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जीवन साथी

जीवन साथी

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"तुम जल्दी से खाना लगा दो नीरा, मैं अम्मा को दवा देकर आ रहा हूँ। दफ्तर के लिये देर हो रही है।"

इतना कहकर रवि माँ के कमरे की ओर चले गये। हाथ का काम छोड़ नीरा ने थाली परोसी। रवि खाने बैठे पहला कौर मुँह मे डाला ही था कि पूरी थाली उठाकर फेंकी, जो झनझनाती दीवार से टकराई। चारों ओर अन्न कण बिखर गये।

"कितना नमक डाला है दाल में, जानती हो न शुगर, बीपी का मरीज हूँ।"

ये कहते हुए रवि ऑफ़िस चले गये। कुछ देर के लिये तो नीरा सन्न रह गई। रवि ऐसे तो नहीं थे, आँसुओं की धारा बह निकली, दुखी मन से घर के काम समेटने लगी। उससे भी खाना नहीं खाया गया। सास का बिस्तर साफ किया, दलिया बनाकर अपने हाथ से खिलाया।

दोपहर तक रवि की चिंता होने लगी। रवि बाहर का कुछ नहीं खाते, तबियत न खराब हो जाये। गलती तो उसी की है, थोड़ी सी दाल-सब्जी चख कर देख लेती। शाम को रवि घर लौटे, सीधे माँ के कमरे में तबियत जानने गये, यह उनका नियम था। बाहर आ, नीरा का उदास चेहरा देखा मन विगलित हो गया।

नीरा के दोनों हाथ अपने हाथों में ले लिये, प्रेम पूर्ण दृष्टि डाल कर बोले-

"मुझे माफ कर दो नीरा,असल मे माँ की तकलीफ मुझे विचलित कर देती है। उन्होने माँ-पिता दोनों बनकर, कष्ट झेलकर पाला है पर आज मैंने अन्न और तुम्हें दोनों को अपमानित किया, दिन भर अपराध भाव से बैचैन रहा। थाली लगाओ, हम दोनों मिलकर खायेंगे और हाँ तुम्हारी पसंद के पान बनवा कर लाया हूँ। लो, तुम भी मुझे एक थप्पड़ मार लो, हिसाब बराबर हो जाएगा।"

नीरा मुस्करा कर थाली लगाने लगी।


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