुडस्टॉक, लवडेल, सिंधिया आदि में पढ़ाने के सपने देखने लगे थे। पत्रों के जरिये, वो उनके लगातार सम्पर्क में भी थे। दून और सिंधिया पब्लिक स्कूल तो देखने भी गये थे। वहाँ जाकर ही उन्हें पता लगा कि प्रवेश के लिये अंग्रेजी और गणित का स्तर बहुत अच्छा होना चाहिये।

गाँव के स्कूलों से ये आशा करना बेकार था। इस सबके बीच एक बात जो हमारे हित में थी, वो थी समय। सारे बड़े-बड़े पब्लिक स्कूल चौथी कक्षा से शुरू होते थे, यानी उनमें प्रवेश के लिये हमको तीसरी कक्षा के अंत में एक प्रवेश परीक्षा देनी थी। कुल मिलाकर हमारे पास उनकी तैयारी के लिये ३-४ साल का समय था। पिताजी एक दिन भी व्यर्थ करने के मूड में नहीं थे। उन्होंने यही सब विचार कर, हमको उन स्कूलों में प्रवेश के लिये तैयार करने की ठान ली।

उन दिनों ४ से ५ हज़ार की आबादी वाले गाँव में बहुत ज्यादा विकल्प उपलब्ध नहीं थे। कुल ही एक प्राइमरी स्कूल, एक मिडिल स्कूल और एक हाई स्कूल था। ये तीन स्कूल हमारे गाँव खेरली और आस-पास के कई छोटे-छोटे गाँवों की जरूरत पूरी करते थे। अंग्रेजी के अध्यापकों की विशेष कमी थी। हाई स्कूल में भी सिर्फ एक ही अध्यापक थे। उनका नाम था श्री जगन प्रसाद जी।

हमारे पिताश्री को तो पढ़ाई का जैसे जुनून था। जिस दिन हमारा प्रवेश पंडा बाबूजी के विद्यालय में करवाया गया, उसी वक़्त से जगन प्रसादजी को भी हमारी अंग्रेजी और गणित की जिम्मेदारी दे दी। उनको खासकर पब्लिक स्कूल वाली बात बताई गई थी।

आज जब सोचता हूँ तो बहुत आश्चर्य होता है। जगन प्रसादजी प्रतिदिन हमारे घर हमको ट्यूशन पढ़ाने आते थे। सन १९५८-५९ में हमारे ट्यूशन का बिल था ३० रू. महीने था। जी हाँ, उन दिनों के लिये ये काफी महंगा सौदा था। वो हर रोज हमको एक से डेढ़ घंटे पढ़ाते थे। इतना ही नहीं, शाम को जब पिताजी दुकान से लौटते, तो उस दिन की पढ़ाई-लिखाई का पूरा लेखा-जोखा लेते थे। आज क्या नया सीखा, क्या गलती हुई, मास्टरजी क्या काम बताकर गये है आदि।

इसी सब के साथ हमारी तैयारी जोर-शोर से चल रही थी। डेढ़ दो साल में ही फर्क दिखने लगा था। मैं हमेशा अपनी कक्षा में अव्वल रहता था। खासकर अंग्रेजी में मुझसे दो कक्षा आगे वाले भी मुकाबला नहीं कर पाते थे। हमारे पिताजी हमारी प्रगति से संतुष्ट थे। एक दिन जब हमारे मास्टरजी पढ़ाने आये तो हम घर पर नहीं थे। कुछ याद नहीं कि कहाँ थे लेकिन मजबूरी में हमको दुकान पर जाकर पिताजी को बताना पड़ा।

वो बहुत ज्यादा नाराज़ हुए। उसी वक़्त वो हमारे साथ घर आये। घर आकर बहुत डाँट लगायी और बहुत पिटाई भी हुई।

बोले- तुमको पता भी है, मैंने तुम्हारे लिए क्या-क्या सोच रखा है। अगर अपनी पढ़ाईृ-लिखाई में इस तरह से लापरवाही करोगे तो आगे कैसे बढ़ पाओगे। अपने कॉपी-किताब उठाओ और सीधे मास्टरजी के घर जाओ। उनके घर पहुँचकर अपनी अनुपस्थिति की माफ़ी माँग लेना और आगे के लिए याद रहे, सबसे पहले पढ़ाई-लिखाई।


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