लघुकथा अपरिग्रह
लघुकथा अपरिग्रह
बस से उतर कर मैं घर की तरफ चल पड़ा। परसों ही छोटे भाई का फोन आया था कि भैया एक बार घर आ जाओ, पिताजी-माँ आपको बहुत याद करते है। मैं समझ गया था, ज़रूर पैसों की ज़रूरत होगी।
कितनी बार समझाया है अंजली को कि यह सब शानो शौकत मेंरी वर्षों की मेंहनत का परिणाम है। उसे मैं किसी को नहींं बाँटना चाहता परन्तु वह हमेंशा मुझे ही समझाने की कोशिश करती रहती है, "जो हमारे भाग्य मेंं लिखा है उसे कोई नहींं ले सकता, लेकिन परिवार वालों व जरूरतमंदों की सहायता से जो दुआएं मिलती है उनसे हमारे सुख बढ़ अवश्य जाते है"
"बस रहने दिया करो। यह तुम्हारी दान-धर्म की बातें। अब मैं किसी को कुछ भी नहींं देने वाला, यह फ्लैट दस साल पुराना हो चुका है। एक नई साइट आई है जहाँ बंगले बन रहे है। मैं सोच रहा हूँ कि वहाँ एक पाँच बेडरूम का बंगला बुक करवा देता हूँ"
"जी, वैसे इतने बड़े घर की क्या आवश्यकता है? हमारा परिवार भी इतना बड़ा नहींं है। चार कमरे वाला करवा दीजिये व थोड़े पैसे देवर जी को भेज दीजिये। उनके बेटे की फीस जमा करवानी होगी न। परसों ही सीमा का फोन आया था। चिंता कर रही थी बेटे की फीस की" अंजली मुझे टोकते हुए बोली।
मैं अपने ही विचारों की तंद्रा मेंं दो दिन पहले अंजली के साथ हुई बातचीत पर झुंझलाता हुआ चला जा रहा था। प्यास के मारे गला सूख रहा था। बस स्टैंड से घर का रास्ता करीब तीन सौ मीटर था परन्तु जून की गर्मी मेंं हाल, बेहाल होने लगा। वहीं पर एक हैण्डपम्प के पास पानी पीने के लिए रुक गया।
एक छोटा लड़का भी वहाँ पानी लेने आया था, मैंने उसे हैण्डपम्प चलाने को कहा।
बच्चा था, लगा जोर-जोर से चलाने और मैं प्यास से बेहाल, सोच रहा था घड़ा भर पानी पीने की। लेकिन यह क्या? जितना पानी मेंरी अंजुली मेंं आ रहा था उससे ज़्यादा पानी बह रहा था। मैंने पानी जल्दी-जल्दी गटकने की कोशिश की परन्तु उसे बहने से मेंरी अंजुरी रोक नहींं पा रही थी।
पानी को गले में गटकते-गटकते मैं हांफने लगा और उस बच्चे को पंप चलाने के लिए इशारों से मना कर दिया। अत्यधिक मात्रा मेंं पानी पीने से पेट भी फूल चुका था लेकिन जो पानी मेंरी अंजुरी मेंं था उसे मैं गिराना नहींं चाहता था।
अचानक से वहाँ दो चिड़ियाएँ आई और हैडपम की मुंडेर पर फुदकने लगीं। मैंने अंजुरी का पानी पास ही पड़े एक टूटे घड़े की ठीकरी मेंं डाल दिया। फुदकती हुई चिड़ियाएँ पानी पीने लगीं। जिसके हिस्से का था, उसे मिल चुका था।
आँखों मेंं जमा बरसों का भ्रम, दो बूँद आँसू बन गालों पर लुढ़क आया।