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मैं, माँ और रफ़ी के नगमे

मैं, माँ और रफ़ी के नगमे

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मम्मी पुराने गीतों में ऐसा क्या है जो आप इतना पसंद करती हैं? ये किस फिल्म का गाना है? और सिंगर कौन है", ये मेरा सवाल था जब मैं पांचवी कक्षा में पढ़ती थी।

"बेटा ये फिल्म दोस्ती का गाना है और जिस महान सिंगर की ये आवाज़ है उनका नाम है," "मोहम्मद रफ़ी साहब"

माँ को गाने और फिल्मों का बहुत शौक था। घर में फिलिप्स का रेडियो और ऑडियो टेप भी था। उस ऑडियो टेप के कम से कम पचास - साठ कैसैट थे जो पुराने फिल्मों के थे, उनमें से रफ़ी स्पेशल, लता स्पेशल और किशोर स्पेशल, मुकेश स्पेशल था। माँ का रोज का रूटीन था कि सुबह उठते सबसे पहले वो कोई एक कैसेट लगा देती, गाने शुरू हो जाते और वो अपने काम में जुट जाती। पहले तो मुझे भी गाने के लिरिक्स उतने समझ नहीं आते शायद उतनी परिपक्व नहीं थी लेकिन संगीत बहुत पसंद आता तो मैं भी धीरे - धीरे पुराने गानों की शौकीन हो गई।

मुझे याद है 90 के दशक की मैंने इक्के - दुक्के ही फिल्म देखी होगी। तब दूरदर्शन ही हुआ करता था और शुक्रवार को ही नई मूवी आती थी। जहाँ तक मुझे याद है हमारे घर आशिकी और दिलवाले फिल्म का भी कैसेट हुआ करता था। इसके भी सारे गाने मेलोडियस थे और ये गाने अक्सर कुल्फी बेचने वाले, शादी - ब्याह, गली - नुक्कड़, चौंक - चौराहे आदि जगहों पर सुनने को मिल जाया करते थे। 90 के दशक के फिल्मों में हिंसा को प्रधानता दी जाती थी और हिंसा और मारधाड़ वाली फिल्में मुझे बिल्कुल पसंद नहीं आती थी।

माँ जितनी ही गाने और फिल्मों की शौकीन, पापा का उतने ही इन मामलों से दूर थे, सिवाय समाचार के उन्हे कुछ पसंद नहीं था। धीरे-धीरे मैं माँ की इन मामलों की साथी बनती गई, हम फिल्म साथ देखने जाने लगे। माँ, पापा को लाख फिल्म देखने के लिए मनाती लेकिन वो मानते ही नहीं। धीरे-धीरे माँ की ये रूचि मेरे अंदर घर बनाने लगी।

एक दिन मम्मी ने "हाथी मेरे साथी" फिल्म के गाने बजा रही थी और आज भी मुझे उस फिल्म का सिर्फ एक ही गाना याद रहता है जो रफ़ी साहब का गाया हुआ गीत था, "नफरत की दुनिया को छोड़कर प्यार की दुनिया में खुश रहना मेरे यार।" ऐसे तो उस फिल्म के सभी गाने अच्छे थे लेकिन ये गाना उसे फिल्म की जान थी। ये पहला गाना था जिसने मेरे मन की गहराई में दस्तक दिया और धीरे - धीरे मैं उस महान गायक के सतरंगी नगमों से परिचित होती गई और रफ़ी साहब से प्यार होता गया। जितना उनको सुनती उतनी ही उनकी मुरीद बनती गई। जैसे-जैसे समय बीतता गया और परिपक्वता आती गई, वैसे - वैसे ही उनकी आवाज़ में खोती गई और फिर वो समय भी आया जब मेरे कुछ दोस्त मेरे पुराने गानों के प्रति लगाव को हँसी में उड़ाने लगे लेकिन जिस रस में मैं खोई थी उसका मर्म वो क्या जाने? जो सच्चाई, अपनापन और अहसास पुराने गानों से जुड़कर मिला क्या वो नये गानों से मिलता? नये गानों का हाल चार दिन की चांदनी और फिर अंधेरी रात जैसा था। दो दिन याद रहते और फिर वक्त के थपेड़ो में दबकर गुम हो जाते जबकि पुराने गानों की बात ही अलग थी ये वो सोना था जो वक्त की आग में तपकर और भी निखर जाता था।

दूसरे मेरे भ्राता श्री जिन्हें पुराने गाने बिलकुल भी पसंद नहीं थे। एक घर में रहकर भी हमारी पसंद बिलकुल अलग थी। भईया को नये और तड़कते-भड़कते गाने पसंद थे जबकि मुझे मिनिंगफूल और ठहराव वाले गाने पसंद थे। मैं और मम्मी पुराने गाने खूब एंजॉय करते और भइया उतना ही चिढ़ता था। कभी - कभी तो वो मुझे अकेले बिठाकर कहता, "ये क्या जब देखों पुराने गाने सुनती रहती है और रोती रहती है" मेरा गीत गाना भईया को रोना लगता था" हाहाहा। भईया कितना समझाता कि नया गाना सुना कर तू नये जमाने की है लेकिन मुझे पर उसकी सीख का कोई असर नहीं होता। बाद में थक हार कर बेचारे ने कहना भी छोड़ दिया।

दोस्तों एक दौर ऐसा भी आया कि मैं विविध भारती की फैन हो गई थी। तब मैंने काॅलेज में एडमिशन लिया था, हुआ यूं कि एक दिन हमारा ऑडियो टेप खराब हो गया और माँ ने उसे बनवाया फिर कुछ दिनों बाद फिर से खराब हो गया। वो ऑडियो टेप फिलिप्स कंपनी का था और मम्मी की शादी में नाना जी ने दिया था। अब शायद उसकी उम्र भी हो चली थी सो अब हमने उसे बनवाना छोड़ दिया और एक नया फिलिप्स का ही रेडियो मम्मी ने खरीदा, बस फिर क्या था सुबह की शुरुआत अब भूले - बिसरे गीत से लेकर रात के अंतिम कार्यक्रम आपकी फरमाइश से होने लगी। रेडियो से जुड़ी तो संगीत और रफ़ी साहब के और भी करीब हो गई। ऐसे ऐसे नायाब नगमे सुनने को मिले कि जिसे पहले कभी सुना न था। "आज के फनकार" से सिंगर, डायरेक्टर, संगीतकार सभी को करीब से जानने का मौका मिला और पिटारा के द्वारा पुराने हीरो, हीरोइन, संगीतकार, डायरेक्ट का इंटरव्यू सुनने को मिलने लगा। अब तो ऐसा लगता कि रेडियो से अच्छी चीज दुनिया में कोई नहीं है। अब तो रेडियो से ऐसा रिश्ता बन गया कि कोई मुझे कहे कि तुझे एक कमरे में रेडियो के साथ बंद कर दूँ तो मैं उसके लिए तुरंत हामी भर दूँ।

एक बार तो ऐसा हुआ कि मुझसे टीचर ने पूछा कि आप किससे शादी करना चाहेंगी, तो मैंने झट से उतर दिया," रेडियो"। इतना सुनते ही सारे सहपाठी खिलखिलाकर हँस पड़े। ये रेडियो के प्रति मेरा दीवानापन नहीं तो और क्या था! फिर वो भी दौर आया जब केवल ( डिश) कनेक्शन की तब कई नये चैनलों का उदय हुआ और उस पर भी कई ऐसे चैनल्स आए जिसने पुराने गानों और पुराने फिल्मों को देखने का मौका मिला।

आज माँ की पूरी विरासत मैंने संभाल रखी है, सुबह उठते ही विविध भारती लगाना और घर के कामों में लग जाना। जो सुकून और खुशी मुझे रफ़ी साहब के गानों को सुनकर मिलता है वो और कहीं नहीं।



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