आँगन की तुलसी
आँगन की तुलसी
"तुलसी, बैठो न थोड़ी देर मेरे पास।"
"जी मैं तो आपके पास ही बैठी हूँ .. कहिए क्या कहना है आपको ?"
"तुम्हारे आगे मैं स्वयं को बहुत बौना महसूस कर रहा हूँ .... तुम नहीं होती तो शायद मैं कभी भी चलने के काबिल नहीं हो पाता .."
कहते हुए मेरा गला रुँध गया....."कोई तराज़ू नहीं होता, रिश्तों का वज़न तोलने के लिए,
"फिर भी मेरे द्वारा तुम्हारे साथ किया गया व्यवहार किसी भी तराजू पर रखूँ तो भार शून्य ही आएगा।"
लकवाग्रस्त शरीर से ज्यादा मेरे अपराधों का बोझ है जो मेरे चारों तरफ कालिमा का आवरण आच्छादित करता हुआ सा प्रतीत होता है मुझे। अपना सर उसकी गोदी में रख तीन दशक पीछे चला गया..
जब तुलसी से मेरी शादी हुई तब वह केवल 17 वर्ष की नवयौवना और मैं बाइस वर्ष का छबीला नौजवान .. जो बाद में सेना में मेजर बनने के साथ ही अपने ऐश्वर्य व प्रतिष्ठा के अभिमान में नए फूलों की तरफ आकर्षित होता हुआ जूही पर जा टिका था। जब-जब मैं जूही के साथ होता ..यही लगता कि सावन की बहार है जीवन में.. छुट्टियों में घर आता तब भी तुलसी की उपेक्षा ही करता था।
तुलसी नाम से भी चिढ़ यहाँ तक थी कि सर्दियों में कभी चाय में भी माँ ने तुलसी पत्ती डाल दी तो मैं वह चाय नहीं पीता था। अचानक आये लकवे के अटैक के बाद सावन में जूही कभी नहीं खिली।
परन्तु तुलसी.. अपने साहस और समर्पण से मेरी दवा ही साबित हुई और पिछले पाँच सालों के उसके अथक प्रयास ने मुझे चलने में समर्थ बना दिया।
अचानक मेरी आँखों से ढलके आँसुओं को अपने हाथों से पोंछते हुए उसने मुझे अपना होने का अहसास दिलाया।
"काश ! मैं समय रहते समझ पाता कि मौसमी पौधे कभी भी तुलसी नहीं बन सकते।"