मयूरी
मयूरी
सच्चे प्रेम पर मुझे कभी भरोसा न था.… मैंने कई दिल टूटते देखे …महसूस नहीं किया कभी पर जब मेरे साथी दुखी होते थे तो मुझे अजीब सी चिढ़ मचती थी। उनके सारे लक्ष्य और सपने उनकी माशुकाओं से लड़ाइयों में वाष्प हो जाते थे। भावनायें होना अच्छा हैं पर इतना भी नहीं। था तो मैं भी एक आम इंसान पर मुझे कभी किसी की ज़रुरत महसूस न हुई.…या यूँ समझ लो कोई मिली ही नहीं । प्रेम , प्यार ,मोहब्बत, आशिकी ये सारे शब्द मुझे कभी समझ नहीं आते थे और उनपर आधारित कहानियाँ , कविताएं या फिल्में मेरे लिए एक बोरिंग पाठ से काम न था । शायद मेरे लिए यह चीज़ें खुदा ने बनाई ही ना हो। यही संतोष कर मैं अपने जीवन के नय्या चलता रहा।
मेरा एक दोस्त था आक़िल ,जो अपने नाम से बिलकुल विपरीत था। वो ख़ास दोस्त तो नहीं था पर उसके साथ मैंने अपने जीवन के २ साल व्यतीत किये थे । हम सहपाठी होने के साथ साथ हॉस्टल के एक कमरे में रहते थे। वो घनिष्ट मित्रों में तो नहीं आता था , पर उससे कम भी न था। उसकी भी वही कहानी थी। । वह भी किसी को अपना सारा समय ,धन और मन दे बैठा था। आम भाषा में उसे लोग कहेंगे 'उसे मोहब्बत हो गई थी '। दिन रात वह उसके लिए पत्र लिखता और उसे देने जाता , जैसे मानो यही उसका धर्म और कर्म हो गया हो। थक कर मैंने उससे एक दिन पूछ ही डाला ,"भाई क्या नाम है उसका ?" वो बोला "मयूरी "। मेरे पास मुस्कुराने के सिवा और कोई चारा न था। उसके बाद क्या था , बिना पूछे ही पूरी कहानी कमरे में गूंजने लगी . ऐसा लगा जैसे मानो मैंने कोई रेडियो चैनल चला दिया हो और उसमे कोई साहित्यिक कथा चल रही हो। अक्सर दोस्ती में इतना धैर्य रखना पड़ता है | मैंने भी रखा। सारांश में इतना समझ आया की वे दोनों एक दूसरे से असीम प्रेम करते थे । अच्छा लगा जान कर ,पहला ये की यहाँ भी सच्चा प्रेम है और दूसरा की रेडियो का प्रसारण संपन्न हुआ।
शिक्षाविदों में तो पता नहीं पर वो शायर बहुत अच्छा बन सकता था, इस बात पर मुझे कोई संदेह नहीं था। वैसे तो वो हर चीज़ पर शायरी लिखने का हुनर रखता था पर कुछ पंक्तिया उसके ज़ुबान पर हमेशा रहती थी।
" ऐ अश्क अगर बिन मर्ज़ी के.…तू उन आँखों में आएगा,
कसम खुदा की मैं ज़मीं पर तुझे रोकने आऊंगा,
ज़न्नत या होऊं जहन्नुम में मैं … तू मुझसे छुप न पाएगा
कसम खुदा की मैं ज़मीं पर तुझे रोकने आऊंगा "
हम सब के सामने जब भी ये पंक्तिया वो गाता था , खुद हमारी हथेलियाँ ताली के स्वर में गूँज उठती । कहते है ईश्वर की मर्ज़ी के सामने इंसान ने हमेशा घुटना टेका है । एक जान लेवा एक्सीडेंट में आकिल का निधन हो गया । २४ साल की उम्र काफी कम थी जीवन जीने के लिए , डॉक्टर ने उसे बचाने की बहुत कोशिश की, पर असफल रहे । ये सदमा मुझे बर्दाश्त करने में कठिनाई तो आ ही रही थी पर एक क़रीबी दोस्त होने के नाते मुझे उसके घरवालों को बताना था ।
घरवाले आये और मातम का माहौल सा छा गया । क्रियाकर्म के बाद सब चले गए । जाना भी था । बे जान देह के पास कोई कब थक बैठा रहता । मैं भी कुछ समय अकेला रहना चाहता था , आकिल के साथ ।
मैं क़ब्रिस्तान चला गया। उसकी क़ब्र के पास बैठा मैं कुछ सोच ही रहा था , की मुझे ख़याल आया ,मयूरी का। मैंने उसे कभी अपने नेत्रों से नहीं देखा सिर्फ सुना था । कहाँ रहती है,कैसी दिखती है मुझे कोई अंदाज़ा न था । यह तक नहीं पता था की उसे आकिल के बारे में पता है भी या नहीं । यह खयाल आया ही था की देखा हरे रंग के वस्त्र में एक युवती आकिल की कब्र की तरफ आ रही है । उसकी चाल से ऐसा महसूस हो रहा था की जैसे उसमे में प्राणं बस कुछ क्षण के लिए शेष है । मैं उसकी तरफ बड़ा और वो आक़िल की कब्र की पास गिर गई । आश्चर्य तब हुआ जब मैंने देखा वो रोइ नहीं ,उसकी आँखों में रोष था अश्क नहीं । वह चिल्लाने लगी "तू बेवफा है… धोकेबाज़ है… " । मैं उसे जैसे तैसे संभाल कर उसके घर ले गया , उसकी माँ ने मुझे बताया एक हफ्ते में उसकी शादी है । मुझे अजीब लगा पर मैं ख़ुश था की जीवन उसे एक मौका दे रही है आगे बढ़ने का , आकिल के बिना ही सही । पूरे रास्ते उसकी आँखों से आकिल के लिए एक बूँद न बही । किसी का रोना अच्छा तो नहीं पर ऐसी स्थिति में न रोना भी कुछ अजीब था ।मैं वहां से चला गया।
दस साल बीत गए । किताब के पृष्ठों की तरह आकिल भी मेरे जीवन का एक पृष्ठ बन् गया । एक दिन मेरा मन अपने उस पन्ने को दोहराने का हुआ जो अतीत में मेरे जीवन का गहरा हिस्सा था । बहुत कुछ बदल गया था मेरा अब उस शहर में कोई न था । काम से एक दिन का अवकाश लेकर मैं अपने उस शहर गया जहां मेरा यार था 'आकिल' । बस से उतरते ही मैंने रिख्शे वाले को आदेश दिया की वो मुझे क़ब्रिस्तान तक छोर दे । रिक्शे वाले ने मुझे वहां छोड़ा और चला गया । मैंने पास वाली फूल की दुकान से कुछ फूल लिए और उसकी कब्र के पास जाकर बैठ गया। मार्बल के पत्थर अब बिछ गए थे वहां पर। फूल रखते हुए मैंने उसपर कुछ खरोन्च देखे , ऐसा लग रहा था कोई उसपर कुछ लिखना चाह रहा हो , मैंने जब कब्र पर से धुल हटाई मैं दंग रह गया.… उसपर लिखा था …
"ए बेवफा
ए धोके बाज़
सौंंप कर मुझे किसी और के हाथ
क्यों चला गया तू दगाबाज ,
अश्क क्या आज लहू बहती हूँ
सुन ले तू ए ना मुराद
आजा तू मेरे पास…
वरना मैं आती हूँ तेरे पास
इस जाती से क्यों डर गया …
जब थी मैं सदा तेरे साथ.
हिन्दू थी पर तेरी थी
बस तेरी ही ये मयूरी थीं
वादा तोड़ा तूने पर
वादा मैं न तोरडुंगी …
पत्थर बनकर आउंगी फूल चढ़ाने तेरे पास
हर रोज़ चढ़ाने तेरे पास "
ये पढ़ कर मै सुन्ना रह गया। । कुछ समझ न आया … मैं वहीं पास में बेंच पर बैठ गया ।
मैं इस पहेली का हाल सोच ही रहा था । तभी मैंने कुछ ऐसा देखा जिसे देख कर मेरी आँखें तो भर ही आई साथ में अजीब सी सिहरन भी शरीर में दौड़ गई । एक २३-२४ साल की युवती हरे सूट में आकिल की कब्र के पास जाकर बैठ गई ।
वो मयूरी ही थी ,पर आज उसके चेहरे पर एक अजीब सा संतोष था ।