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पैसेंजर

पैसेंजर

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ट्रेन अपनी गति से दौड़ रही है, कुछ को रास्ता दिखाती कुछ को मंजिल पर पहुंचाती। डिब्बा खचाखच भरा है एक आरामदायक सीट की तलाश में, एक पर्स लिए मैं भी दाखिल हो गई। मेरे पास कोई सामान नहीं है। मेरा ठीक ठाक दिखना, मुझे सीट मिलने का कारण समझा जा सकता है क्योंकि जिस औरत के साथ मैं बैठी हूं, मुझे नहीं लगता उसे देखकर वो सज्जन खड़े होते। साधारण लोग पैसे के आभाव में और साधारण हो जाते हैं, कमाल है ना? माॅल में आपको ऐसे चेहरे का एक भी आदमी नहीं दिखेगा। क्या साधारण इनसान को बनाके का ढांचा ईश्वर अलग रखता है ? ये साधारण लोग वही होते हैं, जो प्रधानमंत्री से खुद को जुड़ा महसूस करते हैं और हमेशा वोट डालते हैं।

वह किसी भी मंत्री, प्रधानमंत्री की के भाषण के वक्त कतार में सबसे पीछे खड़े होकर इस शिद्दत के साथ ताली बजाते हैं, वह जो कह रहा है वह सच है। वह ट्रेन के जनरल डिब्बे में सफर करते हैं। AC का फर्स्ट क्लास डिब्बा और एरोप्लेन की रफ्तार इन दोनों से उनका कोई नाता नहीं होता। वो घंटों रेलगाड़ी के इंतजार में चद्दर बिछाए स्टेशनों पर सोते हैं। कुछ कमियां भी होती हैं किसी के लिए नहीं लड़ते, वह सिर्फ अपनी रोटी के लिए लड़ते हैं। रोटी के लिए लड़ने के बाद उनके अंदर ताकत नहीं होती कि वह बदलाव ला सकें। वह सिर्फ बदलाव में सहयोग दे सकते हैं मर भी सकते हैं लेकिन नायक नहीं बन सकते।

वह हर चीज से डरते हैं अपनी लड़कियों के बाहर निकलने से, लड़कियों को पढ़ाने से, लड़कियों को जूड़ो कराटे सिखाने से, अपने बेटे को खुद से दूर पढ़ने भेजने से, चीनी के दाम बढ़ने से, ज्यादा बारिश होने से, कम बारिश होने से, महानगर में रहने के बाद भी उन्हें अपने गांव की फसल की चिंता सताने लगती है। ऐसे ही आम आदमियों के पास भीड लगी होती है, मांगने वालों की, पर वो अपने थैले से एक या दो का सिक्का टटोलकर उसके हाथ में दे, अपने भाग्य बदलने की कामना करने लगते हैं। उसी डिब्बे में आते हैं एक के बाद एक कभी अंधा लड़का गाने वाला, कभी दो पत्थरों से आवाज निकालकर बाजा बजाने वाला, कभी किन्नरों की लंबी कतार, कभी औरत जिसने अपने एक बच्चे को पोटली में रखकर, अपनी कमर से बांधा है, उस बच्चे के बदन पर एक भी कपड़ा नहीं है। ऐसे अनगिनत चित्र आपके सामने एक ही घंटे में दौड़ जाएंगे। जब मैं सबसे खुद को जुड़ा हुआ महसूस करती हूं, तब सोचती हूं, शायद उन्होंने भी नब्ज पकड़ ली है एक साधारण आदमी की। कोई महसूस करे ना करे वह जरूर करेगा, वह नहीं देख पाएगा कि किसीकी आंखें नहीं है या पैर।

मैं देखती हूं मुश्किल से बाइस साल की औरत जिसके माथे पर सिंदूर सजा है और गर्दन में लटकी हुई ढोलक, ढोलक की बजने की आवाज ने मुझे उसकी तरफ खींचा। चेहरे पर हल्के झाइयों के निशान और उसके साथ एक आठ साल की लड़की जिसने एडिडास की एक फटी हुई टोपी लगाई है। टोपी में एक रिबन बंधा है और रिबन के सहारे एक कपड़े का फुंदना बनाकर उसने लटकाया हुआ है। उसके पास एक लोहे की रिंग है, वह हर बोगी में जाती हुई उस रिंग से करतब कर रही है। पूरे शरीर को मोड़कर दोबारा से शीर्षासन करती हुई खड़ी हो जाती है। उसकी गर्दन लगातार हिल रही है और उस गर्दन के हिलने से उसकी टोपी में बंधा हुआ धागा चारों तरफ घूम रहा है, धागे के साथ फुंदना चारों तरफ चक्कर लगा रहा है। वह कुछ खा रही है पर मैं नहीं जानती उसने क्या खाया है ?

जितना गजब का आत्मविश्वास लड़की के चेहरे पर है, उतना ही डर का भाव उसकी माँ के चेहरे पर। वह बोगी के एंड तक अपनी लड़की को जाते हुए बड़ी अजीब सी नजरों से देखती है, जैसे उसकी नजरें ही उसके चारों तरफ उसका कोई कवच बनाकर घूम रही हैं। जब लड़की घूम कर अपनी माँ के पास आती है और दूसरी तरफ मुड़ती है, तब माँ की आंखें दूसरी तरफ घूम जाती हैं। माँ का ध्यान ढोलक बजाने पर नहीं है उसका पूरा ध्यान अपनी बेटी के ऊपर है। करतब करने के बाद उसने हर सीट पर जाकर हाथ फैला दिए। मैंने अपने पर्स में पांच का सिक्का टटोला लेकिन वह नहीं मिला, तब मैंने दस का नोट निकाला और लड़की के हाथ में थमा दिया। लड़की ने कोई खुशी जाहिर नहीं की जबकि मैं उसके चेहरे पर मुस्कान देखना चाहती थी। वो पैसे लेकर सीधा आगे बढ़ गई, मैं माँ-बेटी के प्रेम और आत्मविश्वास से इतनी प्रभावित थी कि मैं किसी को बताना चाहती थी। मैंने बडबडाते हुए यह बात कही, "कितना प्रेम है माँ-बेटी में।"

साथ में बैठी औरत ने जोर से ताली मारी और मेरे ऊपर हँसने लगी। मैं हैरान थी मैंने पूछा, "मैंने इसमें कुछ गलत कह दिया ? आप क्यों हँस रही हैं ?" उसने मेरी बात का कोई जवाब नहीं दिया, सच पूछिए तो चेहरे से वह मुझे अजीब लग रही थी। गहरी काली, रंगीन होठ, वो भी लाल रंग, ऊपर से एक चीप क्वालिटी का घटिया बैग और घटिया चप्पल, मुझे और भी ज्यादा घटिया लगने लगीं। क्या मुझमें इतनी भी समझ नहीं जितनी इसके अंदर है ? अगर उम्र देखी जाए तो मैं इससे बड़ी रही हूं।

उसका हँसना जैसे अपमान था मेरा जो बर्दाश नहीं हुआ आखिर मैंने दुबारा पूछा, " हँसने जैसा तो कुछ नहीं था ?" हालांकि वो मेरे अहम पर चोट थी, मैं कहना चाहती थी तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई पर मैंने सभ्यता का चोला पहनकर इतना ही पूछा। उसकी आवाज सुनकर लगा जैसे उसका हँसने का अर्थ कुछ भी रहा हो मेरी बेइज्जती तो नहीं होगा ?,"बहन जी, मैं आपकी बात पर नहीं हँसी थी, दरसल उस लड़की को देखकर मुझे अपना बचपन याद आ गया और प्यार भी। मेरी माँ, उसकी माँ की उम्र की रही होगी। बाप का मुझे याद नहीं शायद ज्यादा दारु पीता था, जल्दी छोड़कर चला गया। माँ ने खूब इलाज कराया इलाज कराती रही और पिटती रही फिर एक दिन वो आजाद हो गई। जब वो परेशान हो जाती, वो टूटी हुई चारपाई को देखकर रोया करती थी। पहले तो मैं समझ नहीं पाती थी फिर समझ आया, शायद वो मेरे बाप की चारपाई थी।

वो मेरा और अपना पेट भरने के लिए सर्दियों में भुट्टा और गर्मिया में स्कूल के बाहर चाट बेचती थी। मैंने कभी उसे कोई शौक करते नहीं देखा, हमेशा काम में पिसी रहती। मुझे आदत थी उसे ऐसे ही देखने की, पर जब भी हमारे शहर में कोई नौटंकी आती,उस दिन पूरा कमरा गजरे की खुशबू से महक जाता, वो एक मात्र लोहे की संदूक से अपनी नकली पायल निकालती, बिना मुझे लिए अकेली निकल जाती। कई बार तो मुझे शक हुआ, अपने मौहल्ले के कलिया पर, जो माँ को अलग ही नजर से देखता था, माँ भी उसे देखकर मुस्कुराती रहती, कहीं वो उसके साथ भाग तो नहीं गई ? पर आधी रात के वक्त जब नौटंकी की आवाज आनी बंद हो जाती, उसके कुछ देर के बाद वो घर आ जाती। तब मेरी सोची गई बात पर मुझे दुख होता। दुख से ज्यादा डर अगर वो चली गई तो मेरा क्या होगा ? वो अपनी पायल उतारकर वहीं रख देती और फिर पुराने रुप में आ जाती। उसने मुझे एक दिन बताया था उसका बापू नौटंकी में काम करता था, फिर वो उदास हो गई। जब भी उसके मायके की बात आती वो हमेशा उदास हो जाया करती। किश्तों में जोड़ी गईं उसकी कड़ियां बार बार जैसे बताती थीं कि वो हमेशा मुझसे कुछ छुपाना चाहती है उसका कोई सच।

एक दिन जोर की बरसात थी। सुबह काम ना लगने की वजह से वो बहुत परेशान थी, तभी छप्पर टपकने लगा। पौलोथिन लगाने के बाद भी जब वो नहीं रुका तो वो जोर-जोर से रोने लगी। मैंने उसे ऐसे रोते आज तक नहीं देखा था, जैसे दुनिया की सबसे दुखी औरत वही थी। उसके आंखों के काले घेरे मुझे सयाह काले लगे। उसकी आंखों में तैरते लाल डोरे और ज्यादा लाल। मैं उसके दुख को कम करना चाहती थी, मैं उससे लिपट गई। वो सुबकती हुई बड़बड़ाती रही। मैंने उस दिन उससे पहली बार कहा, हमारी नानी का घर कहां है ? हम वहां चलेंगे, उसके घर पर तो खाना होगा, क्या हमारी कोई नानी नहीं है ? उसका रोना और तेज हो गया। आंसू पोंछकर उसने बताया, उसका बाप नौटंकी में काम करता था। वो चार बहन और एक भाई थे। भाई सबसे बडा था। भाभी लड़कर अलग हो गई और शहर चली गई। पहले भाई भी काम करता तो दो वक्त का खाना मिल जाया करता था। भाई के जाने से कभी भूखा ही सोना पडता। एक दिन भाभी शहर से आई। उसने माँ से कहा वो मेरी शादी करवा देगी। माँ तो जैसे छूटना चाहती थी, घर के एक सदस्य का बोझ कम हो जाएगा। भाभी के साथ भेजने के बाद उसने नाम नहीं लिया।

भाभी और भैया ने मिलकर मुझे बेच दिया। मैं रात भर रोती गांव जाने के सपने और माँ बापू की याद मेरा पीछा नहीं छोडती। दिन भर काम में पिसने के बाद, रात को मेरे बाप की उम्र से बडा आदमी नोंचता। रोने के अलावा मेरे पास कोई रास्ता भी तो नहीं था ? सिवाय एक के अगर इस घर से निकलने में कामयाब हुई तो घर पहुंच सकती हूं। उस घर में एक माली आता था, गुलाब सिंह, वो उम्र में तो लगभग दस साल बड़ा था पर वो बहुत प्यार से बात करता था। उसका बात करना ही थोडी खुशी का एक मात्र साधन था। वो अक्सर कहता हम भाग चलते हैं, कहीं दूर चलकर शादी कर लेंगें, पर बुड्ढा मुझ पर कड़ी निगराहनी रखता था। एक दिन वो बाहर गया और हम दोनों भाग निकले। हमने शादी कर ली। उसने दो चार महीने लेबर का काम करके माली की नौकरी तलाश ली। उसके दो चार घर पकड़ने से हमारा गुजारा अच्छे से चल जाता था। जाने क्यों मां बाप से मिलने की इच्छा अंदर जागने लगी। दिल करता भाभी की सारी बात माँ को बता दूं।

मैंने तेरे बापू को मना लिया। हम दोनों गांव के लिए निकले। जब बस मैं बैठी बहुत खुश थी इतने दिन के बाद माँ-बाप से मिलना और अपनी बहन जिनसे मिलकर सब कुछ ताजा हो जाएगा। मैं तो ये तक सोच चुकी थी अगर माँ ने कहा तो हम वहीं रुक जाएंगे। नौटंकी जिसमें मैं हमेशा से काम करना चाहती थी। अब तो माँ को भी कोई परेशानी ना होगी। पहले तो कभी जाने ना देती थी। भाई के बाद बड़ी मैं ही तो हूं ? मेरी भी परिवार के प्रति कोई जिमेदारी बनती है। यहां किराए के मकान में रखा ही क्या है ? परिवार और अपनों का सुख जो बार-बार मुझे प्रेम के गड्ढ़े में गिरा दे रहा था। चाक भात की रस्म याद आते ही मुस्कराहट चेहरे पर तैर गई। मैं अपने आदमी और अपने पिता को साथ भात खाते देख रही थी। मैं सोच रही थी छोटी बहनें कैसे ठिठोली कर रही हैं और हँस रही हैं।

मैंने अधीर होते हुए गुलाब सिंह की तरफ देखा, वो आंखें बंद किए सो रहा था। मुझे एकदम ही उस पर बहुत प्यार आया। उसका तो कोई है ही नहीं, इस दुनियां में मेरे सिवाए ? इतने बडे परिवार को पाकर वो तो फूला नहीं समाएगा। आखिर अकेला कौन रहना चाहता है ?

बस से उतर एक मील चलने के बाद, मैं घर के बाहर खड़ी थी। कितना कुछ दौड़ गया आंखों के सामने, किंठू से लेकर पानी की घरिया तक। मेरा मन माँ के गले लगकर रोने को हुआ। जैसे सदियां बीत गईं माँ के गले से लगे। उसके आंचल से आती उसके पसीने की महक, उसकी गालियां उसका मारना तक मुझे प्यार ही लगा। दरवाजे पर पहुंचते ही छुटकी बाहर निकल आई, मैं उसे गले लगा लेना चाहती थी, मेरे हाथ फैलाने के बाद भी वो अंदर भाग गई। माँ का एक मिनट के बाद ही बाहर आना, बस मुझे उसकी आंखें ही दिखीं, मैं गले लगने ही वाली थी, उसने मुझे खुद से हटाकर दूर कर दिया," छिंनार यहां आने की हिम्मत कैसे हुई ? पहले तो मुंह काला करके भाग गई। अब यहां क्या लेने आई है ? निकल जा यहां से दुबारा यहां दिख मत जाना। हमारे लिए मर गई तू।" मैं कहना चाहती थी, जो तुम्हें बताया गया वो गलत है, पर उससे पहले ही उसने दरवाजा बंद कर लिया। तेरे बापू के साथ मैं वापस आ गई, पर आज भी जाने क्यों नौटंकी का मोह नहीं छोड़ पाई ? क्यों जाती हूं नहीं बता सकती, मुझे पसंद थी इसलिए या मैं खोए हुए चेहरों को ढूंढना चाहती हूं। मैं उस बूढ़े होते चेहरे को एक बार दूर से ही सही देखकर खुश होना चाहती हूं वो मेरा अपना है। मैं उसका खून हूं पर हमेशा निराश ही लौटी हूं।

उस दिन के बाद माँ मेरे लिए माँ नहीं रही। मैं उसकी सारी परेशानियां दूर कर देना चाहती थी। बात उसकी माँ की हो या बाप की चाहे मेरे बापू का ही किरदार क्यों ना हो। ये मेरा पागलपन ही था, मैंने कई बार कोने में रस्सी पर लटकी अपने बापू की फटी पुरानी लूंगी को पहनकर देखा था। कई बार बापू की तरह ही उसके कंधे पर हाथ रखकर उसे संभाला था। मैं अपनी गुंजाइश से ज्यादा काम करती। वो भुटा लाती मैं कोयला सिलगाती, बहुत बार हाथ भी जला लेकिन मैंने कभी उससे शिकायत नहीं की। मैं नौटंकी का ध्यान रखती थी, उससे पहले ही मैं उसके लिए गजरा बना लेती, जिसके फूल तोड़ने के लिए मुझे पुराने घाट जाना पड़ता। मैं कभी उसके साथ नौटंकी देखने नहीं गई क्योंकि मैं खुद को हमेशा पुरुष देखना चाहती थी, ऐसा पुरुष जो नौटंकी नहीं देखता।

उस दिन वो रात को नौटंकी देखकर आई मैं आधी नीद में थी, शायद बहुत डरी हुई थी, आते ही उसने दरवाजा कसकर बंद कर दिया। बिना अपनी पायल उतारे वो सो गई। उसके पायलों की आवाज आनी तेज हो गई। रूंधे हुए गले की आवाज मेरे कानों में पड रही थी। मैंने आंख खोलीं, गुप अंधेरा था। कुछ देखना नामुमकिन था पर खिड़की के छेद से आती बाहर की रोशनी में मैंने एक साए को माँ के ऊपर रेंगते हुए देखा। मैंने झट से उठकर बत्ती जला दी। आदमी जो माँ के ऊपर झुका हुआ था, वही बनिया था, जिससे माँ अक्सर घर का सामान लाया करती थी। उसका राक्षस जैसा चेहरा बहुत घिनौना था और उसकी आंखें जिन्हें देखकर लगा ही नहीं कि वह दो बेटियों का बाप है, जिसकी एक बूढ़ी माँ भी है, जो गली घर की लड़कियों को हमेशा शिक्षा देती रहती है। ये वही बाप है जो अपनी लड़कियों को मोटरसाइकिल पर स्कूल इसलिए छोड़कर आता है कि कोने वाली गली में लड़कों का झुंड खड़ा रहता है। बाहर खड़े हुए अपनी पत्नी की कमर के दिखने पर, उसने कई बार उसे डंडे से मारा है, माँ को नोच लेना चाहता था।

मेरा अंदर का पुरूष जाग गया, जो हमेशा ही मेरे अंदर की लड़की को मारता आया था। उसने बिना चिल्लाए, बिना डरे झट से कोने में रखा हुआ डंडा उठाया और उसके सर पर दे मारा। चारों तरफ खून फैल गया और वो वहीं ढेर हो गया। माँ बहुत देर तक उसे देखकर रोती रही। दिन होने को था तो कर भी क्या सकती थी ? रात होती तो शायद कुछ किया भी जा सकता था। पानी के लिए साढ़े तीन बजे से ही घर के बाहर सरकारी नल पर लाइन लगने शुरु हो जाती थी। जब सुशीला पानी के लिए बुलाने आई। उसके हाथ से बाल्टी छूट गई। माँ रोती रही लेकिन मुझे कोई अफसोस नहीं था, मैं खुश थी कि जिस किरदार को मैंने अपने अंदर अब तक पाला था, उसे मैंने बखूबी निभाया है।

गरीब को न्याय मिलना तो जैसे संभव ही नहीं। तीन साल की जेल, जिसका मुझे कोई दुख नहीं था। चाहे बात जेल में बड़ों की गुलामी की हो, अपना खाना लुटने की हो, या मार खाने की, हर बार मैंने उसे सह लिया, सिर्फ उस औरत के लिए जिसके लिए मैं ही सब कुछ थी और वह मेरे लिए। लगातार वो मुझसे मिलने आती रही लेकिन पिछले एक साल से उसने आना बंद कर दिया। मेरी चिंता बढ़ने लगी, चिंताओं ने मुझे घेर लिया। कहीं उसे कुछ हो तो नहीं गया ? वह ठीक तो है ना ? कभी-कभी तो यूं लगता कि राक्षसों की भीड़ में मैं उसे अकेला छोड़ आई हूं।

मुझे सजा पूरी होने का इंतजार बेसब्री से होने लगा। हर दिन चिंता और गहरा जाती, कैसी होगी वह ? कभी-कभी वह दिन याद आता, जब वह फूट-फूटकर मेरे सामने रोई थी। कभी तो ऐसा हुआ पूरी रात मैंने जागकर निकाल दी। आखिर रिहाई का दिन आया, लगभग घर के रास्ते पर दौड़ते हुए भी, मुझे ऐसा लग रहा था, जैसे पैरों की कोई गति है ही नहीं। मेरी बेसब्री और जल्दी की कोई सीमा ही नहीं थी। मैं जैसा सोच बैठी थी वैसा तो घर का दरवाजा नहीं लगता था ? दरवाजा खुला था, उसकी मरम्मत हो चुकी थी। अभी हाल फिलहाल बने स्वास्तिक के निशान दरवाजे पर शोभा पा रहे थे। जिसे मैं देखना चाहती थी वह नहीं थी। बस एक कुछ महीनों का बच्चा छत पर लटके हुए झूले में लटक रहा था। बच्चा चैन की नींद सो रहा था। उसी के पास उसका शहद का निप्पल पड़ा था। दिल की धड़कन और तेजी से बढ़ने लगी। मेरे घर में किसी का बच्चा क्या कर रहा है ? माँ कहां गई, क्या हुआ उसे, क्या यहां कोई और रहने लगा है ? एक बार को दिल बैठ गया जीवन में अब शायद उस औरत को कभी नहीं देख पाऊंगी, जो मेरे जीवन एक ही सहारा थी। जेल से छूटने का भी मुझे अफसोस हुआ, क्या करूंगी मैं यहां रहकर ? इससे अच्छा तो जेल ही थी, कम से कम चारदीवारी तो थी। कुछ लोग जानते भी थे। वहां रहकर एक आस भी थी कोई बाहर है जो मेरा अपना है। अब बाहर आकर पता लगा, अपना तो कहीं नजर ही नहीं आता ?

दिल बैठ गया, सांसों ने साथ छोड़ दिया। सच कहूं तो सांस कहीं अटक गई थी, जैसे आना ही नहीं चाहती हो। खत्म कर देना चाहती हो, अपने आने जाने का सिलसिला। निर्जीव हाथ-पैर उठने का नाम नहीं ले रहे थे। वहीं पैर जिनकी गति दुपहिया को भी मात दे रही थी, उठने में इतने भारी हो गए, जैसे कोई ईंट मेरे पैरों से बंधी हो।

तभी "लक्ष्मी" ये एक नाम और ये आवाज दुनिया में उस मुकाबले की कोई आवाज ही नहीं बनी। "माँ, माँ; तुम कैसी हो ? माँ एक पल को यूं लगा मैंने तुम्हें खो दिया। मैं तुम्हें बता नहीं सकती कि मुझे कितना दुख हुआ। जब तुमने मुझसे मिलने आना बंद कर दिया। तो मुझे लगा तुम किसी परेशानी में तो नहीं हो ?" मैं उसके हाथ-पैरों को टटोलकर देख रही थी। वह ठीक तो है ना ?

" कैसी है तू ?" उसने मेरे सर पर हाथ फेरा" खाना खाएगी ?" लेकिन मैं बार-बार उससे यही सवाल पूछ रही थी, "तुम मुझसे क्यों नहीं मिलने आई ? मैं हर रोज तुम्हारा इंतजार करती थी। क्यों तुमने मुझसे मिलना बंद कर दिया माँ ? "तभी मेरी नजर उसके हाथों की चूड़ियों और मांग में लगे सिंदूर पर ठहर गई। मेरी नजर को वह एक बारी में भांप गई, "अकेले जिंदगी नहीं कटती बेटा। मैंने कलिया से शादी कर ली। तू जानती है पहाड़ जैसी जिंदगी अकेले नहीं काटी जाती। जीवन में किसी जीवनसाथी की जरुरत जरूर होती है। ये तेरा छोटा भाई है।" वह मेरी सर को सहलाए जा रही थी, पर मैंने ध्यान नहीं दिया कि वह क्या बोल रही है ? दुखी होने के लिए कुछ बचा ही ना हो, जैसे कुछ मर गया मेरे अंदर। शायद वो पुरूष जो आज तक खुद पर गर्व करता आया था। ज्यादा समय भी नहीं गुजरा था मुझे, कोने में बैठे सोचते हुए कि वह तुरंत वापस आई और उसने कहा,"कहां रहेगी, यहां तो कमरा भी एक ही है ?" अब वह मुझे उस घर में एक दिन भी नहीं देखना चाहती थी। मन में बहुत से सवाल लिए जब मैं उस घर से लौटी, तब मुझे एक पल को लगा जो उसकी माँ ने उसे नाम दिया, क्या वो सच था ? उसे और उसके घर को मैंने कभी वापस मुड़कर नहीं देखा लेकिन उस दिन मुझे यकीन हो गया कि प्यार जैसी चीज दुनिया में नहीं है। मैं खुश थी क्योंकि मुझसे मेरी मुलाकात थी, अब मैं स्त्री जो बन गई थी।

मेरा स्टेशन आ चुका था। उसकी आंखों में आंसू नहीं थे लेकिन कुछ संवेदनाएं जिन्हें में उसके कंधे पर हाथ रखकर जताना चाहती थी, उसका भी मुझे संकोच हुआ। कहीं मेरी संवेदनाएं इसको दिखावा तो नहीं लगेंगी ? ज्यादा समय भी तो नहीं था मेरे पास। एक अनुभव लिए मैं उस डिब्बे से उतरी तो लगा साधारण व्यक्ति समस्याओं को हल करता हुआ कितना जटिल हो जाता है ? अगर उसकी माँ के पास एक कमरा और रहा होता तो ?


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