पुकार
पुकार
बड़ी नाराज है शायरी मुझसे,
अल्फ़ाज़ भी खफ़ा खफ़ा हैं उसके,
ले आयी है मुझे वो आज अदालत-ए-शायर में मुझे,
इल्ज़ाम ये आया है मुझ पर मैं समझ न पाता जज्बात इसके,
इस शायरी को मैं अपने हिसाब से ढालता रहा,
मैं उदास तो इसे उदास लिख दिया,
मैं खुश तो इसे खुशियों के शब्दों से सजा दिया,
कभी न सोचा ये, की इस शायरी का मिजाज
है उस वक़्त वो उदास है या खुश
कभी उसकी कद्र न की...
मेरे हर सुख दुख में ये साथी होती है मेरी,
फिर मैं क्यों न समझ पाता हूँ जज्बात इसके…
हाँ, मैं दोषी हूँ इसका, उन अल्फ़ाज़ों
का जिन्हें अपनी मर्जी से मैं लिखता
रहा बिना उनसे उनका हाल जाने,
कितना बेरहम हूँ मैं, जो न इस शायरी
को जान पाया, बहुत सताया है इसको मैंने,
अपनी मनमर्जी से इसको इस्तेमाल करता रहा...
हाँ मुझे सजा दो, मुझे लिख दो इसी
शायरी के किसी शेर में बेवफ़ा...
ताकि आने वाली न नस्लें शायरों की
देख मेरा अंजाम, इस शायरी के जज्बातों
को समझ सकें, इसे वो उस तरह लिखें
जैसा वो खुद को लिखवाना चाहे...!