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जीजाबाई: संघर्ष एक माँ का

जीजाबाई: संघर्ष एक माँ का

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संध्या बेला अब ढलान की ओर बढ़ रही थी। सिंदूरी आसमान का रंग अब धीरे-धीरे स्याह होता जा रहा था। अपने आँगन में बेचैनी से चहलकदमी करती जीजाबाई आसमान के साथ-साथ अपने मन को भी स्याह होता हुआ महसूस कर रही थी, जहां आशा के उजाले की जगह अब निराशा का घोर अंधकार अपनी जगह बनाता जा रहा था।

थोड़ी देर पहले ही दासी आकर सूचना दे गई थी कि मुगलों ने बीजापुर के सुल्तान के खिलाफ युद्ध का ऐलान कर दिया है। सुल्तान की सेना के प्रमुख योद्धा होने के नाते जीजाबाई के पति 'शाहजी राव' और उनके बड़े पुत्र 'शम्भाजी' का युद्ध में शामिल होना अनिवार्य था।

एक अनजानी आशंका ने जीजाबाई को घेर लिया था।

अपने प्रभु के आगे प्रार्थना में सर झुकाए जीजाबाई किसी भी अनहोनी के ना घटित होने की प्रार्थना कर रही थी।

मुगलों की भारी-भरकम सेना सुल्तान की छोटी सी सेना पर भारी पड़ी थी। अंततः सुल्तान द्वारा संधि-प्रस्ताव स्वीकार कर लिए जाने पर युद्ध-समाप्ति की घोषणा कर दी गयी।

सुल्तान की बची हुई सेना वापस लौट रही थी जिसमें शाहजी राव और शम्भाजी भी थे।

जीजाबाई मुगलों के आतंक से भली-भांति परिचित थी। हिंदुओ का जबरन धर्म-परिवर्तन, मंदिरों की तोड़-फोड़, हिन्दू स्त्रियों के साथ अत्याचार इत्यादि।

उनकी इच्छा थी कि मराठा संगठित होकर अपने स्वतंत्र अस्तित्व के लिए लड़े और हिंदवी स्वराज की स्थापना करें।

इन्हीं विचारों में डूबी जीजाबाई अपने पति और पुत्र की बेचैनी से प्रतीक्षा कर रही थी।

तभी दासी दौड़ी-दौड़ी आयी और आकर जीजाबाई के चरणों में लोटकर करुण विलाप करने लगी। उसे यूँ रोता देखकर जीजाबाई के पास ही खेल रहे उनके छोटे पुत्र शिवाजी भी रोने लगे। अपने पुत्र को संभालते हुए जीजाबाई ने दासी से इस विलाप का कारण पूछा।

दासी ने चुपचाप सुल्तान का भेजा हुआ पत्र जीजाबाई के हाथों में सौंप दिया। पत्र पढ़ते ही जीजाबाई मूर्छित हो गयी। माँ को इस अवस्था में देखकर नन्हे शिवाजी और ज़ोर से रो पड़े।

कुछ क्षण पश्चात जीजाबाई की मूर्छा टूटी और उन्हें पत्र का स्मरण हुआ जिसमें लिखा था "मुगल सेनापति अफ़ज़ल खान ने धोखे से शाहजी राव और शम्भाजी की हत्या कर दी है।"

पति की चिता के सम्मुख खड़ी जीजाबाई की इच्छा हुई वो भी उनके साथ सती हो जाये लेकिन नन्हे शिवाजी का मुख देखकर उन्होंने अपने मन से इस विचार को त्याग दिया।

शिवाजी के आँसू पोछते हुए उन्होंने कहा "पुत्र आज के पश्चात तुम आँसू नहीं बहाओगे, अपितु हमारे देश, धर्म और संस्कृति के दुश्मनों को रुलाओगे।"

नन्हे शिवाजी ने माँ की बात पर आज्ञाकारी पुत्र की भांति सहमति में सर हिला दिया।

परिस्थितियों को भांपते हुए जीजाबाई शिवाजी को साथ लेकर एक अज्ञात स्थान पर चली गयी। अब उनके जीवन का एक ही लक्ष्य था शिवाजी की ऐसी परवरिश करना कि वो मुगलों का विनाश करके मराठा साम्राज्य की नींव रख सके और हिंदुओं के सोए हुए स्वाभिमान को जगा सके।

दिन में जीजाबाई स्वयं शिवाजी को युद्ध कला की शिक्षा देती और रात्रि में उन्हें रामायण-महाभारत के वीरों की कहानियां सुनाती।

जीजाबाई ने शिवाजी के रक्त के कण-कण में देशभक्ति की ज्वाला भर दी।

शिवाजी की युद्धकला की ख्याति अब फैलने लगी थी। धीरे-धीरे शिवाजी ने योग्य मराठा वीरों की एक छोटी सी सेना बना ली।

उधर बीजापुर में सुल्तान की मृत्यु के पश्चात अराजकता फैल चुकी थी। जिसका फायदा उठाकर एक बार पुनः मुगलों ने बीजापुर पर आक्रमण कर दिया।

लेकिन इस बार उनका सामना शिवाजी की छोटी पर अत्यंत योग्य सेना से हुआ। अपनी उत्तम युद्ध-रणनीति की बदौलत शिवाजी ने कुछ ही समय में मुगलों को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया और अंततः महान मराठा साम्राज्य की नींव रखी।

ये जीजाबाई के संघर्ष, उनकी परवरिश और देशभक्ति के जज्बे का ही परिणाम था कि आज मराठा सम्राट के तौर पर शिवाजी का राज्याभिषेक था।

जीजाबाई की आँखों में खुशी के आँसू थे। अंततः हिंदवी स्वराज की स्थापना, हिंदुओं के साथ न्याय, उनके समाज और धर्म की रक्षा की जो कामना उनके हृदय में थी उसे उनके पुत्र ने सम्पूर्ण कर दिया था।

शिवाजी का राजतिलक करते हुए जीजाबाई भावुक स्वर में बोली "पुत्र, आज मुझे मेरे संघर्ष का फल मिल गया। इस फल का सदा ध्यान रखना। हिंदवी स्वराज की इस बगिया को अपनी नित-नई विजय से रोज़ सजाना।"

"जैसी राजमाता की आज्ञा" कहकर शिवाजी ने उनके पैर छू लिए। अभी कुछ ही दिन बीते थे कि राजमाता जीजाबाई का स्वास्थ्य अचानक ही बिगड़ने लगा। राजवैद्य के अथक प्रयास के बावजूद जीजाबाई को बचाया नहीं जा सका। अपने पुत्र के राज्याभिषेक के महज बारह दिन पश्चात जीजाबाई स्वर्ग सिधार गयी। और पीछे छोड़ गई अपने संघर्ष, हिम्मत और जज्बे की महान गाथा जो हर माँ के लिए एक सीख है।


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