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मन्दिर

मन्दिर

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नदी किनारे एक गाँव में कुम्हारों के दो घर थे। उनका काम था नदी से मिट्टी उठाकर लाना और साँचे में ढाल के उसके खिलौने बनाना और हाट में ले जाकर उन्हें बेच आना। बहुत दिनों से उनके यहाँ यही काम होता था और इसी से उनके खाने-पीने, ओढ़ने-पहनने का काम चलता था। औरतें भी काम करती थीं, पानी भरती थी, रसोई बनाकर पति-पुत्र आदि को खिलाती थी और आँवा ठण्डा होने पर उसमें से पके हुए खिलौने निकाल कर उन्हें आँचल से झाड़ पोंछकर चित्रित करने के लिए मरदों के हवाले कर देती थी।शक्तिनाथ ने इन्हीं कुम्हार परिवारों के बीच अपने लिए एक स्थान बना लिया था। यह रोग-ग्रस्त ब्राह्मण-पुत्र अपने बंधू-बान्धव, खेल-कूद, पढ़ना-लिखना सबकुछ छोड़कर एक दिन इन मिट्टी के खिलौनों पर झुक गया। वह खपची की छुरी धो देता, साँचे के भीतर से मिट्टी निकाल कर उसे साफ़ कर देता और उत्कंठित और असंतुष्ट मन से देखता रहता कि खिलौनों का चित्रांकन कैसी लापरवाही से समाधा हो रहा है। स्याही से खिलौनों की भौवें, आँखें, ओंठ आदि चित्रित किए जाते थे, किसी की भवें मोती हो जाती और किसी की आधी ही बनती, किसी के ओंठ के निचले हिस्से में स्याही का दाग़ लग जाता और किसी में और कुछ हो जाता। शक्तिनाथ बेचैन हो उत्सुकता के साथ अनुनय करता, "सरकार भैया, इतनी लापरवाही से क्यों रंग रहे हो?" सरकार भैया वह खिलौने रंगने वाले कारीग़र को कहता था। वह उसी स्वर में हँसते हुए कहता, "महाराज जी! अच्छी तरह रंगने में दम बहुत लगता है। उतना दाम आजकल देता कौन है? एक पैसे का खिलौना चार पैसे में नहीं बिकेबहुत कहने-सुनने पर भी शक्तिनाथ इस विषय पर मात्र थोड़ी-सी बात समझ सका कि एक पैसे का खिलौना एक ही पैसे में बिकेगा, चाहे उसकी भवें हों या न हों या आधी ही हों। दोनों आँखे चाहे एक-सी हों या अलग तरह की जैसी भी हों, मिलेगा वही एक पैसा! कौन नाहक ही इतनी मेहनत करे? खिलौने खरीदेंगे बच्चे, दो घडी उससे प्यार करेंगे, सुलाएंगे, बैठाएंगे, गोद में लेंगे, उसके बाद तोड़-फोड़ कर फेंक देंगे, यही तो बस करेंगशक्तिनाथ अपने घर से जो लाई-चना अपनी धोती में बांधकर लाया था, उसका कुछ हिस्सा अब भी बंधा पड़ा था। उसे खोलकर बड़ा अनमना-सा हो चबाता-चबाता और बिखेरता-बिखेरता वह अपने टूटे-फूटे मकान के आँगन में आ खड़ा हुआ। उस समय घर में कोई नहीं था। बीमारी से परेशान बूढ़े पिता, ज़मीदार के यहाँ मदनमोहन की पूजा करने गए थे। वहां से भींगे अरवा चावल, केले, मूली आदि भगवान पर चढ़ाया हुआ सामान बाँधकर लाएंगे, और बेटे को खिलाएँगे। घर का आँगन कुण्ड, करवीऔर हरसिंगार के पेड़ों से भरा पड़ा है। गृहलक्ष्मी के बिना घर में हर तरफ़ जंगल का नज़ारा दिखाई देता है। किसी तरह का करीना नहीं, किसी चीज़ में कोई सजावट नहीं, वृद्ध भट्टाचार्य मधुसूदन किसी तरह दिन काट रहे हैं। शक्तिनाथ फूल तोड़ता, डालें हिलाता और पत्तियां नोचता हुआ अन्यमनस्य्क भाव से घूमने-रोज़ शक्तिनाथ कुम्हारों के घर जाया करता है। आजकल उसका सरकार भैया बढ़ी मेहनत से सबसे अच्छा खिलौना छाँट कर उसके हाथ में दे देता और कहता , "लो महाराज जी! इसे तुम रंगो।" शक्तिनाथ दोपहर तक उसी खिलौने को रंगता रहता। शायद खूब अच्छा रंगा जाता,फिर भी एक पैसे से अधिक कोई नहीं देता। लेकिन सरकार भैया उसे घर आकर कहते, "महाराज, अच्छी तरह रंगा हुआ आपका खिलौना दो पैसे में बिक गया!" इतना सुनते ही शक्तिनाथ मारे ख़ुशी के फूला न समाताइस गाँव के एक ज़मीदार कायस्थ हैं। देवताओं और ब्राह्मणों पर उनकी भक्ति बहुत अधिक है, उनके गृह-देवता मदनमोहन की मूर्ती अनुपम है जिसके साथ स्वर्णरंजित राधाजी हैं, ऊँचे मंदिर में चांदी के उत्कृष्ट सिंहासन पर वृन्दावन की लीला के कई अपूर्व और सुन्दर चित्र दीवारों पर शोभायमान हैं। ऊपर कीमख़ाब के चन्दोवे के बीचों-बीच सैंकड़ों बत्तीवाला झाड़ लटक रहा है। एक तरह संगमरमर की वेदी पर पूजा की सामग्री सजी होती है। और पुष्प, चन्दन,नेवैद्य आदि से मंदिर सजा रहता है। शायद स्वर्ग-सुख और सौंदर्य को याद रखने के लिय इस मंदिर की हवा फूलों और पूजा की सुगन्ध-सिक्त होकर परिवेश को शुद्ध व स्वच्छ कर है होती हबहुत दिन पहले की बात कह रहा हूँ। ज़मीदार राजनारायण बाबू ने प्रौढ़ता की हद में कदम रखते ही सबसे पहले यह समझा कि जीवन की छाँव धीरे-धीरे धुंधली पड़ती जा रही है। जिस दिन एक सुबह सर्वप्रथम यह जाना कि ज़मींदारी और धन-दौलत की मियाद शायद दिन-ब-दिन घटती जा रही है,सबसे पहले जिस दिन मंदिर के एक ओर खड़े-खड़े उन्होंने काफ़ी अनुपात में आसूं बहाये थे, मैं उस दिन की बात कर रहा हूँ, उस समय उनकी इकलौती बच्ची अपर्णा पांच वर्ष की थी। पिता के पैरों के पास खड़ी वह एकाग्र मन से सब देखा करती, मधुसूदन भट्टाचार्य मंदिर के उस काले खिलौने चन्दन से चर्चित कर रहे है, फूलों से सिंहासन सजा रहे हैं और उसी की स्निग्ध सुगन्ध आशीर्वाद की तरह मानो उन्हें स्पर्श करती रहती है। उसी दिन से प्रतिदिन वह बच्ची सन्ध्या के बाद अपने पिता के साथ देवता की आरती देखने आया करती और इस मंगलोत्सव में वह अकारण ही तन्मय होकर देखतीशनैः-शनैः अपर्णा बड़ी होने लगी। जैसे हिन्दू परिवार की लड़की ईश्वर की धारणा अपने ह्रदय-पाताल पर बसा लेती है, वैसे ही वह भी करने लगी। उस मंदिर को अपने पिता की निष्ठां का उपादेय मानकर वह उसमें हृदय में लहू-सी रची-बसी अपने प्रत्येक काम और खेल-कूद में इन्हीं भावों में निमग्नता प्रमाणित करती रहती। दिन भर वह मंदिर के आस-पास बनी रहती। एक भी सूखा घास का तिनका, सूखा फूल, मन्दिरमे पड़ा उसे सहन न होता। कहीं एक बूँद भी यदि पानी की गिर जाती, उसे अपने कपड़ो के किनारे से पौंछ देती। राजनारायण की देव-निष्ठां को लोग दिखावा समझते, किन्तु अपर्णा की देव-सेवा परायणता उस सीमा को पार करने लगी। बासी फूल अब पुष्प-पात्र में न समाते, दूसरा बड़ा पात्र मंगवाया गया। चन्दन की पुरानी कटोरी बदल दी गई। भोग और नेवैद्य की मात्रा पहले से बहुत बढ़ गई। यहाँ तक कि नित्य नाना प्रकार की नवीन पूजा का आयोजन व उसकी निर्दोष व्यवस्था करने के झंझट में बूढ़े पुरोहित तक घबराने लगे। ज़मीदार राजनारायण यह सब देख-सुनकर भक्ति और स्नेह से गदगद हो कहने लगे कि देवता ने मेरे घर में अपनी सेवा के लिए स्वयं लक्ष्मी को भेज दिया है --कोई कुछ मसमय आने पर अपर्णा का विवाह निश्चित हो गया। इस डर से कि अब मंदिर छोड़ कर कहीं और जाना पड़ेगा, उसके सुन्दर मुख की हंसी बेसमय ही ग़ायब हो गई। मुहूर्त नज़दीक आ रहा है, उसे ससुराल जाना ही होगा। जैसे बिजली को वर्षा की काली घटाएं सप्रयास अपने अन्तर्तम में छिपा अवरुद्ध गौरव के भार से स्थिर हो बरसाने के लिए कुछ देर नभ में स्थिर रहती हैं, वैसे ही स्थिर भाव से अपर्णा ने भी एक दिन सुना कि शादी का मुहूर्त आज आ गया है। उसने अपने पिता से कहा, " बाबू जी मैं भगवान की सेवा का जो प्रबंध किए जा रही हूँ उसमें किसी तरह की त्रुटि न आने पायेवृद्ध पिता ने रोते हुए कहा, "ठीक है बेटी!- नहीं, कोई त्रुटि नहीं होगी!"

अपर्णा चुपचाप चली गई। उसकी माँ इस दुनिया में नहीं थी, वह रो न सकी, बूढ़े पिता की दोनों आँखों में आंसू भरे हैं, वह क्या उन्हें रोक सकती है? इसके बाद अपने दुखी क्रंदनोन्मुख दृढ़ हृदय को पौरुष-शुष्क हंसी से ढांप घोड़े पर सवार होते वीर योद्धा की तरह अपना गाँव छोड़कर अनजाने कर्तव्य को सिर-माथे रख वह वहां से चल दी। अपने उद्वेलित आंसूओं को पौंछते हुए उसे ध्यान आया कि वह पिता के आँसू पौंछकर नहीं आई तो उसका हृदय रो-रोकर न जाने लगातार कितनी ही शिकायतें करने लगा। एक तो वैसे ही उसका मन सैंकड़ों कष्टों से दुखी था, उसपर आजन्म परिचित आरती के आह्वान शब्द उसके कानों में मर्मान्तक निराशा का हाहाकार मचाने लगे। छटपटाती हुई अपर्णा पालकी का द्वार खोल सन्ध्या के धुंधलके में से देखने लगी; छाया निविड़ ऊंची एक-एक देवदार की चोटी पर उस परिचत मंदिर के समुन्नत शिखर की कल्पना मन में आते ही वह उच्छवसित उद्वेग से रो पड़ी। ससुराल से आई एक दासी पालकी के पीछे चली आ रही थी, झटपट उसके पास आकर बोली, " छिः बहू जी ! इस प्रकार क्या रोना चाहिए? ससुराल कौन नहीं अपर्णा ने दोनों हाथ से मुँह ढककर रोना बंद करके पालकी के दरवाज़े बंद कर लिए। ठीक समय मंदिर के अंदर खड़े होकर उसके पिता राजनारायण मदनमोहन भगवान के सामने धूप-दीप और आंसुओं से धुंधली हुई एक देवमूर्ति के अनिंद्य-सुन्दर मुख पर अपनी प्रिय विवाहिता पुत्री की छवि देख रहे थे।अब 'अपर्णा अपने स्वामी के के घर रहती है। वहाँ उसके इच्छाहीन पति ने सम्भाषण में ज़रा भी आवेश और ज़रा-सी भी उत्सुकता प्रकट नहीं की । प्रथम प्रणय का स्निग्ध संकोच और मिलन की सरस उत्तेजना जैसी कोई भी कोशिश उसके उदास पड़े नयनों में पहली-सी चमक वापस न ला सकी। शुरू से ही पति-पत्नी दोनों ही एक दूसरे के सामने किसी ज्ञान-अपराधके अपराधी से बने रहे और उसकी क्षुब्ध पीड़ा से आक्रान्त व प्रेम-कूलप्लाविनि उद्वेलित तटिनी की भाँति दुर्लंघ्य रुकावटें खड़ी कर बहती चली जाने लएक दिन बहुत रात बीत जाने पर अमरनाथ ने धीरे-से पुकार कर कहा, "अपर्णा, तुम्हें यहाँ रहना अच्छा नहीं लगता?"

अपर्णा जाग रही थी, बोली, "नहीं।"

अमर, "मायके जाओगी?"

अपर्णा , "हाँ, जाऊँगी।" 

अमर, "कल जाना चाहती हो?"

अपर्णा, "हाँ।"

क्षुब्ध अमरनाथ यह उत्तर सुनकर अवाक रह गया। अगर जाना न हो सके तो?" 

अपर्णा ने कहा, "तब जैसे हूँ वैसे ही रहूँगी।" 

इसके बाद कुछ देर तक दोनों पति-पत्नी चुप रहे अमर ने बुलाया,"अपर्णा!"

अपर्णा ने अन्यमनस्क भाव से कहा, "क्या है?"

"मेरी क्या तुम्हें कोई ज़रूरत ही नहीं।"अपर्णा ने कपड़े से सर्वांग अच्छी तरह ढककर आराम से सोते हुए कहा, "इन सब बातों से बड़ा झगड़ा होता है, ये सब बातें न करो।"

"झगड़ा होता है, कैसे जाना?" "जानती हूँ, मेरे मायके में मंझली भाभी और मंझले भैया में इसी बात को लेकर झगड़ा होता था। मुझे लड़ाई-झगड़ा पसंद नहीं।"

इन बातों को सुनकर अमरनाथ उद्वेलित हो गया। अँधेरे में टटोलता जैसे वह इस बात को जानने का प्रयास कर रहा था कि अचानक उसके हाथ वह बात आ गई, तो बोला, " आओ अपर्णा, हम भी झगड़ा करें। इस तरह रहने की बजाए तो लड़ाई-झगड़ा लाख गुना अच्छा हैअपर्णा स्थिर भाव से बोली, "छिः झगड़ा क्यों करने चलें? तुम सो जाओ।" इसके बाद अपर्णा सारी रात जागती रही या सो गई, अमरनाथ रातभर जाग कर भी न समझ सका। सुबह से शाम तक अपर्णा का सारा दिन काम-काज और जप-तप में बीत जाता। रस-रंग और हंसी मजाक में उसका मन रमता न देख कर उसके बराबर की लड़कियों ने मज़ाक-मज़ाक में उसे क्या-क्या न कहना शुरू कर दिया। ननदें उसे 'गुसाईं जी' कह कर खिल्ली उड़ाती तो भी वह उनके टोले में न घुल-मिल सकी, बार-बार यही सोचती कि नाहक ही दिन बीतते जा रहे हैं। और एक वह अदृष्य आकर्षण जिससे उसका प्रत्येक रक्त-कण पितृ-प्रतिष्ठित उस मंदिर की ओर भाग जाने के लिए, पूर्णिमा में समुद्र की लहरों-सा मन हृदय के सभी कूल-उपकूल दिन- रात पछाड़ें खाता उद्वेलित ही रहता, उसे कैसे रोक जाए।"                                             

घर-गृहस्थी के काम से, या छोटे-मोटे हास-परिहास से? उसका दूखित मन भारी भ्रान्ति को लेकर आप ही आप चक्कर-घिनी बन रहा है, ऐसे में उसके पास पति का लाड-प्यार और स्नेह, परिदुवार-वर्ग का प्रीति सम्भाषण कैसे पहुँच सकेगा? किस तरह वह समझे कि कुमारी की देश-सेवा से नारीत्व के कर्त्तव्य का सारा परियोजन पूरा नहीं किया जा सकता। 

अमरनाथ के समझने की भूल है कि वह उपहार की वस्तुएँ लेकर अपनी पत्नी के पास आया। दिन के तक़रीबन नौ-दस बजे होंगे। स्नान आदि से निवृत हो अपर्णा पूजा के लिए जा रही थी। यथा सम्भव मधुर कंठ से अमरनाथ ने कहा, "अपर्णा, तुम्हारे लिए उपहार लाया हूँ, कृपाकर, लोगी क्या?" अपर्णा ने मुस्कराते हुए कहा, "लूँगी क्यों नहीं?" 

अब क्या कहना था, अमरनाथ के हाथ में चाँद आ गया। वह ख़ुशी से एक सुन्दर रुमाल में लिपटे सूफियाना डिब्बे का ढक्कन खोलने लगा। ढक्कन के ऊपर सुनहरे अक्षरों में अपर्णा का नाम लिखा हुआ था। अब अपर्णा का चेहरा देखने के लिए उसने अपर्णा के मुँह की तरफ़ देखा तो उसे लगा कि अपर्णा उसकी तरफ़ वैसे ही देख रही है, जैसे कोई आदमी काँच की नकली आँख लगा कर देखता है। यह देख उसका सारा उत्साह क्षण भर में बुझ गया और अर्थहीन एक बूँद सूखी हंसी से वह अपने आपको छिपाने लगा। शर्म के मारे गढ़ जाने पर भी उसने बक्से का ढक्कन खोलकर कई सुगन्धित तेलों की शीशियां और न जाने क्या-क्या चीज़ें निकालनी शुरू की, परन्तु अपर्णा ने उसे रोककर कहा, "क्या ये सब मेरे लिए लाए अमरनाथ की बजाय जैसे किसी दूसरे ने जवाब दिया, "हाँ, तुम्हारे ही लिए लाया हूँ। दिलखुश की शीशियां..."

अपर्णा ने पूछा, " बक्सा भी मुझे दे दिया क्या?"

"ज़रूर।"      "तो फिर क्यों फिजूल में इन्हें निकाल रहे हो? बॉक्स में रहने दो सब।"

"अच्छा रहने देता हूँ, तुम लगाओगी न?" 

एकाएक अपर्णा की भवें सिकुड़ गई। सारी दुनिया से लड़ाई करके उसका क्षत-विक्षत हृदय परास्त होकर वैराग्य ग्रहण कर चुपचाप एकांत में जा बैठा था। अचानक उस पर स्नेह के इस अनुनय ने भद्दे उपहास का आघात किया। विचलित होकर उसने उसी वक्त प्रतिघात करते हुए कहा, "नष्ट नहीं होगा, रख दो। मेरे अलावा और भी बहुत लोग इसे प्रयोग करना चाहते हैं।" इतना कह कर अपर्णा उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना पूजा-घर में चली गई और अमरनाथ व्याकुल हो उस अस्वीकृत उपहार पर हाथ धरे उसी तरह बैठा रहा। पहले उसने मन ही मन हज़ार बार स्वयं को निर्बोध कह कर अपमानित किया। फिर बाद में उसने गहरी सांस भरकर कहा, " अपर्णा, तुम पत्थर हो।" उसकी आँखों में आंसू भर आए। वह वहीं बैठा-बैठा आँखे पोंछने लगा। अपर्णा यदि साफ़-साफ़ कह कर इंकार कर देती तो बात कुछ और ही प्रभाव डालती। वह जो इंकार किया भी तो अस्वीकृति की सारी कलां उसकी देह पर पुत गई है, इसका प्रतिकार वह कैसे करे? क्या वह अपर्णा को उसके पूजा के आसन से खींच कर ले आए और उसके सामने उन सभी उपेक्षित उपहारों को पाँव मारकर तोड़-फोड़ दे और सबके सामने दृढ़ प्रतिज्ञा करे कि अब वह उसका मुँह न देखेगा? वह क्या करे, कितना और क्या कहे, कहाँ लापता होकर चला जाए? क्या भस्म रमा कर साधू-संत-सा हो जाए और कभी अपर्णा के दुर्दिनों में अचानक आकर रक्षा करे? इस तरह संभव-असंभव सब प्रकार के उत्तर-प्रत्युत्तर और वाद-प्रतिवाद उसके अपमानित मस्तिष्क में व्याकुलता के साथ पैदा होने लगे। परिणाम यह हुआ कि वह उसी जगह और उसी तरह बैठा रहा और रोने लगा। किन्तु किसी भी तरह उसके आदि से अंत तक के उद्विग्न संकल्पों की लम्बी फ़ैरिस्त ख़त्म नउस घटना के बाद दो दिन और दो रातें व्यतीत हो गई, अमरनाथ घर सोने नहीं आया। उसकी माँ को जब यह बात मालूम हुई तब उन्होंने बहू को बुलाकर थोड़ा बहुत डाँटा-डपटा और पुत्र को बुलाकर समझाया बुझाया। ददिया सास भी भी इस मौक़े पर ज़रा मज़ाक उड़ा गई, इस तरह सात-पांच में बात हलकी पड़ गई। रात को अपर्णा ने अपने पति से क्षमा-याचना की और कहा, "अगर मैंने आपके मन को कष्ट पहुंचाया हो तो मुझे क्षमा कर दीजअमरनाथ बात नहीं कर सका। पलंग के एक किनारे बैठकर बिछोने की चादर को बार-बार खींच कर उसे सीधा-साफ़ करने लगा। उसके सामने ही अपर्णा खड़ी थी। उसके चहरे पर म्लान मुस्कान थी, उसने फिर कहा, "क्षमा नहीं करोगे!" अमरनाथ ने सिर नीचा किए-किए ही कहा, "क्षमा किसलिए और क्षमा करने का मुझे क्या अधिकार है?अपर्णा ने पति के दोनों हाथ अपने हाथों में लेकर कहा, "ऐसी बात मत कहो। तुम मेरे स्वामी हो, तुहारे नाराज़ रहने से मेरा गुज़ारा कैसे होगा?"तुम क्षमा न करोगे तो मैं खड़ी कहाँ होऊँगी? किसलिए गुस्सा हो गए हो, बताओ?" अमरनाथ ने शांत होकर कहा, "गुस्सा तो नहीं हुआ"नहीं हुए?"

"नहीं तो।" 

अपर्णा को कलह-क्लेश पसंद न था , इसलिए विश्वास न होते हुए भी उसने विश्वास कर लिया और बोली, "तो ठीक है।"

इसके बाद वह एक तरफ़ हो सो गई। लेकिन अमरनाथ को इससे बड़ी हैरानी हुई। वह दूसरी ओर मुँह फेरकर मन में तर्क-वितर्क करने लगा कि इस बात पर उसकी पत्नी ने कैसे विश्वास कर लिया? मैं जो दो दिन आया नहीं, मिला नहीं, फिर भी मैं गुस्सा नहीं हुआ- क्या यह विश्वास करने की बात है?" इतनी बड़ी घटना इतनी जल्दी समाप्त होकर बेकार हो गई ? इसके बाद जब उसने समझा कि अपर्णा सचमुच सो गई है, तब वह एकदम उठकर बैठ गया और बिना किसी दुविधा के आवाज़ लगाईं, " अपर्णा, तुम क्या सो रही हो?-- ओ अपर्णा!" अपर्णा जाग गई और बोली, "बुला रहे हो?"

"हाँ, कल मैं कलकत्ता जाऊंगा।"

"कहाँ, यह बात पहले तो नहीं की! इतनी जल्दी तुम्हारे कालेज की छुट्टी खत्म हो गई ? और दो-चार दिन नहीं रह सकते?"

"नहीं, अब रहना नहीं हो सकता।"            

अपर्णा ने कुछ सोचकर फिर पूछा, "तब क्या तुम मुझ से नाराज़ होकर जा रहे हो?"बात सच थी, अमरनाथ भी जानता है, पर मन इस बात को न मान सका। संकोच ने मानो उसकी धोती का किनारा पकड़ कर उसे वापस बुला लिया। उसे शक हुआ कि कहीं अपना निक्कमापन प्रमाणित कर कहीं वह अपर्णा के सम्मान को चोट न पहुँचा दे - इस तरह इस उत्सुकताविहीन नारी-निश्चेष्टता ने उसे विमोहित कर दिया। पतित्व का जितना तेज उसने अपने स्वाभाविक अधिकार से प्राप्त किया था, उसे अपर्णा ने इन चार-पांच महीनों में धीरे-धीरे खींच कर निकाल दिया है। अब वह गुस्सा भी दिखाए तो किस बूते पर? अपर्णा ने फिर कहा, "नाराज़ होकर कहीं नहीं जाना, नही तो मेरे मन को बहुत चोट पहुंचेगी।"

अनारनाथ सच-झूठ के सम्मिश्रण से जो भी कह सका उसका मतलब था कि वह नाराज़ नहीं हुआ, और इसे सिद्ध करने के लिए सोचा कि दो दिन और रहकर जाएगा। रहा भी दो दिन,परन्तु जैसे रोका था, उसमें विजयी होने की एक शर्मनाक बेचैनी उसने मन में बनाए रखी। आंधी-पानी आने से एक लाभ होता है कि आसमान स्वच्छ हो जाता है, किन्तु बूंदा-बांदी से बादल तो साफ़ होते हैं नहीं, उलटे पैरों में कीचड़ और हर तरफ़ बेमज़ा भाव बढ़ जाता है। अपने घर से जो कीचड़ लपेट कर अमरनाथ कलकत्ते आया, परिचितों के सामने अपने कीचड़ भरे पाँव निकालने में भी शर्मिन्दगी महसूस होने लगी। न तो उसका मन पढने-लिखने में लगता और न ही हंसने-खेलने में तबीयत मानती। यहाँ रहने की भी इच्छा नहीं होती, घर जाने को भी मन न मानता। उसके सीने में मानो असह वेदना का बोझ लद गया जिसे धकेलने में उसके विकल हृदय की पसलियाँ आपस में टकरा रही हैं। किन्तु सभी कोशिशें नाकाम!


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