दूरदृष्टि
दूरदृष्टि
"हाँ, मैंने ही वह बयान दिया है।" सदस्यों के सवालों की बौछारों से घिरे नेताजी ने सच स्वीकार करने में ज़रा भी देर नहीं लगाई।
शहर में उन्माद फैल गया था। तोड़-फोड़, आगजनी और हिंसा की खबरें-तस्वीरें लगातार टीवी पर आ रही थीं। उधर विस्फोटक हो चुकी स्थिति से निपटने के लिए पुलिस - प्रशासन मुस्तैदी से लगा हुआ था। इधर, बंद कमरे में सत्ताधारी पार्टी की कोर कमिटी की आपात बैठक चल रही थी। कमरे में सन्नाटा पसरा हुआ था। सभी एक-दूसरे का मुँह देख रहे थे और चेहरे पर हवाईयाँ उड़ी हुई थीं।
अध्यक्ष महोदय मारे गुस्से के, अपनी कुर्सी से उठे और नेताजी की ओर दौड़ पड़े....लाल-लाल आँखें किए। उन्हें देखा और रूक गये। अपनी बँधी मुट्ठियाँ पीछे कर लीं। वे क्रोध से काँप रहे थे। शायद उनका ब्लड प्रेशर फिर बढ़ गया था। दाँत पीसते हुए उन्होंने कहा - "सत्यानाश कर दिया। सारे किए-कराए पर पानी फेर दिया तुमने, चमनलाल।" सत्ता का सारा सूत्र अपने हाथ में रख राजनीति की बाज़ी खेलने वाले चतुर-चालाक अध्यक्ष जी को अंदाजा नहीं था कि वे अपने ही प्यादे के हाथों पीट जाएँगे। वे पसीने से लथपथ हो गये।
पसीना पोंछते हुए वे अपनी कुर्सी पर जा बैठे। बोतल का पूरा पानी अपने हलक में उतार लिया, मगर प्यास बुझी नहीं। उन्होंने बोलना जारी रखा - "तुमने ये भी नहीं सोचा कि चुनाव आने वाले हैंं ? और ये सब ? अब तो सब गया। सब खत्म। आखिर तुमने ऐसा क्यों किया ?"
"मैंने जो भी किया, सही किया।" चमनलाल के जवाब से माहौल में सन्नाटा पसर गया।
"क्या कहा ? सही किया ?" अध्यक्ष की रौबदार आवाज़ गूँजी -" ये तुम कह रहे हो ? एक जिम्मेदार पद पर बैठकर ? पगला गये हो क्या ?"
"हाँ।हाँ। बिलकुल।" - सीएम चमनलाल के मन में दबा गुबार आज निकल पड़ा था - " हाँ...। आपलोगों ने नेता चुन कर मुझे कुर्सी पर तो बिठा दिया, मगर परदे के पीछे से, चाबुक लेकर मुझसे अपनी मनमानी करवाते रहे। किसान, मज़दूर, गरीबी, बेरोजगारी, शिक्षा, स्वास्थ्य...के मोर्चे पर कितना कुछ करने का वादा किया था हमलोगों ने चुनाव प्रचार में ? मगर नहीं। बस, सभी सत्ता की मलाई खाने में लगे रहे। जनता को जवाब तो मुझे देना पड़ता था ? गाली मैं सुनता था ? मैं परेशान हो गया था जवाब देते, आश्वासन देते, झूठ बोलते-बोलते। मेरी ही लोकप्रियता का सहारा लेकर आप लोग राजनीति की रोटियाँ सेंकते रहे ? तो, मेरे पास बस अब....सिर्फ़ यही एक रास्ता बचा था, इस सबसे मुक्ति पाने का।" चमनलाल ने बेखौफ़ अपनी बात रख दी और अपनी कुर्सी पर बैठ गये।
पूरी सभा स्तब्ध थी। अध्यक्ष जी सिर पर हाथ धरे चुपचाप बैठे थे। तभी, चमनलाल ने फिर से बोलना शुरु किया - "वैसे, अच्छा भी है हमारी सरकार का गिरना। इलेक्शन में दूसरी नयी सरकार चुनकर आएगी। जनता हमें हराकर, दंड देकर, खुश हो जाएगी। उसका गुस्सा भी उतर जाएगा। कम-से-कम हम जनता को जवाब देने से तो बचे रहेंगे ? तनावमुक्त रहेंगे। हमसे अपेक्षाएँ तो नहीं रहेंगी ? विपक्ष में रहकर, सड़क पर उतरकर आवाज़ उठाना, विरोध करना, मुर्दाबाद के नारे लगाना और जनता की सहानुभूति बटोरना सत्ता में रहने से ज्यादा आसान और सुरक्षित है। और फिर जनता की याददाश्त तो वैसे भी बड़ी कमजोर होती है। पाँच साल में वह हमारी सारी ग़लतियों को भूल जाएगी। नयी सरकार की ग़लतियाँ ही उनके दिलो-दिमाग में ताज़ा रहेंगी। फिर तो हम हैं ही।" चमनलाल ने कुटिल मुस्कान के साथ राजनीति का गूढ़ मंत्र बताया, तो सबके चेहरे खिल गये। चमनलाल का फार्मूला सबको पसंद आ गया था। सभा में एक तेज़ अट्टहास गूँज उठा था।
सभा समाप्त हो गयी, और सभी नेता-कार्यकर्त्ता अपने सीएम की दूरदृष्टि की प्रशंसा करते हुए वापस अपने-अपने सामाजिक कार्य में लग गये।