वड़वानल - 36
वड़वानल - 36
11 तारीख को मुम्बई में उपस्थित जहाज़ों और ‘बेसेस’ पर शाम की सभा की सूचना भेज दी गई; और शाम को पाँच बजे कुलाबा के निकट के किनारे से लगी एक कपार में हर जहाज़ और हर बेस के सैनिक अलग–अलग मार्गों से आकर इकट्ठा हो गए ।
‘‘दोस्तो, हमारी समस्याएँ अलग–अलग होते हुए भी उन्हें सुलझाने का मार्ग तथा उद्देश्य एक ही है । मार्ग है - विद्रोह का; और उद्देश्य - सम्पूर्ण स्वतन्त्रता का । आज तक हम लड़ते रहे अंग्रेज़ों के लिए, उनके साम्राज्य को कायम रखने के लिए । मगर आज हमें लड़ना है हिन्दुस्तान की स्वतन्त्रता के लिए । हमारे ही बल पर अंग्रेज़ इस देश पर राज कर रहे हैं । उनका यह आधार ही हमें उखाड़ फेंकना है । हमें अंग्रेज़ों के ख़िलाफ, अंग्रेज़ी हुकूमत के ख़िलाफ़ विद्रोह करना है ।’’
खान की बात से वहाँ एकत्रित सैनिकों के मन में उफ़न रहे तूफ़ान ने ज़ोर पकड़ लिया ।
‘‘ ‘तलवार’ के सैनिकों ने पिछले तीन महीनों से अंग्रेज़ी सरकार के विरुद्ध आन्दोलन छेड़ दिया है । इसके लिए हम विभिन्न मार्ग अपना रहे हैं, इस आन्दोलन में हमें आपका साथ चाहिए, क्योंकि कामयाबी की ओर ले जाने वाला रास्ता आपके सहयोग से ही होकर गुज़रता है । ये अंग्रेज़ी सरकार हमारे साथ गुलामों की तरह बर्ताव करती है । हमारे साथ किया जा रहा बर्ताव, हमें मिलने वाला खाना–सभी निकृष्ट एवं हल्के दर्जे का है । युद्ध–काल में लड़ते समय भी हमारा यही अनुभव था । रंगभेद के दुख को हमने झेला है । रणभूमि पर अगर गोरों का खून बह रहा था, तो हम हिन्दुस्तानी सैनिकों का क्या पानी था ? अरे, इस युद्ध में विक्टोरिया क्रॉस और अन्य सम्मान प्राप्त सैनिकों की लिस्ट तो देखो । इसमें हिन्दुस्तानी सैनिकों की संख्या अंग्रेज़ी सैनिकों की अपेक्षा अधिक है । ये गोरे किस दृष्टि से हमसे श्रेष्ठ हैं जो हमसे घटिया दर्जे का बर्ताव किया जाता है ?’’
‘‘हमारे नसीब में लिखे ये ब्रेड के टुकड़े!’’ खान ने काग़ज़ में बँधे ब्रेड के टुकड़े सबको दिखाए जिन्हें वह अपने साथ लाया था । ‘’ये टुकड़े हमें सुबह नाश्ते में मिले थे, तुम लोगों को भी मिले होंगे । हमने आज इन टुकड़ों के कीड़े गिने, यूँ ही, मजाक के तौर पर । मालूम है, कितने निकले ? गिनकर पूरे पचास, सर्वाधिक कीड़ों की संख्या भी पचहत्तर । कितने दिन हम ये कीड़ों वाले ब्रेड के टुकड़े मुँह में चबाते रहेंगे? हमारे ही देश में आकर ये पराए हम पर अन्याय करें ? और कितने दिनों तक हम बर्दाश्त करें ? और क्यों बर्दाश्त करें ? और कितने दिनों तक हम नामर्दों की तरह चुप बैठे रहें ? ‘‘हमें इसका विरोध करना ही चाहिए । वो हम कर रहे हैं । थोड़े–बहुत पैमाने पर कुछ और जहाज़ों पर भी किया जा रहा है । दोस्तों, ये विरोध करते समय एक बात महसूस हुई कि हम पर होने वाले अन्याय को दूर करने का एकमात्र उपाय है अंग्रेज़ों को इस देश से भगा देना। हमें मालूम है कि अंग्रेज़ हमसे ताकतवर हैं, मगर हम यह भी जानते हैं कि आज़ादी के प्रेम से सुलग उठे ये मुट्ठीभर दिल भी सिंहासन उलट सकते हैं । स्वतन्त्रता प्रेम का बड़वानल गुलामी लादने वाली हुकूमत को भस्म कर देगा । हमें एक होकर गुलामी लादने वाली अंग्रेज़ी सत्ता का विरोध करना चाहिए । हमें तुम्हारा साथ चाहिए । छोटे–छोटे गुटों में, अलग–अलग किया गया विरोध पर्याप्त नहीं है । इससे हमारे हाथ कुछ भी नहीं लगेगा, ऐसा होगा, मानो पत्थर पर सिर पटक रहे हों । आजादी हासिल करना और इज़ज़त की ज़िन्दगी जीना तो दूर, उल्टे सतर्क हो चुका दुश्मन छोटे–छोटे गुटों के आन्दोलन मसल देगा और किस्मत में लिखी होंगी जेल की दीवारें, और अधिक अपमान, और अधिक अत्याचार! इस आग को जलाने के लिए हम एक हो जाएँ । हमारी नाल एक है, हमारी मातृभूमि एक है, माँ के प्रति कर्ज़ भी एक है और उसे चुकाने का एक ही उपाय है और वह है स्वतन्त्रता संग्राम का । चलो, हम एक हो जाएँ और इस ज़ुल्मी सरकार का तख्ता उलट दें !’’
खान के इस आह्वान का परिणाम बहुत अच्छा हुआ । वहाँ एकत्रित सभी के मन की भावनाएँ मानो उसने कही थीं । दिलों में व्याप्त अकेलेपन की भावना को दूर कर दिया था । एक आत्मविश्वास का निर्माण किया था ।
‘‘क्या करना है और कब करना है, ये बताइये’’, कोई चिल्लाया ।
‘‘इस विद्रोह में सबका सहकार्य जिस तरह महत्त्वपूर्ण है, उसी तरह यह भी महत्त्वपूर्ण है कि विद्रोह हर जगह पर हो । कोचीन, कलकत्ता, कराची, विशाखापट्टनम आदि ‘बेसेस’ से हम सम्पर्क बनाए हुए हैं । किंग के विरुद्ध हमने जो रिक्वेस्ट्स दी थी उनका परिणाम आना अभी बाकी है, दत्त की केस का फ़ैसला होना भी बाकी है । इन दोनों फ़ैसलों को ध्यान में रखते हुए ही निश्चित करेंगे कि विद्रोह कब करना है ।’’ मदन ने जवाब दिया ।
‘‘यदि फैसला एक महीने बाद आया तो?’’ किसी ने पूछा ।
‘‘हम ज्यादा से ज्यादा दस दिन रुकेंगे । इस दौरान हम बारूद जमा करते रहेंगे और 20 तारीख के आसपास ऐसा धमाका करेंगे कि शत्रु के परखचे उड़ जाएँ । हमारे संकेत की राह देखो। तो, हम यह मानकर चलें कि आपका साथ हमें प्राप्त है ?’’ मदन ने पूछा ।
‘‘जय हिन्द!’’ मदन के सवाल का जवाब इस नारे से दिया गया ।
मीटिंग को प्राप्त हुई सफ़लता से सभी आज़ाद हिन्दुस्तानी खुश थे ।
सोमवार को सुबह सवा आठ बजे इन्क्वायरी कमेटी के सदस्य इन्क्वायरी रूम में अपनी जगह पर बैठ गए तो स. लेफ्टिनेंट नन्दा ने एडमिरल कोलिन्स के हाथ में एक सील बन्द लिफाफा देते हुए कहा, ‘‘सर, आज सुबह ही कूरियर से यह लिफ़ाफ़ा दिल्ली से आया है ।’’
कोलिन्स ने लिफ़ाफ़ा खोला और भीतर रखे खत को पढ़ा, ''well, friends! दिल्ली से लॉर्ड ववेल का सन्देश आया है, दत्त के प्रकरण को हमें शनिवार तक ख़त्म करना है ।’’
‘‘मगर, सर, अभी–अभी तो पूछताछ शुरू ही हुई है और इसे पूरा होने में कम से कम पन्द्रह–बीस दिन तो लग ही जाएँगे ।’’ यादव ने कहा ।
‘‘इसमें हेडक्वार्टर का कोई खास उद्देश्य होगा ।’’ पार्कर ने टिप्पणी की ।
‘‘सही है । दत्त के केस को लम्बे समय तक खींचकर सैनिकों के बीच बेचैनी बढ़ने नहीं देना है । चार–पाँच दिनों में यह भी बतला दिया जाएगा कि उसे क्या सज़ा दी जानी है ।‘’ कोलिन्स ने बतलाया ।
''March on the accused!'' खन्ना ने सन्तरियों को हुक्म दिया । दत्त इन्क्वायरी रूम में आया और रोब से कुर्सी पर बैठ गया ।
यादव ने सवाल पूछना आरम्भ किया, ‘‘बर्मा में 15 मार्च ’44 में आज़ाद हिन्द सेना के किस सैनिक से मिले थे ?’’
‘‘किसी से नहीं ।’’
‘‘फिर तुमने डायरी में ये नाम किसके लिखे हैं?’’ पार्कर ने पूछा ।
‘‘याद नहीं ।’’
‘‘दिमाग पर थोड़ा ज़ोर डालो! यादव ने फरमाया । ‘‘मेरा दिमाग कोई मशीन नहीं है । जो मुझे याद आएगा, वही मैं बताऊँगा ।’’ दत्त ने चिढ़कर कहा ।
चाय के लिए अवकाश के समय दत्त को बाहर गया देखकर पार्कर ने सुझाव दिया, ‘‘यदि उसे क्या सजा दी जाए इस बारे में हमें सूचित किया जाने वाला हो तो हम क्यों बेकार में मगजमारी करें ? आसानी से जो मिल जाए वही जानकारी इकट्ठा कर लें ।’’
पार्कर के सुझाव से सभी सहमत हो गए और पूछताछ का नाटक आगे चलता रहा ।
मदन और दास को सामने से स. लेफ्टिनेंट रावत आता दिखाई दिया । जब से दत्त पकड़ा गया था, इन आज़ाद हिन्दुस्तानी सैनिकों की आँखों में रावत चुभ रहा था, असल में मदन और दास रावत को टालना चाहते थे, मगर बातों–बातों में वे रावत के इतने निकट पहुँच गए कि अब रास्ता बदलना अथवा पीछे मुड़ना सम्भव नहीं था । उसके सामने सैल्यूट का एक टुकड़ा फ़ेंककर वे आगे बढ़ गए ।
''Hey, both of you, Come here'' उसने आगे बढ़ चुके दास और मदन को पास में बुलाया ।
मन ही मन रावत को गालियाँ देते हुए वे उसके सामने खड़े हो गये ।
''Come and see me in my office.'' उसने इन दोनों से कहा और दनदनाता हुआ निकल गया ।
मदन और दास रावत के ऑफिस में गए । रावत उनकी राह ही देख रहा था ।
‘‘तो, कमाण्डर किंग के विरुद्ध शिकायत करने वाले तुम्हीं दोनों हो ?’’ कुछ गुस्से से रावत ने पूछा, ‘‘मुझे मालूम है कि यह सब तुम उस साम्राज्य–विरोधी दत्त के कारण कर रहे हो । वही तुम्हारा सूत्रधार है ।’’ रावत ने पलभर दोनों के चेहरों को देखा और बोला, ‘‘तुम सबको बेवकूफ बना सकते हो, मगर मुझे नहीं ।’’
दत्त को पकड़वाने के पश्चात् रावत अपने आप को अंग्रेज़ी साम्राज्य का खेवनहार समझने लगा था । मदन और दास से वह इसी घमण्ड में बात कर रहा था । हालाँकि मदन और दास ऊपर से शान्त नजर आ रहे थे, मगर उनके भीतर एक ज्वालामुखी धधक रहा था । यदि मौका मिलता तो दोनों मिलकर रावत की हड्डी–पसली एक कर देते ।
‘‘दत्त को बीच में मत घसीटो । दत्त का इससे कोई संबंध नहीं है ।’’ दास की आवाज़ में गुस्सा छलक रहा था । ‘‘अपमान मेरा हुआ है और मैंने शिकायत नहीं, बल्कि रिक्वेस्ट-अर्जी दी है ।’’
‘‘मगर तुम्हारी वह रिक्वेस्ट शिकायत के ही तो सुर में है ना ? मैं पूछता हूँ इसकी ज़रूरत ही क्या है ?’’ रावत ने पूछा ।
‘‘मतलब, अपमान हुआ हो तो भी खामोश बैठें ?’’ मदन ने पूछा ।
‘‘अरे इन्सान है! आ जाता है गुस्सा कभी–कभी, बिगड़ जाता है मानसिक सन्तुलन । अगर मुझसे पूछो तो मैं कहूँगा कि किंग मन और स्वभाव का अच्छा है ।’’ रावत किंग की तरफदारी कर रहा था । ‘‘हम इतने ज़िम्मेदार अधिकारी हैं, मगर वह हम पर भी चिल्लाता है; मगर हम चुपचाप बैठते ही हैं ना ? क्यों ? इसलिए कि वह हमसे बड़ा है; फिर गालियों से शरीर में छेद तो नहीं हो जाते ना ?’’
‘‘नामर्द है साला,’’ दास बुदबुदाया, ‘‘ये किंग की चाल हो सकती है । सैनिक अपनी अर्जियाँ वापस ले लें इसलिए रावत के ज़रिये से कोशिश कर रहा होगा ।’’
‘‘क्या हमारा कोई मान–सम्मान नहीं है? हम गुलाम नहीं हैं । खूब बर्दाश्त किया है आज तक। अब इसके आगे...’’ चिढ़े हुए मदन को दास ने चिकोटी काटी और चुप किया । रावत गुस्से से लाल हो गया और कुछ गुस्से से ही उसने मदन और दास को समझाने की कोशिश की ।
''Look, boys, तुम जितना समझते हो उतने बुरे नहीं हैं अंग्रेज़ । तुम बेकार ही में उनके ख़िलाफ जा रहे हो । यदि वे इस देश से चले गए तो हिन्दुस्तान में अराजकता फैल जाएगी । और फिर... ।’’
‘‘गुलामी की जंजीर, यदि सोने की भी हो, तो भी बुरी ही है । यदि छुरी सोने की भी हो, तो भी उसे कोई अपने सीने में नहीं उतार लेता ।’’ मदन ने चिढ़कर कहा ।
‘‘मैं भी हिन्दुस्तानी हूँ । मुझे भी आज़ादी चाहिए ।’’ रावत के जवाब पर मदन अपनी हँसी नहीं रोक पाया । उसकी ओर ध्यान न देते हुए रावत बोलता ही रहा, ‘‘अरे, हम ठहरे सिपाही आदमी । हमारा सिद्धान्त एक ही है । Obey the orders without question. आज़ादी के लिए लड़ने वाले और लोग हैं । उन्हें करने दो यह काम, हम अपनी राइफ़ल सँभालेंगे ।’’
‘‘आपकी बात हमारी समझ में आ रही है,’’ मदन के इस जवाब पर दास को अचरज हुआ । मगर रावत के सामने मदन का दम घुट रहा था और उसे वहाँ से निकलने का यही रास्ता दिखाई दे रहा था ।
‘‘सच कह रहे हो ?’’ रावत अपने चेहरे की प्रसन्नता को छिपा नहीं सका ।
‘‘अगर तुम रिक्वेस्ट–अर्जी वापस ले लो तो मैं तुम्हारे लिए ज़रूर कुछ न कुछ करूँगा । एकाध प्रमोशन के लिए रिकमेंडेशन या सर्विस डॉक्यूमेंट में अच्छा रिमार्क; जो तुम चाहो ।’’
''Thank you, very much, sir, अब हम चलते हैं ।’’ मदन ने जल्दी से कहा और रावत के जवाब की राह न देखकर वे दोनों बाहर निकल गए ।
‘‘ये रावत, साला, महान स्वार्थी है । अरे, बंगाल में जब लोग अनाज के एक–एक दाने के लिए तड़प–तड़प कर प्राण छोड़ रहे थे, तब ये महाशय एक चम्मच ज़्यादा मक्खन के लिए लड़ रहे थे । देश की आज़ादी, देश बन्धुओं की गुलामी – इससे उसे कुछ लेना–देना नहीं था । उसे दिखाई दे रहा था सिर्फ खुद का स्वार्थ!’’ खुली हवा में साँस लेते हुए मदन कह रहा था ।
‘‘हमारे रास्ते की सबसे बड़ी रुकावट हैं रावत जैसे चापलूस ।’’ दास चिढ गया था, ‘‘इस बार की भी उसकी चाल हमेशा की तरह अपने स्वार्थ से ही प्रेरित थी । अगर हम अपनी रिक्वेस्ट्स–अर्जियाँ वापस ले लेते हैं तो इसका श्रेय स्वयँ लेकर एकाध प्रमोशन या कोई प्रशंसा–पत्र वह नेवी से लपक लेगा!’’
‘‘रावत से हमें सावधान रहना होगा!’’ मदन ने कहा और दोनों बैरेक में वापस लौटे ।