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होर्डिंग पर तस्वीर

होर्डिंग पर तस्वीर

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शंकर चौक पर दिहाड़ी मजदूरों की भारी भीड़ थी। राजमिस्त्री, हैल्पर, लोहा बांधने वाले, लेंटर वाले और सफेदी वाले गोलाकार फुटपाथ पर झुण्डों में खड़े थे। कुछ घेरे में बैठे हुए बीड़ियाँ फूक रहे थे। वे बेचारे रोज़ कुआं खोदने वाले ! न जाने कितने मकान बना चुके होंगे इस शहर में, न जाने कितनों के घर बस गए होंगे इनकी मेहनत से लेकिन उनकी अपनी हालत पर कुछ भी अंतर नहीं आया था वे आज भी पहले की तरह तंगहाली और अनिश्चितिता भरा जीवन जी रहे थे। काम के अनुसार ही उनके कपड़े गंदे और फटे थे, रेत मिट्टी और सफेदी से अटे हुए। वे महीनों इन्हीं कपड़ों में रहते। वे नहाये-धोए भी न थे, मानों सोए-अलसाए सीधे आकर चौक पर बैठ गए हो। अभी यद्यपि धूप निकाल आई थी फिर भी दिसंबर की ठंडी हवा बदन पर तीर सी चुभ रही थी। इसी ठंड से मुक़ाबला करते हुए सभी अपनी बाज़ुओं को छाती पर लपेटे हुए थे।

सफेदी, राज मिस्त्री का काम करवाने वाले लोग आते, रुपया तय करते और छांटकर मजदूर ले जाते मानो मानव मंडी हो। अल्लारक्खा भी हैल्परों की पंक्ति में उकड़ू-सा बैठा था। वहीं पास में ही फुटपाथ से नीचे सड़क पर उसके साथ के मिस्त्री और एक बाबू के बीच दिहाड़ी को लेकर मोल-भाव चल रहा था।

“अरे ज़रा-सा काम है!......आधी दिहाड़ी भी नहीं है......” बाबू कह रहा था, उसकी मुछों से ऊपर का होंठ छिपा हुआ था और सिर सफाचट था।

“ये तो काम देखकर ही पता चलेगा कि आधी दिहाड़ी है या दो दिन का काम निकल आया है ...”

नाटे कद का मिस्त्री तल्खी में बोला, “ हमें पता है न बाबूजी ! रोज का काम है हमारा......”

“छोड़ो यार!.....फिर कहते हैं काम नहीं मिलता। काम नहीं मिलता या काम करना नहीं चाहते !”

इतना कहकर बाबू ने मुंह फेर लिया और थोड़ा-सा आगे खिसक गया और रुककर हैल्परों की पंक्ति पर घिन भरी नज़र डालते हुए बड़बड़ाया, “....हराम मुंह लग गया है न ....इसलिए....”

बाबू की बड़बड़ाहट अल्लारखा के कानों तक पहुँच गई। बड़ा मन हुआ कि कह दे बताऊँ हराम किसके मुंह लगा है ? उसने गरदन टेड़ी कर बाबू कि ओर देखा भी लेकिन चुप लगा गया इस उम्मीद में कि शायद बात बन जाय। .......गये हफ्ते बस एक दिन की दिहाड़ी मिली थी बाकी दिन नागा रहा। इस हफ्ते ये दो दिन तो खाली.....सोचते-सोचते उसके होंठों से हवा के बुलबुले उठ आए। थोड़ी देर बाद वही बाबू फिर लौटा, ठिगने मिस्त्री को इशारे से अपनी ओर बुलाकर उसके कंधे पर हाथ रखकर नीचे बैठे हैल्परों की पंक्ति से दूर ले गया। उन दोनों की बातें सुनाई नहीं दे रही थी। कतार के हैल्परों के बीच बैठा अल्लारखा हाथ चलाते बाबू को देखता रहा। बाबू देर तक न जाने क्या-क्या समझाता रहा। मिस्त्री भी गरदन झुकाये चुपचाप सुनता जा रहा था।

अल्लारक्खा बैठा-बैठा फुटपाथ के पत्थरों के बीच उग आई दूब को छोटी उंगली से कुरेदने लगा। घास पर पकड़ न बन पाने की स्थिति में वो सिरे से पकड़ कर नोंचनें लगा। थोड़ी ही देर में मिस्त्री बाबू की बातों से बुरी तरह बिदक गया। गुस्से में बाबू से दूर हटकर ज़ोर से चिल्लानें लगा, “ईंट, बदरपुर, रेत वाले को पूरा पैसा देते हैं....चुभती हैं तो बस हमारी दिहाड़ी ......’’

उधर बाबू कुछ देर तो तनतनाता रहा फिर खीजता, बड़बड़ाता और पैर पटकता चला गया। “हमारी मेहनत...... हमें भी दो रोटी......” मिस्त्री का चेहरा गुस्से और झुंझलाहट के कारण रेखाओं से भर गया। वो बोल रहा था पर अस्पष्ट, अनिश्चित और बेमानी-सा। थोड़ी ही देर में उसका गुस्सा न रहा अब उस जगह उदासी, खीज और पश्चाताप था। वो अन्यमनस्क-सा अल्लारक्खा के सामने उकड़ू सा बैठ अल्लारक्खा सामने बैठे मिस्त्री को एकटक देखने लगा। उसके चेहरे पर सिमटी उदासी को दिल से महसूस करते हुए अल्लारक्खा का मन बैठने लगा लेकिन थोड़ी ही देर में इस परिस्थिति से उबर ठीक उलट वो तल्ख होकर बोला, “बनी नहीं न बात, मुझे पता था। ये साले बाबू दूसरों से ठगा जाएगा पर हमको दिहाड़ी देने में रो देगा” इतना कहते ही वो फिर से पत्थरों के बीच की घास कुरेदने लगा। उसकी आँखों में रातभर की अधूरी नींद और बहुत दिनों से काम न मिलने से उपजी थकान दुखन पैदा कर रही थी। आज भी खाली हाथ ! उसका दिल तेजी से धड़कने लगा। खैरू बहुत बोलेगी बड्बड़ाती रहेगी। मैं कोई जानबूझ कर तो नहीं करता आज भी सबसे पहले हम ही बैठ गए थे यहाँ वो सोच रहा था मगर उसकी खुश्क खामोश निगाहें आते-जाते लोगों पर लगी थी। कब मिस्त्री की बात बने तो वो भी चल देगा पीछे-पीछे । करना ही क्या है वहाँ बदरपुर, सीमेंट और लंबी पाईप से पानी डालकर फावड़े से मिलाना शुरू कर दूंगा....यही तो करता हूँ.......बस शाम को दिहाड़ी खरी!.....और खैरू खुश! बारह बज गये। मिस्त्री फिर चेहरे की अजीब आकृति बनाकर कुलबुलाने लगा, “अब कौन आयेगा....टैम गया! ये साला धंधा ही पिटा हुआ है।”

अल्लारक्खा बुझे मन से बुदबुदाया, “उसी बाबू पे लटक लेते, वहाँ की वहाँ देखी जाती.....अब भी तो वापस.....” इतना कहकर उसने एक लम्बी सांस छोड़ी और चुप हो गया। मिस्री खीज गया। उसे लगा आज काम न मिलने का इल्ज़ाम उसके सर आ गया हो। खड़े होकर मुंह में आए थूक को मेंहदी के झाड पर थूककर वो वहीं बैठते हुए बोला, “आधी दिहाड़ी में ही पूरे दिन रगड़ लेता वो बाबू! तू कहता है तो चल देख लेते हैं थोड़ी देर! शायद कोई भूला भटका मिल ही जाय!”

वे देर तक यूं ही गूँगों की तरह बैठे रहे। दोनों की निगाहें आने जाने वालों पर लगी थी। चौक पर मज़दूरों की भीड़ लगभग छंट चुकी थी। कुछ को काम मिल गया तो अधिकतर बेकार-नकारा ही इधर उधर चले गए। अल्लारक्खा ने सामने नजरें उठाकर देखा कतार में खाली फ्लैट थे। उसे याद आया जब फ्लैट बन रहे थे तो पाँच महीने लगातार काम मिला था। तब ठीक था...अच्छे दिन थे वे! मिस्त्री के भीतर खीज, झुंझलाहट और तल्खी जाती रही लेकिन गहरी उदासी और खामोशी ने उसके चेहरे पर जगह बना ली। “चल फिर....” धीमे से फुसफुसाते हुए वो उठ खड़ा हुआ और चलने लगा। मिस्त्री की फन्टी और औज़ारों का थैला उठाए अल्लारक्खा पीछे-पीछे पाँव घसीटता हुआ हो लिया यद्धपि उससे चला नहीं जा रहा था, टांगों में मानों कितना वज़न बंधा हो।

“ठीक ही कह रहा था तू.....कोई छोटा काम ही मिल जाता” आगे चलते-चलते मिस्त्री ने ये बात मन को हल्का करने के लिए कही। अल्लारक्खा कुछ बोला नहीं, चुपचाप मिस्त्री के कदमों के पीछे-पीछे चलता रहा अब उसे काम न मिलने का दुख न था घर पर क्या सीन बनेगा वो इस चिंता में था। वो खैरू के बारे में सोचने लगा, वो क्या बोलेगी मुझे देखते ही भड़क उठेगी! अब तक तो घरों से काम करके आ चुकी होगी! मैं भी क्या बोलूँ ? दिमाग पर पड़ रहे अनचाहे दबाव से कुछ शब्द होंठों से छिटक गए और बाहर तक आ गए, “चलो बोलने दो उसे” वे शब्द चप्पलों की ध्वनि में गुम हो गए। अब वो चारों तरफ देखता हुआ सचेत चलने लगा। मिस्त्री की आर्थेराइटिस से कमान की तरह हुई टांगों ने उसके कद को और बौना बना दिया था। वो चल रहा था और खिलौने की तरह उसके शरीर का ऊपरी हिस्सा बारी-बारी दाएँ-बाएँ झुक रहा था। अल्लारक्खा ने अचानक मिस्त्री के पावों की तरफ देखा, वे रुक गए। मिस्त्री सड़क के किनारे लगे होर्डिंग के सामने था। अल्लारक्खा के कदम भी रुक गए। न जाने क्या बात थी मिस्त्री सिर उठाए होर्डिंग पर बनी सुंदर औरत की तस्वीर को देखने लगा। अल्लारक्खा की आँखें भी बिना प्रयास तस्वीर की तरफ उठ गई। वे दोनों देर तक चुपचाप तस्वीर देखते रहे। इसी बीच अल्लारक्खा ने मानो तस्वीर को अपनी आँखों में बसा लिया हो। इधर,अचानक ही मिस्त्री के पाँव चलने लगे। अल्लारक्खा कुछ देर अपनी ही धुन में खड़ा रहा फिर मिस्त्री को वहाँ न देखकर तेज़ी से चलने लगा उसकी आँखें अभी भी होर्डिंग की तरफ थी। एक ये औरत है, चेहरे पर नूर है, खूबसूरती बाला की एक खैरू है, कभी किसी बात पर तो कभी किसी बात पर कुढ़ती रहती है, हड्डियाँ निकल आई हैं, कैसी बुझी-बुझी सी लगती है, चिड़चिड़ी! मिस्त्री के पीछे चलते-चलते वो सोचता रहा।

रिंग रोड को पार करके वे झुग्गियों में आ गए। भीतर की सड़क की शुरुआत में ही खत्ते का कचरा बाहर तक फैला हुआ था। वहीं से उठती बदबू और सड़ांध छोटे-छोटे घरों तक घुस आई थी। गायें,कुत्ते और सूअर खत्ते में अपनी-अपनी थूथने घुसेड़े हुए थे। वे दोनों मुंह पर हाथ रखे तेज़ गति से खत्ता पार कर गए। उस सड़क पर आगे की झुग्गियों में ही मिस्त्री का घर था। अल्लारखा के पाँव इस घर के आदी थे, वो यंत्रवत मिस्त्री के पीछे-पीछे भीतर घुस गया। औज़ारों के थैले और फन्टी को दीवार के सहारे टिकाते हुए बोला, “मैं चलता हूँ .....बाबू खां की दुकान पर बैठूँगा कुछ देर.....”

मिस्त्री सिर झुकाए हुए चारपाई पर बैठ चुका था उसमें कुछ भी कहने-सुनने की ताकत न बची थी। वो चुपचाप झुग्गी की चौखट से अल्लारक्खा के कदमों को बाहर जाते देखता रहा। अल्लारक्खा उस छोटी सी सड़क को पार कर बाबू खाँ की दुकान पर बिछे बिजली के खंबे पर बैठ गया। बाबू पानी के टब में साईकल की ट्यूब डुबोकर पंचर देख रहा था। साथ ही कुछ पुराने टायर, हवा भरने का पंप और कुछ औज़ार बिखरे हुए थे। एक साईकल उल्टी खड़ी थी जिसका पहिया निकला हुआ था। बाबू खाँ पंचर देखकर मुड़ा तो अल्लारक्खा को बैठे देख बोला, “अरे! अल्लारक्खा! इस वक्त......”

अल्लारक्खा चुप बैठा रहा। उसे याद आया कि उसने सुबह से कुछ नहीं खाया बस गिलास भर चाय पी थी। कुछ देर चुप रहने के बाद वो धीरे से बोला, “बाबू चाय मँगवा ले यार.......”

“मैं कह रहा हूँ आज गया नहीं क्या?” बाबू ने ट्यूब कि हवा निकाल दी और उल्टी खड़ी साईकल के पास पंजों के बल बैठ गया। “गया था यार !....वहीं से आ रहा हूँ......नहीं मिला काम।” वो तल्खी में मुंह बनाकर जल्दी-जल्दी बोला। वो काम के बाबत बात नहीं करना चाहता था। थोड़ी ही देर में बात बदलकर फिर बोला, “चाय मंगा रहा है या मैं जाऊँ?”

“मंगाता हूँ यार तू भी घोड़े पर सवार रहता है, थोड़ा सब्र तो करेगा।” बाबू खाँ पहिया चढ़ा चुका था। वो हाथ के औज़ार को नीचे रखते हुए बोला, “कुछ और काम देख ले !.........क्यों ?”

“क्या देखूँ.....?” अल्लारक्खा कि आवाज़ कहीं गहरे से आती प्रतीत हुई, उदास और बुझी हुई। उसके इस सवाल से आस-पास की हवा घुट गई। वे दोनों संज्ञा शून्य पड़ गए। जबरन चुप्पी लागू हो गई।

“चल एक बीड़ी पिला।” उसी उदासी भरी अल्लारक्खा की आवाज़ ने खामोशी तोड़ी।

“क्या?” बाबू हैरानी से बोला। वो जानता था उसे बीड़ी पीनी नहीं आती, खाली धूँआ उड़ाता है।

“दे यार.....मूड बहुत खराब है।”

अल्लारखा के साथ बाबू खां भी बीड़ी सुलगाकर बैठ गया। कुछ देर का आराम उसे भी करना था। चाय पीकर अल्लारक्खा उठ खड़ा हो गया और बिना कुछ कहे भारी कदमों से धीरे-धीरे सड़क छोड़ झुग्गियों की तंग गलियों में घुस गया। आगे-आगे के रास्ते सुरंग से होते चले जा रहे थे। खैरू घर में.....वो सोचते हुए दाहिनी ओर मुड़ा। झुग्गी का दरवाज़ा खुला था। उसकी धड़कने बढ़ने लगी। वो और धीरे हो गया। देखा जाएगा जो होगा। बड़बड़ा कर चुप हो जाएगी, उसने मन ही मन स्वयं से कहा। दरवाज़े तक पहुँचकर उसने सिर झुकाकर देखा, खैरू रोटियाँ सेक रही थी। उसने जूते बाहर खोल दिये और मुंह से ध्वनि-सी निकालता हुआ चारपाई पर बैठ गया। खैरू की पीठ उसकी तरफ थी। पीछे की दीवार से सटे दो लोहे के बक्से और ऊपर खूँटे पर अल्लारक्खा व खैरू के कपड़े टंगे थे। देर तक चुप्पी बनी रही, बस बेलन, चिमटे तथा बाहर की कुछ ध्वनि उठती रही। खैरू चुप थी, पर एक तूफान उसके भीतर सक्रिय हो रहा था। रोटियाँ बनने तक उसने अपने आप को जब्त रखा। चकला-बेलन दीवार के साथ सटाकर खैरू पलटी, आँखें मिलते ही तल्खी में मुंह बनाकर बोली, “थक गए होंगे? क्यों?”

अल्लारक्खा ने मुंह में पैदा हुए थूक को भीतर घटक लिया पर कहा कुछ नहीं। बस तुम्हें काम नहीं मिलता तुम्हारे लिए दुनियाँ में कोई काम ही नहीं रहा। लूले-लँगड़े भी कुछ न कुछ कमा लाते है शाम तक। पर तुम हो! अल्ला ने मेरी कैसी किस्मत लिखी है जो तुम आए मेरे नसीब में! पिछला पूरा महीना खाली निकल गया। फाकों की नौबत आन पड़ी है। कहते-कहते खैरू रूँआसी हो गई। देर तक सिसकियाँ लेती रही। उस धीमी दर्दभरी आवाज़ से अललारक्खा का अंतर कांपने लगा। ‘फाकों की नौबत आन पड़ी है’ यही प्रतिध्वनियाँ उसके दिमाग में गूंजने लगी। वो चुप था पर भीतर ही भीतर खुद को लानत भेज रहा था। बताओ खाने तक के पैसे नहीं कमा पा रहा होगा कोई मेरे जैसा नकारा! वो बैठे-बैठे आंखे मूँद कर सोचता रहा। खैरू की सिसकियाँ कुछ देर में बंद हो गई। उसने कुर्ते के किनारे से आँखें पोंछ ली और उसी चारपाई पर एक कोने में दुबकी लेट गई। अल्लारक्खा बुत बना वहीं बैठा रहा। अभी-अभी बनी रोटियाँ कपड़े में लिपटी रखी थी। अब खाने का किसी का मन नहीं था। दिनभर के काम से थकी-मांदी खैरू को वहीं नींद आ गई। घंटे भर तक अल्लारक्खा भी बिना हिले-डुले उसी जगह पर बैठा रहा और फिर उठकर झुग्गियों से बाहर आ गया। चार बजे उठकर खैरू घरों में काम करने चली गई। अल्लारक्खा के लिए शाम उदास बनी रही। वो अंधेरा होने पर भी लाईट जलाए बिना बैठा रहा। उसे अंधेरा सुहा रहा था। नौ बजे के करीब जब खैरू ने दरवाज़ा खटखटाया तब जाकर उसने बत्ती जलाई और दरवाज़ा खोला।

“बत्ती भी नहीं जलाई” खैरू भीतर कदम रखते हुए बोली।

“मन ही नहीं किया।”

“बहुत दिनों से देख रही हूँ मस्जिद भी नहीं जाते।”

अल्लारक्खा कुछ न बोला। बस एक लंबी सांस खींचकर छोड़ दी। खैरू ने रोटियाँ और सब्ज़ी गरम की और दोनों बिना कुछ कहे खाने बैठ गए। बाहर से कुछ आवाज़ें आती रही लेकिन वे दोनों सिर झुकाये खाते रहे। खाने के थोड़ी ही देर बाद अल्लारक्खा उठ खड़ा हुआ। दीवार से सटे पानी के ड्रम से मग्गा भर बाहर गली में मुंह धो आया। पुराना स्वेटर पहनकर दीवार पर लगे टूटे हुए शीशे के सामने खड़े होकर कंघी करने लगा। चारपाई के नीचे से जूते निकाल कर पहन लिए। खैरू निगाहें नीची किये सब कुछ देखती रही। अल्लारखा ने काले बक्से के ऊपर रखे पुराने कम्बल को खोलकर ओढ़ते हुए धीमे से कहा, “मैं जा रहा हूँ” और दरवाज़े को धकेलते हुए कदम बढ़ाया ही था कि खैरू ने हाथ पकड़ लिया और तिरछा सिरकर पलकें उठाते हुए बोली, “जा रहा हूँ मतलब? ये कौन-सा वक्त है?”

“काम पर जा रहा हूँ” अल्लारक्खा का चेहरा अभी भी खुले दरवाज़े बाहर फैले अंधेरे कि तरफ

“काम पर! इतनी रात?” खैरू ने हैरानी से कहा, वो अभी भी उसका हाथ पकड़े हुए थी।

“हाँ।”

“पर कहाँ?” हैरानी खैरू के चेहरे पर जम गई थी।

“बब्बन के........”

“कौन?......वो सांसी!” खैरू से उसका हाथ छूट गया। वो हथेली को मुंह पर पर रखकर बोली,

“हाय!.....अब तुम ये काम करोगे? मुसलमान हो, शराब हराम कही गई है, इत्ता तो खयाल करो”

“और काम भी तो नहीं है” इतना कहते-कहते अल्लारक्खा की आवाज़ टूट गई वो आगे न बोल सका।

“तुम बाहर क्या देख रहे हो? मेरी तरफ देखो।” खैरू ने नीचे उतरकर उसका चेहरा अपनी ओर रोशनी में घुमा दिया। वो आँखें बंद किए चुप खड़ा रहा मगर महीनों से भीतर झेलते त्रास की अभिव्यक्ति स्तर पर उभर आई। खैरू ने देखा आंसुओं की गिनी-चुनी कीमती बूंदें उसकी आँखों के गोल घेरों को लांघ कर बाहर ढुलक आई थी। उसने पहले कभी उसे रोते हुए नहीं देखा था। वहाँ हवा में एक अजीब-सी खामोशी छा गई। अभी छोटा-सा पल ही बीता था कि कुछ हल्की ध्वनि के साथ खैरू की आखों से आंसुओं का चश्मा फूट पड़ा। देर तक सिसकियों के बीच खामोशी महफूज़ बनी रही। बहुत कुछ कह दिया था मैंने, बेचारा ! खैरू मुंह पोछते हुए सोचने लगी फिर कुछ देर बाद बनावटी गुस्सा चेहरे पर लाकर बोली, “कहीं नहीं जाना रात में ! काम नहीं है तो न सही। फिर मैं जो करती हूँ, हमारी चल जाएगी इत्ते से!” खैरू ने उसका हाथ पकड़ कर खींच लिया और बिस्तर पर बैठा लिया। दरवाज़ा ढक कर उसके साथ बैठते हुए आत्मीयता से बोली, “दिन में मिलता है तो ठीक है, रात में नहीं! बाकी खुदा देखेगा!”

अल्लारखा उसके चेहरे को गौर से देखता रहा। उसे होर्डिंग पर बनी औरत की तस्वीर याद आ गई। सुंदर थी वो! पर खैरू-सी नहीं! मन की अच्छी है मेरी खैरू! तस्वीर आखिर तस्वीर है न वो प्यार करती है न रोती है, खैरू की तरह!

रात बहुत हो चली थी। अल्लारखा ने कंबल तह कर बक्से पर रख दिया। बाहर पाला पड़ रहा था, ठंड बेतहाशा बढ़ती जा रही थी। खैरू रोज़ रात नीचे फर्श पर अलग बिस्तर लगाती थी। पहले चटाई बिछाती, पुरानी दरी के टुकड़े और फिर गुदड़ी। ये नियम था, मगर आज अवेहलना कर दी गई। न चटाई बिछी, ना पुरानी दरी के टुकड़े और न गुदड़ी। उसने कुछ न किया, बस बिजली के लट्टू को बुझा कर अंधेरा कर दिया। वे जहां बैठे थे उसी बिस्तर की रज़ाई में दुबक गए। खैरू के नाजुक स्पर्श में लेट अल्लारखा हैरान था।

“सुनो, मुझे एक घर और मिल गया है” ये खैरू की आवाज़ थी।


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