99 प्रतिशत भारतीय
99 प्रतिशत भारतीय
NH 24 के भारी ट्रॅफिक में 15 .की.मी की गति से अपनी मोटरसाइकल दौड़ाते हुए मैं सोच रहा था की क्यों आज मेरे प्रोफेसर ने मार्कण्डेय काटजू के उस बयान का समर्थन किया? क्यों उन्होने ये कहा कि वो इस बात से सहमत हैं की 99 प्रतिशत भारतीय बेवकूफ़ हैं? अरे भाई कमाल है! ऐसे कैसे सभी भारतीय बेवकूफ़ हो सकते हैं! उन्होने कहा की भारतीय कंडक्टर तमीज़ से बात करना नहीं जानते. पर मैने सोचा क्यों भाई, कुछ कंडक्टर ऐसे भी तो होंगे जो एक ग़रीब सवारी को देख कर उससे पैसे लेने से मना कर देते होंगे? या अगर वो बदतमीज़ हैं तो हो सकता है उसकी भी कुछ वजह हो. हो सकता है की उन्होने दिन भर इतने बुरे लोगों से बात की हो कि अब उनका अच्छे से बात करने से मन उठ गया है. हो सकता है उनके हालातों ने उन्हे बदतमीज़ बना दिया हो!
ट्रॅफिक थम सा गया और साथ ही साथ मैं भी; पर मेरे विचार अब भी ज़ोर पर थे. आख़िर क्यों प्रोफेसर साहब ने ये कहा कि इस देश में लोगों को गाड़ी चलाने की तमीज़ नहीं है. एकाएक पीछे से हॉर्न बजा और मैने देखा की मेरे पीछे वाले साहब कुछ जल्दी में थे. क्योंकि मेरी मोटरसाइकल उड़ नहीं सकती, मैने डिवाइडर पर बाइक चढ़ाई और रॉंग साइड चलने लगा. मेरे रुके हुए ख़याल भी चलने लगे. प्रोफेसर साहब ने कहा कि हम भारतीयों को हाइवे पर चलने की तमीज़ नही है. अर्रे उन्हे क्या पता कि हाइवे कितनी ख़तरनाक जगह है! ये भी जंगल की तरह है. इसके अपने ही क़ानून हैं.
खैर, अब ट्रॅफिक ज़रा कम हुआ और मैं आराम से सड़क की सही ओर आकर अपनी रेग्युलर 18 कि.मी की गति से चलने लगा. ग़लत सोचते हैं प्रोफेसर साहब. 99 प्रतिशत भारतीय बेवकूफ़ नहीं हैं.
घर पंहूचने ही वाला था कि ट्रॅफिक फिर थम गया. अब मेरे आगे एक ठेले वाला था जिसके ठेले पर लौकिया रखी थी और मेरे पीछे आपे वाले ऑटो की एक लंबी कतार थी. 8 लोगों की जगह वाले आपे में 15 लोग बैठे थे. जैसे ही ट्रॅफिक खुला, ऑटो आगे बढ़ा, मैं नही बढ़ पाया. अब ऑटो और ठेला बराबर में थे. ऑटो में सबसे आगे बैठे व्यक्ति ने एकदम से हाथ बाहर निकाला और चालाकी से लौकी उठा ली. पर चालाकी ज़्यादा करने के कारण और ऑटो चलने के कारण उसका हाथ वहीं फँस गया. अब ऑटो वाला तो ऑटो चलाने का काम करता है न! लौकी उठाने की स्कीम का उसे क्या पता? हमारे नटखट लौकी चोर बेचारे बीच सड़क पर गिर गये और लौकी भी हाथ से छूट कर कहीं गिर गयी.
आगे का माजरा देखने का मन तो बहुत था पर पीछे रुके ऑटो वाले और गाड़ी वाले क्रमशः गालियों और हॉर्न की बरसात करने लगे इसलिए चलना ही बेहतर समझा. कौन जाने उस भले लौकी चोर का क्या हुआ होगा जिसने एक लौकी के लिए अपनी जान जोखिम में डाल ली! इस बात को भूल कर मैं फिर से सोचने लगा, ग़लत कहते हैं प्रोफेसर साहब...