बिखरे पन्ने
बिखरे पन्ने
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जीवन के उल्लास का अद्भुत और अपूर्व आनन्द ले रहे नितिन बाबू छत पर खड़े पतंगों के पेंच, लहराव और तुनकियों को बड़ी तन्मयता से देख रहे थे, तभी एक पतंग उनके पास से होकर गुज़री, लेकिन ये क्या! जैसे ही वो पतंग को पकड़ने के लिये झपटे, वह पतंग तो यकायक उड़ चली लहराती, बलखाती, मदमस्त होकर आसमान की ओर कहीं अपना ठिकाना ढूंढने।
ये दृश्य देखकर नितिन बाबू विचारमग्न हो चले। उन्हें वही पुराने ऑफिस की याद आ गयी, जिसमें टेबल पर बैठे-बैठे ज्योत्स्ना के हाथ का लिखा पर्चा किस तरह से उड़ता हुआ खिड़की से निकल गया, जिसे पकड़ने के लिये उसने ऐसा ही झपट्टा मारा, लेकिन वो भी लहराता हुआ आँख से ओझल हो गया और एक-एक करके सारी बातें हृदय से निकल किसी फिल्म की तरह सचित्र व सजीव हो उठीं। एक पल मानो ऐसा लगा जैसे ज्योत्स्ना अपनी कहानी खुद ही बयां कर रही हो। विचारों की इसी तन्द्रा को भंग करते हुये शशि ने नितिन बाबू के कन्धे पर हाथ रखा तो नितिन बाबू सचेत हो चौंक उठे, और पूछने लगे "अ...अरे...शशि तुम...तुम कब आयी?"
शशि ने कुछ चेहरे की आकृति पढ़ते हुये प्रश्न का उत्तर दिया "बस...अभी...अभी...पर तुम कहाँ खोये हुये थे?"
"कहीं नहीं!" लम्बी साँस भरते हुये नितिन बाबू ने कहा पर नारी मन को समझाना इतना आसान कहाँ होता। शशि ने जिज्ञासा व गम्भीरता पूर्वक फिर कहा "कहीं तो...?"
अब नितिन बाबू अनमने से हो उठे और कहने लगे ''फिर ज्योत्स्ना की याद ताजा हो उठी। वही उड़ता पन्ना जिसे पकड़ने की कोशिश तो की लेकिन... खैर जाने दो, चलो नीचे चलते हैं।'' कहकर नितिन बाबू ने बात टालने की असफल कोशिश की। पर शशि ललायित थी, सब कुछ जानने के लिये और उतावली भी। उसने फिर कहा "नहीं, आज तो मैं सब कुछ जानना चाहती हूं, ज्योत्स्ना दीदी के बारे में।"
नितिन बाबू ने फिर टालने की कोशिश करते हुये कहा "नहीं, फिर कभी।"
लेकिन शशि के जिज्ञासु चेहरे को देख गहरी सांस लेकर आसमान की ओर ताकने लगे और पुरानी घटना का स्मरण करने लगे
"जब मैं १२ वीं कक्षा में हिन्दी साहित्य की कक्षा पढ़ रहा था, तभी रहीमदास जी का दोहा "रहिमन धागा प्रेम का...।।" मास्टर जी पढ़ा रहे थे, तब इसके अर्थ पर मैंने कहा कि लोग पागल हैं जो प्रेम करते हैं और छोड़कर चले जाते हैं, फिर वापस आकर अपनत्व का अहसास कराते हैं।
तभी एक आवाज़ मुखर हुयी, जिसने कहा "प्रेम वो विश्वास है जो युगों-युगों तक अमरत्व प्रदान करता है, उसमें गुस्सा, क्रोध, ईर्ष्या ये सब नहीं होते और तो और अपनत्व को इतवा गहरा अहसास प्रेम के अलावा और कहीं नहीं।"
तब मैंने बीच में बात काटते हुये कहा "लेकिन, जब प्रेम असफल होता है तो दुःख, व्यग्रता और मृत्यु के अलावा कुछ नहीं देता और हाँ, सफल प्रेम में भी वासना होती है।"
तभी उसने तपाक् से उत्तर देते हुये कहा ''प्रेम वो विश्वास है, जो दु:ख, व्यग्रता में तपता है, मृत्यु से सौ टंची होता है और रही असफलता की बात तो हर सच्चे प्रेम करने वालों के लिये असफलता, सफलता की राह का पहला सोपान होता है। लेकिन जहाँ वासना है वहाँ प्रेम नहीं।"
इस तरह उस दिन पहली बार किसी ने मुझे अन्दर तक झकझोर दिया। इसके बाद पत्रों से प्रश्न और उत्तर का दौर चालू हो गया। फिर क्या था, लगभग पाँच साल बाद उसने लिखा ''अमरत्व आकांक्षी जीवन के सत्य को समझ, पत्ते की तरह उड़ रही है, जिसे पाना अब संभव न होगा।''
''क्योंकि ज्योत्स्ना तो ज्योत्स्ना है, जो मध्य रात्रि में निकलेगी, लेकिन पल भर के लिये। मेरा एहसास एक सत्य है, जो निकलेगा, दिखेगा और ओझल हो जायेगा, बिल्कुल इन्द्रधनुष की तरह। तुम्हारे आंख की अश्रुधारा मेरा सिंचन होगी और हंसी मेरा पुण्य-स्मरण। लेकिन किसी न किसी रूप में मैं फिर आऊँगी तुम्हारे सामने, क्योंकि प्रेम अमर है।"
यह उसका अन्तिम पत्र था, इसके बाद फिर कभी कोई पत्र नहीं आया। यही पत्र मैंने ऑफिस की फाइल में रख रखा था। सामने पंखा चल रहा था और मैंने वह फाइल उठाई तथा बिखरे पन्नों में से उस पत्र को पढ़ना चाहा पर हवा के झोंको से वह हाथ से छिटक गया और रौशनदान से बाहर उड़ गया। आज पतंग को देखकर वही विचार आ गया था। खैर, जाने दो, चलो चलते हैं।
तभी शशि ने "एक मिनट" कहकर रुकने के लिये कहा। वह नीचे गयी और एक पन्ना लेकर आई। उसने वह पन्ना नितिन बाबू को देते हुये कहा ''कहीं यह तो वो पत्र नहीं है?''
''अरे! हाँ यही तो है! पर ये तुम्हें कहाँ से मिला?'' आश्चर्य से नितिन बाबू ने पूछा।
शशि ने बताया "मैं एक दिन छत पर कपड़े सुखाने गई, तभी मुझे छत पर यह पड़ा मिला। चूंकि संवेदना और भावना अच्छी थी इसलिये मैंने इसे रख लिया था।" अब प्रसन्नता हो रही है कि इसे इसके सही ठिकाने पर पहुँचा सकी। लेकिन अब कहीं ये बिखरे पन्ने बिखर गये तो शायद फिर कोई छत न होगी, इन्हें रोकने के लिये।
"ठीक है बाबा! अब नहीं बिखरने दूंगा ये पन्ने" और दोनों हाथ में हाथ डालकर नीचे चल दिये।