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Sudha Adesh

Drama Tragedy

2.9  

Sudha Adesh

Drama Tragedy

उसे किसने मारा ...?

उसे किसने मारा ...?

17 mins
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आज आकाश चला गया... डाक्टर कहते हैं कि उसकी मृत्यु सीवियर हार्ट अटैक से हुई है पर मैं कहती हूँ कि उसे जमाने ने मृत्यु के आगोश में ढकेला है। उसे आत्महत्या के लिये मजबूर किया है। हाँ आत्महत्या... आप सब सोच रहे होंगे कि आकाश की मृत्यु के बाद मैं पागल हो गई हूँ। हाँ... हाँ मैं पागल हो गई हूँ। आज मुझे लग रहा है, इस दुनिया में जो सच्चा है, ईमानदार है, कर्मठ है, वह शायद पागल ही है...। यह दुनिया उनके रहने लायक नहीं है... तभी तो मेरे आकाश को उस जुर्म की सजा मिली जो उसने किया ही नहीं।


आज भी ऐसे पागल इस दुनिया में मौजूद हैं... अपने उसूलों पर चलते हुए शायद वे भी आकाश की तरह ही सिसकते-सिसकते मौत को गले लगा लें पर इससे दुनिया को क्या फर्क पड़ने वाला है, वह तो यूँ ही चलती जायेगी, सिसकने के लिये रह जायेंगे उसके मासूम घर वाले।

         

वसुधा के आते ही दीपाली रोते हुए बोली थी । दीपाली का प्रलाप सुनकर चौंक उठी थी वसुधा...। दीपाली उसकी प्रिय सखी थी। उसके जीवन का हर राज उसका अपना था। यहाँ तक कि उसके घर अगर एक गमला भी टूटता तो उसकी खबर उसे लग ही जाती थी। उन दोनों की अंतरंग मित्रता के परिमाणस्वरूप आकाश और सुभाष भी घनिष्ठ मित्र बन गये थे। यही कारण था कि आकाश को हुये हार्ट अटैक की खबर सुनकर वसुधा एवं सुभाष, उसके साथ बिताये खुशनुमा पलों को आँखों में संजोये, उसके शीघ्र स्वस्थ होने की कामना करते हुए शीघ्रातिशीघ्र आ गये थे पर जब तक वह पहुँच पाये सब कुछ समाप्त हो गया था।

   

दीपाली का प्रलाप आज की व्यवस्था पर चोट करने के साथ, सबको सोचने के लिये भी मजबूर कर रहा था। लेकिन क्या आकाश की हालत के लिये वह स्वयं जिम्मेदार नहीं थी? वह उसकी जीवनसाथी थी। आकाश के हर सुख-दुख में शामिल होने का उसका हक ही नहीं, कर्तव्य भी था। क्या वह उसका साथ दे पाई ? शायद नहीं, अगर ऐसा होता तो इतनी कम उम्र में उसका यह हश्र न होता... एकाएक उनका पूरा जीवनवृत्तांत उसकी आँखों के सामने से चलचित्र की भांति गुजरने लगा।       

        

आकाश एक साधारण किसान परिवार से था। पढ़ने में तेज, धुन का पक्का। मन में एक बार जो ठान लेता उसे कर के ही रहता था। उसका अच्छा खाता-पीता परिवार था, अभाव था तो सिर्फ शिक्षा का। उसके पिताजी ने उसकी योग्यता को पहचाना। गाँव के स्कूल में प्रारंभिक शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने अपने घर वालों के विरोध के बावजूद उसे उच्च शिक्षा के लिये शहर भेजा। शहर की चकाचौंध से कुछ पलों के लिये वह भ्रमित हो गया। वहाँ की तामझाम गिटर-पिटर अंग्रेजी बोलते बच्चों के बीच उसे लगा था कि वह सामंजस्य नहीं बिठा पायेगा, पर धीरे-धीरे अपने आत्मविश्वास के कारण अपनी कमियों पर विजय प्राप्त करता गया तथा अव्वल आने लगा। जहाँ पहले उसके शिक्षक और मित्र उसके देहातीपन को लेकर मजाक बनाते रहते थे, उसकी योग्यता के कायल होने लगे। धीरे-धीरे वह सभी का प्रिय बनता गया। हायर सेकेंडरी में जब वह पूरे राज्य में प्रथम आया तो अखबार में नाम देखकर पूरे घर भर की छाती गर्व से फूल उठी थी।

         

उसी वर्ष उसका रीजनल इंजीनियरिंग कालेज इलाहाबाद में सलेक्शन हो गया। आकाश के पिता ने अपनी सारी जमापूंजी लगाकर उसका दाखिला करवा दिया। यही बात उसके बड़े भाई को बुरी लगी। कुछ वर्षो से फसल भी अच्छी नहीं हो रही थी। भाई को लग रहा था मेहनत वे करते हैं, पर उनकी कमाई पर मजा वह लूट रहा है। कहते हैं कि ईर्ष्या से बड़ा जानवर कोई नहीं होता। वह कभी-कभी इंसान को पूरा निगल जाता है। उसके भाई का यही हाल था। उसके वहशीपन का शिकार उसके माता-पिता बन रहे थे पर वह अपने पुत्र के हाथों विवश हो गये थे। छुट्टियों में जब वह घर गया तो उसकी पारखी नजरों से घर में फैला विद्वेष तथा माँ और पिताजी के चेहरे पा छाई दयनीयता छिप न सकी। माँ ने अपने कुछ जेवर छिपाकर उसे देने चाहे तो उसने लेने से मना कर दिया।

        

एक दृढ़ निश्चय करके आकाश लौटा। कुछ ट्यूशन कर ली। साथ ही इंजीनियरिंग के प्रथम वर्ष में प्रथम आने वे कारण उसे स्कालरशिप भी मिलने लगी। उसका अपना खर्चा निकलने लगा। इंजीनियरिंग करते ही उसे सरकारी नौकरी मिल गई। नौकरी मिलते ही वह अपने माता-पिता को अपने साथ ले आया। भाई ने भी चैन की साँस ली पर पानी होते रिश्तों को देखकर आकाश का मन रोने लगा था।

        

सरकारी नौकरी मिलते ही आकाश के विवाह के लिये रिश्ते आने प्रारंभ हो गये। वैसे भी अभी ट्रेनिंग ही चल रही है अतः आकाश अभी कुछ दिन विवाह नहीं करना चाहता था पर माँ की आँखों में सूनापन देखकर उसने बेमन से ही विवाह की इजाजत दे दी।

       

माता-पिता के साथ हमेशा साथ रहने की बात जानकर कुछ परिवारों ने आगे बढ़े कदम पीछे खींच लिये। अभी तक तो वह भाइयों के रूख के कारण दुखी रहा करता था पर अब पूरे समाज में व्याप्त एक अजीब मानसिकता तथा आपसी रिश्तों में आती संवेदनहीनता को महसूस कर, मन ही मन आहत हो उठा। तभी उसके मस्तिष्क ने दिल को समझाया, सिर्फ कुछ परिवारों के रूख को देखकर पूरे समाज के प्रति धारणा बना लेना उचित नहीं है... आखिर कोई तो होगा जो परिवार और रिश्तों की अहमियत को समझेगा। 

    

माता-पिता को इस बात का एहसास हुआ तो वे स्वयं को दोषी समझने लगे तब उसने उनको दिलासा देते हुए कहा, ‘आप स्वयं को दोषी क्यों समझ रहे हैं ? यह तो अच्छा ही हुआ समय रहते इनकी असलियत खुल गई। जो रिश्तो का सम्मान करना नहीं जानता, उनमें छिपी सुगंध से अपने जीवन को सुरभित करना नहीं जानता, वह भला अन्य रिश्ते कैसे निभा पायेगा ? रिश्तों में स्वार्थ नहीं समर्पण होना चाहिए।’

        

आखिर एक ऐसा परिवार मिल ही गया... माता-पिता के साथ में रहने की बात सुनकर लड़की के भाई विवेक ने कहा, ‘हमने माता-पिता का सुख नहीं भोगा पर मुझे उम्मीद है कि आपके सानिध्य में मेरी बहन को यह सुख नसीब हो जायेगा।’

         

विवेक और दीपाली के माता-पिता बचपन में ही स्वर्ग सिधार गये थे। उनके चाचा-चाची ने उन्हें पाला था पर धीरे-धीरे रिश्तों में आती कटुता ने उन्हें अलग रहने को बाध्य कर दिया। विवेक ने जैसे तैसे एक नौकरी तलाशी तथा बहन को लेकर अलग हो गया। नौकरी करते-करते ही उसने अपनी पढ़ाई जारी रखी बहन को पढ़ाया तथा वह स्वयं एक अच्छी जगह नौकरी कर रहा है।

        

दीपाली और विवेक आचार और व्यवहार से अच्छे और संस्कारित लगे। उसे धनदौलत नहीं, पढ़ी-लिखी तथा संस्कारवान पत्नी चाहिए थी अतः विवाह के लिये सहमति दे दी। दीपाली ने घर अच्छी तरह से संभाल लिया था। माता-पिता भी बेहद खुश थे। घर में सुकून पाकर आफिस के कामों में भी मन रमने लगा। उसकी ट्रेनिंग समाप्त होने के साथ ही अब उसे स्वतंत्र विभाग दे दिया गया।  

        

आकाश ने जब संबंधित विभाग की फाइलों को पढ़ा तथा स्टोर में जाकर सामान का मुआयना किया तो सामानों की खरीद में हेराफेरी देख वह सिहर उठा। पेपर पर दिखाया कुछ जाता खरीदा कुछ और जाता। कभी-कभी आवश्यकता न होने पर भी खरीद लिया जाता। सरप्लस स्टाक इतना था कि उसको कहाँ खपाया जाये, वह समझ नहीं पा रहा था। अपने सीनियर से इस बात का जिक्र किया तो उन्होंने कहा, ‘अभी नये-नये आये हो, इसलिये परेशान हो। धीरे-धीरे इसी ढर्रे पर ढलते जाओगे... जहाँ तक सरप्लस सामान की बात है, उसे पड़ा रहने दो, कुछ नहीं होगा।’

        

लोगों का एटीट्यूड देखकर आकाश चकित था पर चुप रहने के अतिरिक्त कोई चारा भी नहीं था। एक दिन वह अपने आवास पर आराम कर रहा था कि एक सप्लायर आया। वह कुछ कहता उससे पहले ही उसने उसे एक पैकेट पकड़ाया...

        

‘यह क्या है...?’ उसने पूछा।

         

‘स्वयं देख लीजिए, सर...।’

        

पैकेट खोला तो खून जम गया...

        

‘तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई, यह पैकेट मुझे पकड़ाने की...?’

         

‘सर, आप नये हैं, इसलिये जानते नहीं हैं, यह आपका हिस्सा है।’

       

‘पर मैं इसे नहीं ले सकता।’

        

‘सबके कमीशन बंधे हैं हमें देना ही पड़ता है...।’

        

‘मैंने कहा न, मैं इसे नहीं ले सकता...।’

        

‘यह आपकी मर्जी सर, पर ऐसा करके आप बहुत बड़ी भूल करेंगे... आखिर घर आई लक्ष्मी को कोई ऐसे ही नहीं लौटाता है।’

        

‘अब तुम यहाँ से जाओ... वरना मैं पुलिस को बुलवाकर तुम्हें रिश्वत देने के आरोप में गिरफ्तार करवा दूँगा।’

        

‘ऐसी गलती मत कीजिएगा... यह इल्जाम तो मैं आप पर भी लगा सकता हूँ।’ निर्लज्जता से उसने मुस्कराते हुए कहा।

        

अपमान और क्षोभ से खून सा जम गया था आकाश का। वह तो गनीमत थी कि माँ-पिताजी मंदिर तथा दीपाली अपनी किसी सहेली से मिलने गई थी।

        

अगले दिन अपने सहयोगी से बातें की तो उसने कहा, ‘इसमें तुम और मैं कुछ नहीं कर सकते, यह तो वर्षों से चला आ रहा है। जो भी इसमें अड़ँगा डालने का प्रयत्न करता है, उसका या तो स्थानांतरण करवा देते हैं या फिर झूठे आरोप में फँंसाकर घर बैठने को मजबूर कर देते हैं, वैसे भी घर आई लक्ष्मी को ठुकराना मूर्खता है।’

        

आकाश ने उसी क्षण निर्णय लिया था कि और लोग चाहे जो भी करें पर वह इस पाप की कमाई में हाथ भी नहीं लगायेगा। वैसे भी पहली बार नौकरी पर जाने से पूर्व जब वह पिताजी से आशीर्वाद लेने गया था तो उन्होंने कहा था, ‘बेटा, जिंदगी की डगर बड़ी कठिन है पर जो कठिनाइयों को पार करके आगे बढ़ता जाता है निश्चय ही सफल होता है। कामनाओं की पूर्ति के लिये ऐसा कोई काम मत करना जिसके लिये तुम्हें शर्मिन्दा होना पड़े। जितनी चादर हो उतने ही पैर फैलाना।’

        

वह उनकी बातों को शिराधार्य करके जीवन की नई डगर पर नई आशाओं के साथ चल पड़ा था। अपनी पत्नी दीपाली को अपना निर्णय सुनाया तो दीपाली ने भी उसकी बात का समर्थन कर दिया। तब उसे लगा था जीवनसाथी का सहयोग जीवन की कठिन से कठिन राहों पर चलने की प्रेरणा देता है। 

        

पग-पग पर कठिनाइयाँ आई पर वह विचलित नहीं हुआ। बार-बार स्थानांतरण तो कभी सीनियर्स द्वारा व्यावहारिक बनने की सीख मिली पर उसने अपने उसूलों से समझौता नहीं किया। उसे लगता किसी ने सच ही कहा है कि सच्चाई का रास्ता दुर्गम तथा कंटकाकीर्ण है पर यह भी सच है कि जो कंटीली राहों में चलकर भी अपनी मंजिल प्राप्त कर लेता है वही मानवता का सच्चा पुजारी है। 

    

काम को आकाश ने बोझ समझकर नहीं वरन् पूजा समझकर अपनाया था। सब कुछ सह सकते थे पर पूजा में विघ्न नहीं। पूजा को सम्पूर्ण करने के लिये वह ऐसे जुट जाते थे कि न दिन देखते और न ही रात... इसके लिये उन्हें अपने परिवार से भी भरपूर सहयोग मिला।

    

सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। अच्छा ओहदा, सम्मान, सुंदर पत्नी, पल्लव और स्मिता जैसे प्यारे बच्चे, दशरथ कौशल्या जैसे जनक और जननी...। अपने काम के साथ दीपाली के सहयोग से बूढ़े माता-पिता की जिम्मेदारी भी वह सहर्ष निभा रहा था आखिर उन्होंने ही उसे इस मुकाम पर पहुँचने में मदद की थी।

        

जैसे-जैसे खर्चे बढ़ने लगे दीपाली अपने वायदे से मुकरने लगी। महीने का अंत होता नहीं था कि हाथ खाली होने लगता। उस पर बूढ़े माता-पिता के साथ दो बच्चों का खर्चा अलग से बढ़ गया था। दीपाली अक्सर अपनी परेशानी का जिक्र विशाखा से करती। वह उसे संयम से काम लेने के लिये कहती पर उस पर तो जैसे कोई जुनून ही सवार हो गया था आकाश की बुराई करने का...। वह चाहने लगी थी कि आकाश भी औरों की तरह ढेर सारा पैसा कमाये। आखिर इसमें बुराई क्या है...?

   

यह वही दीपाली थी जो एक समय आकाश की तारीफ करते-करते नहीं थकती थी, वही अब बुराई करते-करते नहीं थकती थी। इंसान में इतना परिवर्तन कब क्यों औेर कैसे आ जाता है, विशाखा समझ नहीं पा रही थी। आखिर कोई औरत अपनी महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिये पति से वह सब क्यों करवाना चाहती है जो वह करना नहीं चाहता। दीपाली के अपने व्यवहार के कारण उसके आकाश के बीच की दूरी बढ़ती जा रही थी तथा वह चाहकर भी कुछ कर नहीं पा रही थी।

        

दीपाली कहती, ‘वसुधा आखिर इनकी इमानदारी से किसी को क्या फर्क पड़ता है। जो इनकी सच्चाई पर विश्वास करते हैं वह इन्हें गलत प्रोफेशन में आया गलत आदमी कहकर इनका मजाक बनाते हैं और जो नहीं करते वे भी कह देते हैं कि भई हाथी के दाँत खाने के और, और दिखाने के और, भला आज के जमाने में ऐसा भी कहीं हो सकता है...?’

         

बाहर तो बाहर आकाश घर में भी शिकस्त खाने लगा था। पत्नी और बच्चों के चेहरे पर छाई असंतुष्टि उसे अक्सर सोचने को मजबूर करती कि कहीं वह गलत तो नहीं कर रहा है पर उसके अपने संस्कार उसको कुछ भी गलत करने से सदा रोक देते।

        

छोटी-छोटी बातों पर तकरार आम बात हो गई थी। एक दिन पल्लव ने क्रिकेट किट की माँग की। यद्यपि उसकी कोई बड़ी माँग नहीं थी पर उस महीने इनकम टेक्स में वेतन का काफी हिस्सा कट जाने के कारण हाथ तंग था अतः उसने अगले महीने दिलवा देने के लिये कहा तो वह झट कह उठा, ‘इसका मतलब आप खरीदवाओगे नहीं... अगले महीने फिर अगले महीने दिलवाने की कहकर टाल दोगे...।’

        

पाँच वर्ष के बच्चे के मुख से यह बात सुनकर वह दंग रह गया था। यह वाक्य उसका स्वयं का नहीं वरन् उसकी माँ का था जो अपनी किसी डिमांड के पूरा न होने पर इसी तरह का ताना देती रहती थी। कभी उसे अपना वायदा याद दिलाता तो कह देती, ‘वह तो मेरी नादानी थी, पर अब जब दुनिया के रंग ढंग देखती हूँ तो लगता है कि तुम्हारे इस खोखले दंभ के कारण हम कितनी परेशानी का सामना कर रहे हैं। तुम्हारे जैसे लोग जहाँ आज नई कार खरीदने में जरा भी नहीं सोचते वहाँ हमें रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिये अगले महीने का इंतजार करना पड़ता है। कार भी खरीदी तो वह भी सेकेंड हैंड... मुझे तो उसमें बैठने में भी शर्म आती है।’

       

‘दीपाली, इच्छाओं की कोई सीमा नहीं होती। वैसे भी घर सामानों से नहीं उसमें रहने वाले इंसानों के आपसी प्यार और विश्वास से बनता है।’ आकाश उसे समझाने की कोशिश करते हुये कहता।  

        

‘प्यार और विश्वास भी वहीं होगा, जहाँ व्यक्ति संतुष्ट होगा, उसकी सारी इच्छायें पूरी हो रही होंगी।’

       

‘तो क्या तुम सोचती हो जिन्हें तुम संतुष्ट समझ रही हो, उनमें कोई असंतुष्टि नहीं है। उनके घर जाकर देखो तो पता चलेगा कि वे हमसे भी ज्यादा असंतुष्ट हैं...।’

       

‘बस, रहने भी दीजिए...कोरे आदर्शो के सहारे दुनिया नहीं चलती।’

        

‘अगर ऐसा ही है तो तुम आजाद हो, अपनी नई दुनिया बसा सकती हो, जैसे चाहे रह सकती हो।’ तिलमिलाकर आकाश ने कहा था।

        

‘बस अब यही तो सुनने को रह गया था...।’ कहकर वह रोती हुई चली गई।

    

आकाश वहीं बैठे-बैठे अपने सिर के बाल नोंचने लगा। उस बार उन दोनों के बीच लगभग हफ्ते भर अबोला रहा। उनके झगड़े इतने बढ़ गये थे कि बच्चे भी सहमने लगे थे। कभी-कभी लगता कहीं इन दोनों की तकरार के कारण कहीं वे अपना स्वाभाविक बचपन न गँवा बैठें।

    

इसी की आशंका जाहिर करते हुए वसुधा ने जब-जब दीपाली को समझाना चाहा तब-तब एक ही उत्तर मिलता, ‘यह बात मैं भी समझती हूँ वसुधा, पर केवल दाल-रोटी से ही तो काम नहीं चलता। अभी बच्चे छोटे हैं, बड़े होंगे तो उनकी पढ़ाई शादी-विवाह में भी तो खर्चा होगा। अगर अभी से कुछ बचत नहीं कर पाये तो आगे कैसे होगा...?’

        

रोते-धोते जिंदगी घिसटती जा रही थी। पहला झटका आकाश को तब लगा जब उसके पिताजी को हार्ट अटैक आया। उनकी तीन धमनियों में ब्लाक था अतः डाक्टर ने उन्हें बाई पास करवाने की सलाह दी। उस समय उसके पास इतने पैसे नहीं थे कि स्वयं अपने खर्चे पर उनका इलाज करवा पाता। वह उसके आश्रित थे अतः कंपनी के कानून के अनुसार उनकी बीमारी का खर्चा उसे कंपनी से मिल सकता था अतः उसने एडवांस के लिये एप्लाई कर दिया। कागजी खाना पूर्ति में लगभग दो महीने निकल गये।

    

आकाश पिताजी को लेकर अपोलो गया। आपरेशन के पूर्व टेस्ट चल ही रहे थे कि उन्हें दूसरा अटैक आया, उन्हें बचाया नहीं जा सका। डाक्टरों ने सिर्फ इतना ही कहा, ‘काश! आप इन्हें पहले ले आते।’

         

वह हाथ मलता हुआ लौट आया था। माँ पिताजी से बिछड़ने का दुख सह नहीं पाई तथा कुछ ही महीनों के अंतर पर उन्होंने भी मृत्यु को गले लगा लिया।

        

वह टूट गया था। उसे भी ज्यादा उसे इस बात का था कि पैसों के अभाव में वह माता-पिता को उचित चिकित्सा प्रदान नहीं कर पाया। जब-जब इस बात से उसका मन उद्वेलित होता, पिताजी की सीख, उनके दिये संस्कार उसके इरादों को और मजबूत कर देते। अंग्रेजी में एक कहावत है ‘ग्रिन एन्ड बियर’ अर्थात् सहो और मुस्कराओ, उसके जीने का संबल बन गई थी।

         

माँ-पिताजी को तो वह खो चुका था... जीवन में अजीब सा सूनापन छा गया था। स्मिता अभी छोटी थी पर अब बड़े होते अपने बेटे की ठीक से परवरिश न कर पाने का दोष उस पर लगने लगा था क्योंकि डोनेशन की मोटी माँग के लिये रकम न जुटा पाने के कारण वह उस स्कूल में पल्लव का दाखिला नहीं करा पाया जिसमें कि दीपाली चाहती थी।    

       

जिस राह पर वह चला था उस राह पर चलने के लिये उसे बहुत बड़ी कीमत चुकानी पड़ रही थी। दुख तो उसे इस बात का था कि उसके अपने ही उसे नहीं समझ पा रहे थे। तनाव के साथ संबंधों में आती दूरी ने उसे तोड़ कर रख दिया था। धीरे-धीरे उनकी मुस्कराहट खोखली होती गई। मन ही मन आदर्श और व्यावहारिकता में इतना संधर्ष होने लगा कि वह हाई ब्लडप्रेशर का मरीज बन गया।

    

आकाश ने स्वयं को अपने अंतःकवच में कैद कर लिया पर दीपाली ने उसकी न कोई परवाह की और न ही उसे समझना चाहा। उसे तो बस, अपने आकांक्षाओं के आकाश को सजाने के लिये धन चाहिए था। वह रोकता टोकता तो सीधे कह देती, ‘अगर तुम अपने वेतन से नहीं कर पाते हो तो लोन ले लो। जिस समाज में रहते हैं उस समाज के अनुसार तो रहना ही होगा आखिर हमारा भी कोई स्टेटस है या नहीं, तुम्हारे जूनियर भी तुमसे अच्छी तरह रहते हैं पर तुम तो स्वयं को बदलना ही नहीं चाहते।’

        

अब उससे कैसे कहता लोन चुकाने के लिये भी तो पैसा कटवाना पड़ेगा। रही स्टेटस की बात तो महंगे सामानों से स्टेटस नहीं बनता। स्टेटस बनता है उच्च विचारों से, उच्च आदर्शो से... वरना खाते तो सभी दाल-रोटी ही हैं।

        

यह वही दीपाली थी जिसने मधुयामिनी में साथ-साथ जीने मरने की कस्में खाई थीं। सुख-दुख में साथ निभाने का वायादा किया था पर जमाने की क्रूर आँधी ने उन्हें इतना दूर कर दिया कि जब मिलते तो लगता अपरिचित हैं। बस एहसास भर ही रह गया था। बच्चे भी सदा माँ का ही पक्ष लेते। वह अपने ही घर मे परितक्य सा हो गया था जिसकी न पत्नी को परवाह थी न बच्चों को।

        

अपनी लड़ाई वह स्वयं लड़ रहा था। प्रमोशन के लिये इंटरव्यू काल आया। इंटरव्यू अच्छा रहा। सीनियर था ही, पूरी उम्मीद के साथ प्रमोशन लिस्ट का इंतजार कर रहा था पर जब प्रमोशन लिस्ट निकली तो उसमें अपना नाम न पाकर हतप्रभ रह गया। पता लगाया तो पता चला कि उसका नाम विजीलेंस से क्लिीयर नहीं हुआ है। उस पर एक सप्लायर कंपनी पर फेवर करने का आरोप लगा था। इसके लिये उस पर चार्जशीट दायर कर दी गई थी। वैसे तो आकाश हमेशा फाइल पूरी तरह पढ़कर हस्ताक्षर किया करता था। इस बार न जाने कैसे चूक हो गई ?

    

रेट और क्वालिटी इत्यादि की स्क्रूटनी वह अपने आधीनस्थ अधिकारी से करवाया करता था। वह भी नया आया था शायद नियमों से अनजान था। उस फाइल में उसने लोअर रेट की उपेक्षा कर हायर रेट वाले सामान को गुणवत्ता के आधार पर उचित ठहराते हुए ऑर्डर प्लेस करने की सिफारिश की थी। नया होने के कारण शायद वह अच्छी गुणवत्ता के सामान का ऑर्डर कर कार्य की गुणवत्ता में वृद्धि करना चाहता था। ऐसा करते हुए उसे यह याद ही नहीं रहा कि वह किसी प्राइवेट कंपनी में नहीं एक सरकारी कंपनी में काम करता है जहाँ सामान की क्वालिटी पर नहीं सामान के रेट पर ज्यादा ध्यान दिया जाता है।

    

अगर नियमों की अनदेखी हो रही है तो उसे अपने मातहत को सिखाते और समझाते हुए सुधारना चाहिए था पर ऐसा नहीं हुआ था। उसके साइन के बाद ही ऑर्डर प्लेस होना था अतः गलती उसकी ही थी। पिछले कुछ वर्षो से घर के झगड़ों के कारण वह मानसिक रूप से अस्वस्थ रहने लगा था। घर के झगड़ों का प्रभाव उसके आफिस के कामों पर पड़े, उसने कभी नहीं चाहा था पर अनजाने में ऐसा ही हुआ था। न जाने किस मनःस्थिति में उसने फाइल को ठीक से पढ़े बिना ही हस्ताक्षर कर दिये थे। नियम तो नियम है... नियमों का उल्लंघन करना अपराध की श्रेणी में आता है। इसी बात को आधार बना कर लोअर रेट वाले कांन्ट्रेक्टर ने उसे दोषी ठहराते हुए एक शिकायती पत्र विजीलेंस को भेज दिया था।

        

आफिस में कानाफूसी प्रारंभ हो गई, ‘बड़े इमानदार बनते थे... आखिर दूध का दूध पानी का पानी हो ही गया न।’

        

‘अरे, भाई ऐसे ही लोगों के कारण हमारा डिपार्टमेंट बदनाम है... करता कोई है, भरता कोई है।’

        

लोगों की फुसफुसाहट उसे परेशान कर रही थी। दीपाली के पास तक जब यह बात पहुँची तो वह तिलमिला कर बोली, ‘तुम तो कहते थे कि मैं किसी का फेवर नहीं करता। जो ठीक होता है वही करता हूँ फिर यह गलती कैसे हो गई? कहीं ऐसा तो नहीं है कि तुम मुझसे छिपाकर पैसा कहीं ओैर रख रहे हो।’

         

उसके बाद आकाश से कुछ सुना नहीं गया... उसी रात उसे हार्ट अटैक आया। हफ्ते भर जीवन-मृत्यु से जूझने के बाद आखिर उसने दम तोड़ ही दिया।

        

दीपाली का प्रलाप सुनकर वसुधा अतीत से वर्तमान में आई... आकाश को अंतिम संस्कार के लिये ले जाया जा रहा था।  

         

अनहोनी तो घट ही गई थी पर सदा शिकायतों का पुलिंदा पकड़े दीपाली को इस तरह रोते देखकर, वसुधा की आँखें नम हो आई थीं। बार-बार मन में यही आ रहा था कि सब कुछ लुटा के होश में आये तो क्या किया...?

        

माँ को रोते देखकर मासूम बच्चे अलग एक कोने में सहमे से दुबके खड़े थे। शायद उन्हें समझ में नहीं आ रहा कि माँ रो क्यों रही है तथा पापा को हुआ क्या है ? माँ को रोता देखकर बीच-बीच में वे भी रोने लगते। उन्हें ऐसे सहमा देखकर, वह स्वयं को रोक नहीं पाई तथा उन्हें सीने से चिपकाकर रो पड़ी। उसे रोता देखकर नन्हीं स्मिता बोली, ‘आँटी, ममा भी रो रही है तथा आप भी लेकिन क्यों...? पापा को क्या हुआ है ? वह चुपचाप क्यों लेटे है ? बोलते क्यों नहीं है ? सब उन्हें कहाँ ले जा रहे हैं?’

        

उसकी मासूमियत भरे प्रश्न का वसुधा क्या उत्तर दे, समझ नहीं पा रही थी पर इतना अवश्य सोचने को मजबूर हो गई थी कि बच्चों से उनकी मासूमियत छीनने का जिम्मेदार कौन है...? एक जिंदादिल, उसूलों के पक्के इंसान को किसने मौत के मुँह में धकेला, उसके अपनों ने या जमाने ने...।


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